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काशी में हर हर महादेव

प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने आज वाराणसी में जिस काशी विश्वनाथ मन्दिर कारीडोर का उद्घाटन किया है

प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने आज वाराणसी में जिस काशी विश्वनाथ मन्दिर कारीडोर का उद्घाटन किया है उसकी महत्ता को केवल राजनैतिक नजरिये से देख कर हम इस ऐतिहासिक नगरी की गरिमा और प्रतिष्ठा को कम करके आंकने की गलती नहीं कर सकते हैं क्योंकि विश्वनाथ धाम वह पवित्र स्थल है जो भारत की न केवल सकल सामाजिक एकता का प्रतीक रहा है बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी भारत में प्राण वायु का संचार करता रहा है। एक मायने में यह भारत की सांस्कृतिक राजधानी इस प्रकार रहा कि यहां आकर उत्तर से दक्षिण का मेल प्रगाढ़ हुआ और इसमें बाबा विश्वनाथ प्रबल संबल बने। यह भारत की हिन्दू संस्कृति के विभिन्न पक्षों व अंगों का संगम स्थल रहा और यहां से उठने वाली स्वर लहरियों ने भारत के स्वतन्त्रता संग्राम तक को प्रभावित किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सर्दी के मौसम में जिस तरह से गंगा में डुबकी लगा कर स्वयं कलश में ‘गंगा जल’ भरा और उसी से बाबा विश्वनाथ का जलाभिषेक किया उससे प्रधानमंत्री की ईश्वर के प्रति आस्था का पता चलता है।
इस सन्दर्भ में आजादी से पूर्व कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं एनी बेसेंट और पं. मदन मोहन मालवीय के बीच हुआ सांस्कृतिक संवाद विशिष्ट महत्व रखता है। यह भी अकारण नहीं है कि पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने इसी काशी विश्वनाथ मन्दिर में भी अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर के समान ही ‘स्वर्ण पत्र’ चढ़ाकर भारतीय अस्मिता को गौरान्वित किया था और उससे पहले इन्दौर के डोल्कर वंश की महारानी अहिल्याबाई ने इसका पुनराेद्धार कराया था। वास्तव में यह हिन्दू प्रतिस्थापना से ऊपर भारतीय प्रतिस्थापना थी क्योंकि काशी की पहचान समग्र भारत की उस पहचान से जुड़ी हुई थी जो लोगों में स्वराज्य की लौ जगाये रखने में उत्प्रेरक का काम करती थी। बेशक हिन्दुओं में काशी की अवधारणा मोक्ष दायी स्थान के रूप में थी मगर लौकिक अर्थों में यह संसार की मोहमाया से विरक्त होने का भाव जगाती थी। भारतीय दर्शन शास्त्र में काशी को आध्यात्मिक नगरी के रूप में प्रतिष्ठा इसी कारण मिली कि यह भौतिक भोग से परे जन कल्याण के उद्देश्य से विलासिता के उपक्रमों से निवृत्त होने का सन्देश देती थी। इसका प्रतीक भगवान शंकर बने जिनका लक्ष्य वीतरागी बन कर तीनों लोकों में सामंजस्य स्थापित करते हुए उन्हें हर समय सन्तुलित बनाये रखना था।
भगवान शंकर को हिन्दू शास्त्रों में औघड़दानी भी कहा जाता है जिन्होंने लंकापति रावण की तपस्या से प्रसन्न होकर उसे अपना स्वर्ण महल भी दे दिया था। स्थूल अर्थों में इसी वजह से काशी को मनोकामना पूरी करने वाली नगरी भी कहा जाता है। यदि वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक की इस नगरी के इतिहास को देखें तो यह विद्या व दर्शनशास्त्र का केन्द्र इस प्रकार रहा कि यहां विभिन्न मतों के मानने वाले विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ की परंपरा रही। यहां के विद्वानों की प्रतिष्ठा सन्देड़ से परे मानी जाती थी। इस सन्दर्भ में हमें भारत रत्न से विभूषित पं. मदन मोहन मालवीय के उस प्रयास का आकलन करना चाहिए जो उन्होंने यहां हिन्दू विश्व विद्यालय स्थापना को लेकर की थी। मगर काशी के स्वरूप को निखारने की परिकल्पना प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी को यहां से अपना पहला लोकसभा चुनाव 2014 में लड़ने के बाद आयी। इसकी वजह संभवतः यह थी कि यह नगरी हमारी मान्यताओं के अनुसार विश्व की सबसे प्रचीनतम नगरियों में से एक थी और इसे बसाने वाले स्वयं भगवान शिव शंकर थे। वैज्ञानिक सोच रखने वालों के ​लिए  बेशक यह मिथक हो सकता है परन्तु करोड़ों भारतीयों के इस विश्वास को वह नहीं बदल सकते। हर युद्ध रणभेरी का आह्वान ‘हर- हर महादेव’ से  करने वाले भारतीय योद्धा समस्त जगत को अधर्म से मुक्ति दिला कर शान्ति व प्रेम के रस से भर देना चाहते हैं।
अतः पूरे भारत से आने वाले श्रद्धालुओं के लिए विश्वनाथ धाम को सुगम बनाने हेतु प्रधानमन्त्री ने जो परिकल्पना की उसका स्वागत चहूँ ओर से किया जा रहा है बल्कि भाजपा की प्रतिद्वन्द्वी पार्टी सपा को कहना पड़ रहा है कि इस कारीडोर का विचार उसकी सरकार के दौरान ही रखा गया था। मगर दुनिया जानती है कि जब कारीडोर के लिए मन्दिर के आसपास के क्षेत्र की बेतरतीब बनी और हथियाई गई जमीनों को खाली कराया जा रहा था तो विरोध करने का काम भी समाजवादी पार्टी ही कर रही थी। कल्पना की जा सकती है कि बाबा विश्वनाथ के मन्दिर के प्रांगण को किस तरह केवल 2700 वर्ग फुट के क्षेत्र में समेट दिया गया था। जाहिर है यह काम अवैध कब्जों के जरिये ही किया गया होगा और इसके आसपास बने 63 अन्य मन्दिरों को आवासों व वाणिज्यिक ठिकानों में परिवर्तित करके ही किया गया होगा। अतः ऐसे  ठिकानों को हटाने का काम आसान नहीं था। अतः उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने केवल दो वर्ष के भीतर ही सभी ठिकानेदारों को उचित मुआवजा देकर व उन्हें अन्यत्र बसा कर कारीडोर की परिकल्पना को जमीन पर उतारा और मन्दिर के प्रांगण को पांच लाख वर्ग फुट का बना दिया और शहर से मन्दिर तक आने वाले मार्ग को सुविधाजनक बनाते हुए बाबा के धाम का सीधा सम्बन्ध गंगा नदी से जोड़ा। इस काम पर कुल 339 करोड़ रुपए का खर्च आया।
विश्वनाथ धाम को सुगम व स्वच्छ बनाने को हमें धार्मिक दायरे से ऊपर उठ कर सामाजिक नजरिये से सोचना चाहिए और विचार करना चाहिए कि धार्मिक तीर्थ व पर्यटक स्थलों के कायाकल्प करने की परियोजनाओं का लाभ समूचे शहर व स्थानीय नागरिकों को होता है। इससे उस शहर में रोजगार के साधन बढ़ते हैं और नागरिक सुविधाओं की प्रचूरता होती है। इसके असर से सम्बन्धित शहर की अन्य नागरिक सुविधाओं में भी इजाफा होता है। भारत के एक राष्ट्र के रूप में निर्माण होने में तीर्थ स्थलों की भी प्रमुख भूमिका रही है अतः काशी विश्वनाथ कारीडोर के निर्माण को हमें इस दृष्टि से भी देखना चाहिए और फिर भारतीय अस्मिता के प्रश्न पर विचार करते हुए अपनी जड़ों को मजबूत करना चाहिए।

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