ईरान की जनता ने मौजूदा राष्ट्रपति डाक्टर हसन रुहानी को एक बार फिर भारी मतों से देश की कमान सौंपी है। रुहानी ने 62 फीसदी से ज्यादा वोट लेकर कट्टरपंथी प्रतिद्वंद्वी इब्राहिम रईसी को पराजित किया है। लोगों ने इतने उत्साह से मतदान किया कि निर्वाचन अधिकारियों ने लम्बी कतारें देखते हुए मतदान करने का समय आधी रात तक कई बार बढ़ाया। ईरान का राष्ट्रपति ईरान की राजनीतिक प्रणाली में दूसरा सबसे शक्तिशाली नेता होता है, उसके ऊपर देश का सर्वोच्च नेता होता है। ईरान में राष्ट्रपति चुनाव फ्रांसीसी चुनाव प्रणाली की तर्ज पर होता है। यदि किसी उम्मीदवार को 50 फीसदी से अधिक वोट नहीं मिलते तो दोबारा मतदान होता है लेकिन हसन रुहानी के समर्थन में काफी वोट पड़े। हसन रुहानी सुधार और परिवर्तन का नारा देते हुए 2013 में पहली बार ईरान के 11वें राष्ट्रपति बने थे। हालांकि इस बार उनके प्रतिद्वंद्वी रईसी कट्टरपंथी न्यायविद् हैं और उन्हें ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह अली खोमैनी का करीबी माना जाता है। हसन रुहानी की जीत उदारवाद की जीत है। ग्लासगो कैनेडेनियन यूनिवर्सिटी से पीएचडी की डिग्री प्राप्त रुहानी को शब्दशिल्पी कहा जाता है। रुहानी कड़वे फैसलों को मीठी चाशनी में डुबोकर लेते रहे हैं।
हसन रुहानी के पुन: राष्ट्रपति चुने जाने के अर्थ बहुत व्यापक और स्पष्टï हैं। मतदाताओं ने कट्टरपंथ को नकार दिया है और वे बाहरी दुनिया में और अधिक सम्पर्क चाहते हैं। रुहानी ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर ऐतिहासिक समझौता किया था। समझौते के तहत ईरान ने पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों में राहत और आर्थिक सहयोग के बदले अपना परमाणु कार्यक्रम रोक दिया था। रुहानी ने यह समझौता बहुत ही सूझबूझ के साथ किया क्योंकि एक बार तो ऐसा लगने लगा था कि अमेरिका और उसके चमचे मित्र देश ईरान को भी दूसरा इराक बनाने पर तुले हुए हैं। ईरान में हुए राष्ट्रपति चुनाव पश्चिमी देशों के लिए ही नहीं बल्कि स्वयं ईरानी समाज के लिए भी दिलचस्पी का विषय रहे। ईरानी सत्ता अपनी व्याख्या धार्मिक लोकतंत्र के नाम से करती है जिसकी धुरी सर्वोच्च इस्लामी धर्मगुरु के इर्दगिर्द घूमती है। इन चुनावों को भी हमेशा की तरह कट्टरपंथी और नरमपंथी विचारधारा का चुनाव माना गया। उनके प्रतिद्वंद्वी इब्राहिम रईसी लगातार आरोप लगा रहे थे कि रुहानी अपनी नाकारा नीतियों के चलते सुनहरे अवसर का लाभ नहीं उठा पाए लेकिन देश की जनता जानती है कि परमाणु कार्यक्रम की जिद और प्रतिबंधों के चलते ईरान पर युद्ध के जो बादल मंडरा रहे थे वे रुहानी की व्यावहारिक नरमी ने छांट दिये थे। लोगों को इस बात का विश्वास है कि पहले दौर के शासनकाल में उन्होंने देश को गम्भीर प्रतिबंधों से निजात दिलवाई और दूसरे दौर में वह राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक सुधारों को क्रियान्वित करेंगे। दूसरी तरफ उनके मुकाबले में खड़े रईसी ईरान के सबसे बड़े और सबसे धनी धार्मिक संस्थान इमाम रजा बारगाह के संरक्षक हैं। इस धार्मिक संस्थान की वार्षिक आय करोड़ों डालर आंकी जाती है। उनका राजनीतिक तजुर्बा न्यायपालिका तक ही सीमित है।
वे ईरान के उप मुख्य न्यायाधीश रहे और पिछले चार वर्ष से अटार्नी जनरल का पदभार सम्भाल रहे थे। 1988 में रईसी के फैसलों में हजारों की संख्या में विरोधी राजनीतिक कार्यकर्ताओं को फांसी दी गई। उनके बारे में कहा जाता रहा है कि रईसी की कलम एक शब्द लिखना जानती है और वह है फांसी। रईसी के कट्टरपन के कारण उन्हें युवा वर्ग और महिलाओं का समर्थन प्राप्त नहीं हुआ। रुहानी की निर्णायक जीत से उन्हें सुधार लागू करने और बीमार अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का जनादेश मिला है। ईरान ने दुनिया के साथ बातचीत का रास्ता चुन लिया है। यह रास्ता हिंसा और कट्टरपंथ से अलग है। देश में बेरोजगारी काफी बढ़ चुकी है, इस पर काबू पाना उनके लिए बड़ी चुनौती है। भारत और ईरान की दोस्ती कोई नई नहीं है। जब गुजरात में 2001 में विनाशकारी भूकम्प आया था तो सबसे पहले मदद का हाथ बढ़ाने वाला देश ईरान ही था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब ईरान गए थे तो रुहानी ने गर्मजोशी से उनका स्वागत किया था। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सम्बोधन में मिर्जा गालिब का शेर पढ़ा था-
”नूनत गरबे रफ्से-खुद तमाम अस्त
जे-काशी या-बे काशान नीम गाम अस्त।”
अर्थात् अगर हम अपना मन बना लें तो काशी और काशान के बीच की दूरी केवल आधा कदम होगी।
प्रधानमंत्री ने उन्हें सुमैरचंद की फारसी में अनुवादित रामायण की प्रति भी भेंट की थी। इस रामायण का फारसी अनुवाद 1715 में किया गया था। इसी दौरे के दौरान भारत-ईरान में कई महत्वपूर्ण करार किए गए थे, जिनमें ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग और चाबहार पोर्ट पर समझौता शामिल है। कट्टरपंथी इस्लामिक कानूनों वाले ईरान में रुहानी व्यक्तिगत आजादी बढ़ाने के भी हिमायती हैं। रुहानी के नेतृत्व में जनता की राजनीतिक हिस्सेदारी बढ़ी है। रुहानी को ग्रामीण क्षेत्रों में मिले वोट दर्शाते हैं कि ईरान के लोग आर्थिक लोकलुभावनवाद और रैडिकल बदलाव में अब और विश्वास नहीं करते। आज की दुनिया में ङ्क्षहसा और आतंकवाद की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। लोग इस बात को समझते हैं कि देश के मुश्किल हालात का समाधान अर्थव्यवस्था के सक्षम प्रबंधन और अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों में सुधार में है। रुहानी के नेतृत्व में भारत-ईरान संबंधों में और मजबूती आने की उम्मीद है।