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गुजरात के चुनाव में ‘गुजराती’

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जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है गुजरात विधानसभा चुनावों को लेकर राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ रही हैं और मुख्य प्रतिद्वन्द्वी दलों भाजपा व कांग्रेस के बीच आरोप-प्रत्यारोप की बरसात भी तेज हो रही है। मगर इस रस्साकशी में दोनों ही पार्टियां एक तथ्य भूल रही हैं कि भारत के लोकतन्त्र को अपना खून-पसीना देकर सींचने वाली आम जनता ने हमेशा ‘सूरज की तरफ’ मुंह रख कर ही राजनेताओं को उनकी असलियत बताई है। ये चुनाव भाजपा के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुके हैं औऱ कांग्रेस के लिए अपने भविष्य को सुनिश्चित करने के। परन्तु मूल प्रश्न गुजरात के भविष्य को सुन्दर बनाने का है और इसी मुद्दे पर आम गुजराती अपने एक वोट की ताकत से दोनों ही पार्टियों को उनकी असली जगह बताकर अपने राजनैतिक कौशल का परिचय पूरे भारत को देगा।

भारत के अपेक्षाकृत कम पढ़े-लिखे और गरीब मतदाताओं को राजनीतिक दल अपने प्रभावी चुनाव प्रचार से दिग्भ्रमित करने के प्रयास अक्सर करते हैं। और ऐसे मुद्दे भी जबरन पैदा करते हैं जिनका मतदाताओं के आम जीवन या उनके राज्य के विकास सम्बन्धी मामलों से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होता । एेसा करके राजनैतिक दल अपना ही चुनावी संसार बसाना चाहते हैं और फिर अपेेक्षा करते हैं कि मतदाता भी वही देखें जो वे दिखाना चाहते हैं और वही सुनें जो वे सुनाना चाहते हैं। लेकिन महात्मा गांधी के राजनैतिक संस्कारों से पल्लवित इस देश के मतदाताओं में यह जज्बा कूट-कूट कर भरा हुआ है कि साधारण आदमी जब कोई निश्चय कर लेता है तो उसे दुनिया की कोई ताकत नहीं हरा सकती क्योंकि उसका निश्चय जमीनी सत्य से अभिप्रेरित होता है।

चुनावी लड़ाई में अक्सर राजनैतिक दल इसी जमीनी सच्चाई का अन्दाजा लगाने में बहक जाते हैं और अपना गढा हुआ सच लोगों को दिखाना चाहते हैं। मुझे अच्छी तरह याद है कि अस्सी के दशक में जब स्व. श्रीमती इंदिरा का इस देश में डंका बजता था तो उनके ही साथी रहे स्व. हेमवती नन्दन बहुगुणा ने 1979 में जनता पार्टी छोड़ कर कांग्रेस में प्रवेश किया था तब बहुगुणा को पुनः अपने साथ लेने के लिए इंदिरा जी ने आधी रात को उऩके घर का दरवाजा खटखटाया था। उन्होंने 1980 का लोकसभा चुनाव गढ़वाल संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर ही जीता था। मगर कुछ महीनों बाद ही इंदिरा जी और उनमें मतभेद गहरा गये जिसकी वजह से उन्होंने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी और लोकसभा की सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया। उन्होंने पुनः गढ़वाल संसदीय सीट से ही 1982 में उपचुनाव लड़ने की घोषणा की तो इंदिरा जी ने उनके विरुद्ध अपनी पार्टी का प्रत्याशी उतार कर खुद चुनाव प्रचार की कमान संभाली। ऐसा पहली बार हुआ था कि कोई प्रधानमन्त्री किसी उपचुनाव में स्वयं चुनाव प्रचार कर रहा था।

इंदिरा जी ने प्रचार की सारी सीमाएं लांघ दी थीं और हेलीकाप्टर तक से अपनी पार्टी की प्रत्याशी के प्रचार के पर्चे डाले थे। जाहिर है इनमें बहुगुणा जी के विरोध में भी तीखी भाषा का इस्तेमाल किया गया था। बहुगुणा जी सीमित साधनों से ही अपना प्रचार कर रहे थे मगर एक बात वह अपने मतदाताओं से कह रहे थे कि आप अपने अन्तर्मन से निकली आवाज के अनुसार वोट डालिये, इन्दिरा जी ने मेरे चुनाव को अपनी निजी प्रतिष्ठा का सवाल बना कर गढ़वालवासियों का सिर ऊंचा कर दिया है अतः अब आपको अपना सिर कैसे ऊंचा करना है इस बारे में अपने अन्तर्मन से सवाल कीजिये क्योंकि यह आपकी प्रतिष्ठा का सवाल है। परिणाम जो निकला वह चौंकाने वाला था। श्री बहुगुणा भारी मतों से विजयी घोषित हुए। मेरे कहने का आशय यह है कि कोई भी चुनाव किसी भी नेता या राजनैतिक दल की प्रतिष्ठा या भविष्य से नहीं जुड़ा होता बल्कि वह वहां के लोगों की प्रतिष्ठा से जुड़ा होता है। इस प्रक्रिया में उनका अन्तर्मन जो फैसला करता है वही परिणाम में परिवर्तित होता है। परन्तु यह राजनैतिक दलों पर निर्भर करता है कि वे चुनाव प्रचार को क्या स्वरूप देना चाहते हैं।

गुजरात और हिमाचल के चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दे प्रमुखता पर होने का प्रमुख कारण है कि भाजपा की तरफ से प्रचार की कमान स्वयं प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी संभाले हुए हैं और कांग्रेस की तरफ से श्री राहुल गांधी। मगर निश्चित तौर पर यह दो व्यक्तित्वों के बीच फैसला नहीं कहा जा सकता क्योंकि अन्ततः जो भी परिणाम निकलेंगे उनसे गुजरात व हिमाचल का ही भविष्य तय होगा और वहां की ही सरकार बनेगी। अतः अन्त में यह फैसला क्षेत्रीय अपेक्षाओं का प्रतिबिम्ब बनकर ही उभरेगा। किन्तु भारत के लोकतंत्र में एक तथ्य और बहुत महत्वपूर्ण है कि जब भी चुनावों मे इस प्रकार की ‘तू डाल- डाल मैं पात- पात’ की तर्ज पर राजनैतिक युद्ध होता है तो इन्हें कराने वाली स्वतन्त्र संस्था चुनाव आयोग पर भी शक की अंगुलियां उठाने से राजनैतिक दल बाज नहीं आते हैं।

हमारे लोकतन्त्र की चुनाव आधारशिला हैं और चुनाव आयोग रीढ की हड्डी है। अतः किसी भी तौर पर इस संस्था की भूमिका को हर सन्देह से परे रखा जाना चाहिए। यह कार्य केवल सत्तारूढ़ दल का ही नहीं बल्कि सभी विपक्षी पार्टियों का भी है। क्योंकि आयोग की विश्वसनीयता ही लोकतन्त्र की एेसी मुद्रा होती है जिसकी स्वीकार्यता विश्व स्तर पर होती है। हमारा चुनाव आयोग पूरी दुनिया के लोकतान्त्रिक देशों में अनूठा स्थान रखता है । अतः इसे भी अपनी कार्यप्रणाली पारदर्शी तरीके से निष्पक्ष बनाये रखनी होगी। इसने इसी साल के शुरू में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में सिद्ध कर दिया था कि उसकी विश्वसनीयता सन्देह से परे है क्योंकि उत्तर प्रदेश में भाजपा धुआं उड़ा कर जीती और पंजाब में कांग्रेस ने सबके होश फाख्ता कर डाले। दरअसल इन राज्यों के चुनाव परिणाम भारत के जीवन्त लोकतन्त्र की आत्मगाथा के अलावा और कुछ नहीं कहे जा सकते थे। जिनमें अंतिम विजय आम मतदाता की हुई थी। (समाप्त)

 

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