इससे पहले कि मैं यह लेख आपके सामने प्रस्तुत करूं। हमारे पूर्व उप-राष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी जी के अतीत पर पाठकों के समक्ष रोशनी डालना चाहता हूं। हामिद जी की पारिवारिक पृष्ठभूमि उत्तर प्रदेश में 100 साल पुरानी है। अंसारी जी की माता और पिता कांग्रेस पार्टी में थे और दोनों ही खिलाफत आंदोलन से जुड़े रहे और खुद अंसारी जी कांस्टीट्यूशनल असैम्बली के सदस्य भी रहे। खिलाफत आंदोलन से भी जुड़े रहे। यहां मैं यह बता देना चाहता हूं कि खिलाफत आन्दोलन में भारत में मुस्लिम धर्म गुरुओं ने इस्लाम में खिलाफत पद्धति को लेकर प्रोटैस्ट के तौर पर शुरू की थी। बाद में उनके इस आंदोलन को महात्मा गांधी ने अपनी मदद भी प्रदान की थी। इसी के चलते मुसलमानों में एकता और भारत से अलग होने की भावना जागृत हुई।
मुस्लिम लीग का निर्माण हुआ और जिन्ना को ताकत मिली जो आगे चलकर 1947 में भारत के बंटवारे का एक बड़ा कारण बनी। हामिद जी विदेश सेवा में कार्यरत रहे और अधिकतर मुस्लिम देशों में भारत का प्रतिनिधित्व भी करते रहे। जब रिटायर हुए तो वह अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष बन गए और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रहे। अंत में 10 वर्ष तक वह भारत के उपराष्ट्रपति रहे। निवर्तमान उपराष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी ने पदमुक्ति की वेला में भारत की सामाजिक परिस्थितियों पर जो टिप्पणी की है उसे लेकर एक वर्ग भारी विरोध कर रहा है और कह रहा है कि श्री अंसारी ने मुसलमानों के भय के माहौल में या असुरक्षा में रहने का जिक्र करके वर्तमान सरकार की नीतियों की कटु आलोचना तब की जब वह पद छोडऩे वाले थे।
पिछले 10 वर्षों से वह इसी व्यवस्था के अंग बने हुए थे और सब कुछ अपनी आंखों के सामने देख रहे थे मगर इसके साथ यह भी जरूरी है कि हम उनके विचारों पर गंभीरता से गौर करें और वस्तुस्थिति का मूल्यांकन पूरी तरह निष्पक्ष होकर बेबाक् तरीके से करें। यह हकीकत है कि केन्द्र में मोदी सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद से पूरे देश में साम्प्रदायिक दंगों में कमी आई है। केन्द्र सरकार का वादा है कि ‘सबका साथ-सबका विकास’ उसका लक्ष्य है। बिना किसी सम्प्रदाय या समुदाय का तुष्टीकरण करते हुए सबके साथ न्याय करना उसका ध्येय है। नीतियां स्पष्ट हैं तो फिर आशंका किस बात पर है। दरअसल श्री अंसारी ने शक नीतियों पर नहीं किया है बल्कि नीयत पर किया है। इसका निराकरण होना बहुत जरूरी है।
विपक्ष के कुछ नेता कह रहे हैं कि सरकार की नीयत भारत को ‘हिन्दू पाकिस्तान’ बनाने की है। माक्र्सवादी पार्टी के मूर्धन्य विद्वान कहे जाने वाले राज्यसभा सांसद श्री सीताराम येचुरी ने ये विचार राज्यसभा में ही बीते बुधवार को व्यक्त किये। क्या वास्तव में ऐसा है? जबकि केन्द्र की किसी भी योजना या कार्यक्रम में किसी सम्प्रदाय या समुदाय को तरजीह नहीं दी गई है। ये योजनाएं सभी हिन्दू-मुसलमानों के लिए हैं। गौवंश के संरक्षण व संवर्धन में मुसलमान नागरिकों की भूमिका को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए क्योंकि ग्रामीण इलाकों में इसी समुदाय के लोग हिन्दू समुदाय के लोगों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर अपनी-अपनी भूमिका निभाते चले आ रहे हैं और यह कार्य सदियों से हो रहा है। जिस भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में मुसलमानों की हिस्सेदारी आज भी 50 प्रतिशत से ज्यादा हो उस वर्ग में असहज रहने का माहौल तभी बनाया जा सकता है जब दूसरे समुदाय के लोगों के सहयोग में किसी प्रकार का बदलाव आये और हमारी सामाजिक व्यवस्था ऐसा किसी कीमत पर नहीं होने देगी क्योंकि दोनों वर्गों को अर्थव्यवस्था मजबूती के साथ जोड़े हुए है। अत: श्री अंसारी की आशंका अस्थायी माहौल के जायजे पर टिकी हुई है।
बेशक मुजफ्फरनगर के दंगों से माहौल कुछ समय के लिए खराब हुआ हो और इसके परिणामों से राजनीतिक हानि-लाभ का हिसाब-किताब लगाया गया हो मगर असलियत यह है कि इसके बावजूद यहां के समाज की आर्थिक गतिविधियों में समीकरण किसी भी तरह नहीं बदले हैं। यही भारत की असली ताकत है जो इसे एकता के सूत्र में बांधे रखती है मगर हमसे कालान्तर में कुछ भूलें भी हुई हैं। हमने मुसलमानों को विकास की धारा में शामिल करने के बजाय धार्मिक दायरों में कैद किये रखा। एक मुसीबत तो यह रही कि राजनीतिज्ञों ने मुसलमानों को वोट देने वाली दुधारू गाय समझ कर उनके जज्बातों के साथ खेला। मुस्लिम समुदाय की भारत में यह दुर्दशा रही कि पिछले 30 सालों में शिक्षा के क्षेत्र में उनका स्तर गिरता ही चला गया जिस कारण मुस्लिम समाज पिछड़ता चला गया। क्या वह नीयत साबुत थी? आजाद हिन्दोस्तान में मुसलमानों ने किसी मुसलमान को अपना नेता तक नहीं माना। उनके जितने भी लोकप्रिय नेता हुए वे सभी हिन्दू ही थे मगर अफसोस हमने उनकी ‘नियति’ बदलने के उपाय नहीं किये, इसमें दोष किसका है।
श्री अंसारी को इन सब तथ्यों पर भी गौर करना चाहिए था और ऐसे सुझाव देने चाहिएं थे जिनसे मुसलमानों में आत्मविश्वास को बल मिल सके। उन्हें कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों की कारगुजारियों को भी ध्यान में रखते हुए सामाजिक सुरक्षा का माहौल तैयार करने के लिए उपयोगी सुझाव देने चाहिए थे। केवल सरकार को कठघरे में खड़ा करने से वह अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते हैं। वह संवैधानिक पद पर रहे हैं और भारत का संविधान मजहब के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव को बर्दाश्त कभी नहीं कर सकता। अत: यह कह देने भर से कि मुसलमानों में असुरक्षा की भावना है, उनकी जिम्मेदारी पूरी नहीं हो जाती है। उहें मुस्लिम संगठनों को भी निशाने पर लेना चाहिए था जो मुसलमानों को पहले भारतीय होने से रोकते हैं। स्वयं श्री अंसारी ने अपने सभी कूटनीतिक व संवैधानिक दायित्वों का निर्वाह एक मुसलमान की तरह नहीं बल्कि भारतीय की तरह ही किया है। यह सन्देश उन्होंने पदमुक्ति के समय ही क्यों दिया? पद पर रहते हुए क्यों नहीं दिया? यदि उनको मुसलमानों के प्रति इतना ही डर था तो उन्होंने अपना इस्तीफा पहले क्यों नहीं दिया? हामिद जी! बस! बात तो सिर्फ इतनी सी है।