आज 11 जून मेरे पिता अश्विनी कुमार का जन्म दिवस है। इसी वर्ष 18 जनवरी, 2020 को उन्होंने इस भौतिक संसार को अलविदा कहा। अपने पिता के बारे में लिखने की कोशिश करते समय लेखनी बार-बार असहज होती रही। कभी मेरे सामने आंसुओं से भीगा मां का चेहरा आ जाता तो कभी अनुज अर्जुन और आकाश का। पिताजी के जन्म दिवस पर हम खुशियों से सराबोर हो जाते थे। बर्थडे पर पार्टी का आयोजन किया जाता, जिसमें बड़े से बड़े दिग्गज राजनीतिज्ञ, अभिनेता, सम्पादक, पत्रकार, डाक्टर और दोस्त शामिल होते। परिवार के सदस्य और सगे-संबंधी भी शामिल होते। मेरा बचपन बहुत मस्ती में बीता क्योंकि मुझ पर पिता का साया था। युवा होने तक उन्होंने हमें कोई कमी नहीं होने दी। मैं शिक्षा के प्रति लापरवाही बरतता तो मुझे जमकर डांटते भी थे लेकिन कुछ क्षण बाद मुझसे स्नेह भी जताते थे। मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मेरे कंधों पर कितना बड़ा दायित्व आ जाएगा। मैंने सोचा भी नहीं था कि पिता का अवसान होते ही मुझे रिश्तों से जूझना पड़ेगा।
मेरे पिता ही मेरे सबसे बड़े आदर्श रहे, जिन्होंने मुझे बहुत कुछ सिखाया। उनका जीवन अपने आप में एक मिसाल है। मैं उनके साहस और उनकी कलम को नमन करता हूं। वे अक्सर इस बात का उल्लेख करते कि पंजाब में उनके दादा लाला जगत नारायण जी की हत्या के बाद परिवार ने लगभग तय कर लिया था कि जालंधर से पंजाब केसरी का प्रकाशन बंद कर किसी दूसरे राज्य में बसा जाए। क्योंकि परिवार काफी भयभीत था, रिश्तेदार और करीबी मित्र भी यही सलाह दे रहे थे कि हमें अपने जीवन की सुरक्षा के लिए ऐसा करना चाहिए। लेकिन पिता जी ने और उनके पिताजी ने साहस का परिचय देते हुए कहा कि पंजाब से पलायन आतंकवाद के आगे घुटने टेकना होगा। हमारा परिवार पंजाब छोड़ देगा तो पंजाब के हिन्दुओं का क्या होगा। अगर पंजाब से हिन्दू पलायन कर गए तो आतंकवादी अपने षड्यंत्र में सफल हो जाएंगे। मेरे पिता और दादा जी ने ने परिवार और स्टाफ को मानसिक रूप से तैयार किया कि सभी को सत्यपथ पर चलना है। उन्हें मृत्यु का कोई खौफ ही नहीं रहा था। उन्होंने अपनी कलम से प्रैस की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी, उन्होंने सत्ता से बार-बार टक्कर ली। उनकी कलम बेखौफ चली। आज मैं महसूस कर रहा हूं बिना पिता के जीवन मानो बिना छत के घर, बिना आसमान के जमीन का होना है। एक पिता के जीवन का सटीक विश्लेषण करना बेहद मुश्किल काम है। एक पिता ही बच्चों के पास दुनिया की बड़ी ताकत होते हैं। पिता से ही नाम होता, पिता ही बच्चों को कामयाब इंसान बनाते हैं, बाकी सब रिश्ते झूठे होते हैं।
पिताजी अक्सर कहा करते थे-‘‘सत्य के पथ पर चलने के रास्ते में कांटे चुभते ही हैं, अतः साहसी वही होता है जो न सत्यमार्ग छोड़े और न ही कभी प्रलोभन में आए।’’ वह स्वामी विवेकानंद के प्रशंसक थे और उनकी पंक्तियों को कहते थे-दूसरे तुम्हारा क्या मूल्यांकन करते हैं, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि तुम स्वयं को कितना महत्वपूर्ण मानते हो। पिताजी के सम्पादकीयों की आलोचना भी हुई और विरोध भी लेकिन उन्होंने न कलम से न खुद से कभी कोई छल नहीं किया। यही उनकी सबसे बड़ी तपस्या थी। उन्होंने भगवान कृष्ण के इन वचनों को जीवन दर्शन माना-‘‘हे अर्जुन जिस तरह मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़ कर नए वस्त्र धारण कर लेता है, ठीक उसी तरह आत्मा पुराने शरीर को छोड़ कर नए शरीर को अपना लेती है, उसके लिए मृत्यु कैसी?
कैंसर की बीमारी से जूझते हुए भी पिताजी ने अपने जीवन का मूल्यांकन स्वयं करना शुरू कर दिया। उन्होंने धारावाहिक सम्पादकीय ‘इट्स माई लाइफ’ लिखा। एक तरह से यह उनकी आत्मकथा थी यानी खुद की तलाश। इससे पहले कि आत्मकथा समापन की ओर पहुंचती उससे पहले ही उन्होंने अपनी सांसें छोड़ दीं। आत्मकथा के बहुत से पन्ने पड़े हुए हैं। मेरी कोशिश होगी कि उन पन्नों को मां के सहयोग से भी प्रकाशित करूं। आत्मकथा यानी स्वयं को एक चेहरा देने की कोशिश। आत्मकथा यानी स्वयं का बोध। पिताजी के होते हमारे पास स्वाभिमान, ईमानदारी, मान-सम्मान, त्याग, प्रतिष्ठा, विवेक, आदर्श, नैतिक मूल्यों और संस्कार जैसे शब्दों का संग्रह हो जाता है क्योंकि यह सारे शब्द पिता के जीवन में महत्वपूर्ण होते हैं। अब यह सारा दायित्व हम सबके कंधों पर है। अब मेरे सामने दो बड़ी चुनौतियां हैं, पहली तो उनकी कलम की विरासत को निष्पक्ष और बेखौफ होकर सम्भालना और दूसरा परिवार को आत्मबल प्रदान करना। मेरी मां किरण जी परिवार का ऐसा स्तम्भ हैं जो हमें रोज पिताजी के पथ पर चलने की प्रेरणा देती हैं। आज पिताजी जीवित होते तो सुबह-सुबह उन्हें ‘हैप्पी बर्थडे’ कहते, उनका आशीर्वाद लेते। लेकिन मुझे लगता है कि पिताजी का आशीर्वाद हमेशा मेरे साथ है, वह मुझसे कभी अलग नहीं होंगे। वह हम सब में और पंजाब केसरी के हर कर्मचारी में जीवित हैं, जीवित रहेंगे। मैं आज भी उन्हें कहूंगा-
हैप्पी बर्थडे-पापा, हैप्पी बर्थडे टू यू