सर्वोच्च न्यायालय ने घृणा या नफरत फैलाने वाले बयानों के बारे में दो टूक टिप्पणी करके जिस तरह देश के राजनैतिक वर्ग से लेकर आम जनता को आगाह किया है कि राजनीति में मजहब को मिलाने की वजह से कड़ुवाहट बढ़ रही है और ऐसे लोगों का मकसद मजहब के जरिये सत्ता को कब्जाना है। न्यायालय के विद्वान न्यामूर्तियों ने कहा कि सबसे बड़े दुख की बात यह है कि नफरती बयानों के मामले में राज्य या सत्ता मूकदर्शक और नाकारा बनी रहती है और समय पर कार्रवाई नहीं करती। विद्वान न्यायाधीशों ने सवाल खड़ा किया कि जब यह सब चल रहा है तो हमें राज्य की क्या जरूरत है? यहां सबसे महत्वपूर्ण यह है कि कुछ महीने पहले ही सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि जिस राज्य में नफरत फैलाने के वक्तव्य दिये जायें तो पुलिस को उसका स्वतः संज्ञान लेकर भारतीय दंड संहिता की सम्बन्धित धारा के अनुसार कार्रवाई करनी चाहिए। मगर इस फैसले के आने के बावजूद नफरती बयान देने वाले कथित नेताओं के हौंसले पस्त नहीं हुए हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री के.एम. जोसेफ व श्रीमती बी.वी. नागरत्ना की पीठ जब महाराष्ट्र के एक मल्टी मीडिया पत्रकार शाहीन अब्दुल्ला द्वारा दायर याचिका पर विचार कर रही थी तो ये तल्ख टिप्पणियां सामने आयीं। श्री अब्दुल्ला ने अपनी याचिका में महाराष्ट्र पुलिस के खिलाफ अवमानना करने का मामला इस वजह से दायर किया था कि उस राज्य में खुद को हिन्दू संगठन बताने वाले राज्य भर में रैलियों का आयोजन कर रहे हैं और दूसरे सम्प्रदाय के खिलाफ नफरती बयान दे रहे हैं। न्यायमूर्ति नागरत्ना ने तो यहां तक कहा कि एक समय में भारत में पं. नेहरू और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे वक्ता हुआ करते थे जिन्हें लोग बहुत ध्यान से सुना करते थे। मगर अब विभिन्न दलों के हाशिये पर समझे जाने वाले नेता घृणा मूलक बयान दे-देकर आम जनता का ध्यान खींच रहे हैं। न्यायमूर्ति जोसेफ का कहना था कि एेसा इसीलिए हो रहा है कि मजहब को राजनीति में मिला दिया गया है। जिस दिन यह समाप्त हो जायेगा उसी दिन नफरती बयानबाजी भी बन्द हो जायेगी।
दरअसल भारत के राजनीतिक समाज के लिए सर्वोच्च न्यायालय की यह सावधानी भरी चेतावनी है कि भारत की पूरी व्यवस्था और सत्ता ‘कानून के राज’ पर कायम है। राजनैतिक दलों की विचारधाराएं अलग-अलग हो सकती हैं और देश व जनता के विकास के लिए उनकी अवधारणाएं भी अलग-अलग हो सकती हैं मगर सत्ता में आने के बाद उन्हें लागू करने के लिए कानून की परिभाषा अलग-अलग नहीं हो सकती। यह परिभाषा हर वर्ग व समाज और सम्प्रदाय के लिए एक समान ही रहेगी और इसे तोड़ने वाले हर व्यक्ति को एक समान ही सजा मिलेगी। बेशक विभिन्न सम्प्रदायों या जातीय समाज के लोगों के लिए उनके घरेलू कानून अलग-अलग हो सकते हैं मगर फौजदारी कानूनों के मामलों में सभी की स्थिति एक जैसी ही होगी। यह कानून हर सम्प्रदाय के व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह पर एक समान ही लागू होगा कि किन्हीं दो समुदायों या वर्गों अथवा सम्प्रदायों के बीच दुश्मनी या रंजिश फैलाने और हिंसा भड़काने के लिए की गई कार्रवाई राष्ट्र की एकता को भंग करने के खांचे में आयेगी और ऐसे व्यक्ति के खिलाफ दंड संहिता की धारा 153 के विभिन्न उपबन्धों के तहत कार्रवाई की जायेगी। इसमें किसी व्यक्ति का मजहब कोई मायने नहीं रखता। अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि भारतीय संस्कृति में राज दरबारों में ‘धर्म गुरुओं’ का भी स्थान होता था।
भारत में धर्म का अर्थ कभी भी मजहब नहीं रहा है। इसका अर्थ दायित्व, कर्त्तव्य या विवेकबोध रहा है। धर्म गुरु राजा को उसका कर्त्तव्य बोध कराने के लिए होते थे जबकि पूजा-पाठ कराने के लिए अलग से राज पुरोहित हुआ करते थे। मगर भारत आज 21वीं सदी में जी रहा है अतः अतीत या भूतकाल में जीने का कोई अर्थ नहीं है। 15 अगस्त, 1947 को जो हमें आजादी मिली है और इसका गणतान्त्रिक व संसदीय स्वरूप मिला है वह स्वतन्त्र भारत की ऐसी धरोहर है जिसके आलोक में पिछले 75 वर्षों के दौरान हमने जमीन से लेकर आसमान तक अपनी कामयाबी के झंडे इस तरह गाड़े हैं कि आज विश्व बैंक का चेेयरमैन भी एक भारतीय मूल के श्री बंग्गा होने जा रहे हैं। यह सब हमने 26 जनवरी, 1950 से लागू संविधान के अन्तर्गत ही प्राप्त किया है और अपने मजहबी मामलों को अपने तक सीमित रख कर ही किया है। यह बेवजह नहीं है कि भारत में मजहब की स्वतन्त्रता निजी आधार पर दी गई है। इसका मतलब यही है कि भारत के किसी भी नागरिक का मजहब उसका निजी मामला है जिसका उसके राजनैतिक विचार से कोई लेना-देना नहीं है। मगर जब राजनीति में मजहब को प्रवेश करा दिया जाता है तो हमारे सामने पाकिस्तान जैसा नाजायज व नामुराद मुल्क आता है। इसकी हालत आज पूरी दुनिया के सामने है कि किस तरह यहां के हुक्मरानों ने यहां की अवाम को मजहब के नशे में मदहोश रख कर उसी की जेब पर डाका डाला और हालत यह कर डाली कि आज पाकिस्तान के लोग आटे के लिए ही लड़ रहे हैं। राजनीति में मजहब को मिलाने का हश्र इसके अलावा और कुछ हो भी नहीं सकता था। मगर भारत के लोग तो वे हैं जिन्हें यहां के ऋषि-मुनियों ने उन्हें ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का मन्त्र दिया।