हरियाणा में अचानक हुए राजनैतिक नेतृत्व परिवर्तन का अर्थ भी पूरी तरह से 'राजनैतिक' ही है। 2019 से राज्य में चल रही मनोहर लाल खट्टर सरकार दुष्यन्त चौटाला की जननायक जनता पार्टी के साथ मिलकर सत्ता पर जिस तरह काबिज थी उसमें प्रदेश की जातिगत संरचना इस प्रकार सध रही थी कि राज्य के प्रत्येक वर्ग के लोगों का प्रतिनिधित्व इसमें हो सके। हरियाणा चुंकि एक कृषि मूलक राज्य है अतः श्री खट्टर ने स्व. चौधरी देवीलाल की विरासत संभाले दुष्यंत चौटाला की पार्टी से सहयोग कर अपनी सरकार को समग्र स्वरूप में पेश करने का प्रयास किया, जिसमें उन्हें कई अर्थों में सफलता भी मिली। कहने को कहा जा सकता है कि जनसंघ के जमाने से ही भारतीय जनता पार्टी इस राज्य की दूसरे नम्बर की सबसे बड़ी पार्टी रही मगर डा. मंगल सेन की मृत्यु के बाद से इसे एेसा कोई नेता नसीब नहीं हुआ जिसकी स्वीकार्यता समाज के सभी वर्गों में हो। बेशक 2014 के विधानसभा चुनावों, इससे पूर्व हुए लोकसभा चुनावों में चली मोदी लहर में भाजपा को अपने बूते पर पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ और यह राज्य की सबसे बड़ी पार्टी बन गई। उस वर्ष भाजपा ने एक जमीनी कार्यकर्ता श्री खट्टर को खोजकर उन्हें सरकार की कमान सौंपी और इस रवायत को नकार दिया कि हरियाणा में केवल कोई जाट नेता ही मुख्यमन्त्री बन सकता है।
श्री खट्टर ने अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी और स्पष्टवादी सोच के सहारे पूरे पांच वर्ष तक एक सफल सरकार चलाई मगर 2019 के चुनावों में पार्टी को अपने बूते पर 90 सदस्यीय विधानसभा में पूर्ण बहुमत नहीं मिल सका हालांकि 41 सीटें प्राप्त करके यह सबसे बड़ी पार्टी बनी। तब इसने श्री दुष्यन्त चौटाला की जननायक जनता पार्टी के विजयी दस विधायकों के साथ गठबन्धन सरकार बनाई मगर वर्तमान में लोकसभा चुनावों से एेन पहले श्री चौटाला ने लोकसभा चुनावों में सीट बंटवारे के मुद्दे पर मतभेद हो जाने की वजह से सरकार से अलग होने का फैसला किया और अपने बूते पर ये चुनाव लड़ने का मन बनाया। बेशक दुष्यन्त चौटाला की पैठ कृषिमूलक समाज खासकर जाट मतदाताओं में मानी जाती है जबकि राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस का जनाधार भी इस वर्ग समेत अन्य सामान्य व दलित समूहों में भी पुरअसर माना जाता है।
कांग्रेस के नेता राज्य में श्री भूपेन्द्र हुड्डा है जिनकी लोकप्रियता भी कम नहीं आंकी जाती है। लगातार लगभग दस वर्ष से सत्ता में रहते हुए श्री खट्टर के शासन के प्रति आम जनता में रोष पैदा होना लोकतन्त्र में स्वाभाविक माना जाता है। अतः कुछ राजनैतिक पंडितों का मानना है कि भाजपा ने रातोंरात नेतृत्व परिवर्तन कर श्री खट्टर के स्थान पर अपेक्षाकृत युवा समझे जाने वाले नायब सिंह सैनी को मुख्यमन्त्री बना सत्ता विरोध को ठंडा करना चाहा है। भाजपा शिखर राजनीति के समीकरणों में सिद्ध हस्त मानी जाती है। इससे पूर्व उत्तराखंड, गुजरात व त्रिपुरा आदि में भी चुनावों से पहले मुख्यमन्त्री बदल कर भाजपा सफलता का स्वाद चख चुकी है परन्तु कर्नाटक में इसकी यह रणनीति सफल नहीं हो पाई थी। यहां विधानसभा चुनावों से छह महीने पहले अपने मुख्यमन्त्री येदियुरप्पा के स्थान पर इसने श्री बोम्मई को मुख्यमन्त्री की कुर्सी सौंपी थी मगर इसका प्रदेश की जनता पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा और भाजपा के शासन के खिलाफ लोगों में रोष बरकरार रहा। परिणामतः पार्टी को इस राज्य में कांग्रेस के हाथों करारी पराजय का सामना करना पड़ा। वैसे राजनौतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है कि हरिमाणा में भाजपा व चौटाला मिलकर राजनैतिक प्रयोग कर रहे हैं और चुनाव से पहले अलग-अलग होकर वोटों के विभाजन की व्यूह रचना कर रहे हैं क्योंकि चौटाला ने किसान आन्दोलन के समय भी भाजपा का साथ नहीं छोड़ा था और वह खट्टर सरकार में बने रहे थे।
सवाल यह भी है कि चौटाला की पार्टी का लोकसभा चुनावों में क्या महत्व हो सकता है क्योंकि ये राष्ट्रीय चुनाव है और राज्य में भाजपा का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस एक मजबूत ताकत मानी जा रही है। अतः ताजा-ताजा सत्ता छोड़ कर विपक्ष में शामिल हुए चौटाला का मतदाताओं पर कितना असर हो सकता है यह तो समय ही बतायेगा। मगर जहां तक नये मुख्यमन्त्री नायब सिंह सैनी का सवाल है तो वह पिछड़े वर्ग से आते हैं और राज्य में दलित व पिछड़े मतदाताओं की संख्या भी काफी मानी जाती है। श्री सैनी का चुनाव भाजपा ने बहुत सोच-समझकर किया लगता है क्योंकि उनकी राजनैतिक छवि पूरी तरह बेदाग है और वह युवा अवस्था से ही भाजपा के समर्पित कार्यकर्ता रहे हैं। एेसा माना जा रहा है कि पूर्व मुख्यमन्त्री श्री खट्टर को भाजपा केन्द्र में कोई महत्वपूर्ण भूमिका दे सकती है और वह लोकसभा चुनाव भी लड़ सकते हैं।
लोकसभा चुनावों में भाजपा का लक्ष्य बहुत बड़ा 543 सीटों में से 370 का है और पिछले 2019 के चुनावों में पार्टी ने राज्य की सभी दस सीटों पर सफलता प्राप्त की थी। देखना केवल यह होगा कि इन राष्ट्रीय चुनावों में भाजपा अपनी पुरानी उपलब्धि प्राप्त कर पाती है या नहीं हालांकि इन चुनावों के केन्द्र में प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की निजी लोकप्रियता ही रहेगी। राज्य विधानसभा के चुनाव भी इसी वर्ष के अंत तक होने हैं। लोकतन्त्र में हर चुनाव के मुद्दे अलग-अलग होते हैं अतः विधानसभा चुनावों पर लोकसभा चुनावों का ही प्रभाव रहे यह जरूरी नहीं होता जैसा कि पिछली बार 2019 में हुआ था कि दस की दस लोकसभा सीटें जीतने के बावजूद भाजपा विधानसभा चुनावों में पिछड़ गई थी। अतः हरियाणा की राजनीति बहुत ही दिलचस्प चक्र में प्रवेश कर गई है। नायब सिंह की नई सरकार ने विधानसभा में विश्वास मत जीत लिया है जिसमें निर्दलीय विधायकों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है। इसलिए देखना होगा कि 1967 में राजनीति में आया राम-गया राम की संस्कृति के जनक इस राज्य में राजनैतिक स्थिरता किस हद तक रहती है।