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हाथरस की बेटी : नीर भरी दुःख की बदली

दरिन्दों के चलते एक और निर्भया ने दम तोड़ दिया। एक बार फिर देश करुणा और संवेदनाओं में बह रहा है। यह मनस्थिति किसी एक वर्ग, समूह या समुदाय की नहीं बल्कि नीचे से ऊपर तक के सभी नागरिकों के सामने आ रही है।

दरिन्दों के चलते एक और निर्भया ने दम तोड़ दिया। एक बार फिर देश करुणा और संवेदनाओं में बह रहा है। यह मनस्थिति  किसी एक वर्ग, समूह या समुदाय की नहीं बल्कि नीचे से ऊपर तक के सभी नागरिकों के सामने आ रही है। उस बेटी के लिए जिसको व्यक्तिगत रूप से कम ही लोग जानते रहे होंगे, लेकिन दरिन्दगी के 15 दिन तक जीवन और मृत्यु से संघर्ष करने के बाद दिल्ली के सफदरगंज अस्पताल में वह दम तोड़ गई लेकिन देश की करोड़ों महिलाओं की वेदना को मुखर ही नहीं कर गई बल्कि उसने समाज को फिर सोचने को मजबूर कर गई। पुलिस के लिए परिवार की संवेदनाओं का कोई अर्थ नहीं। रात ही रात में पुलिस ने उसका शव हाथरस ले जाकर परिवार की स्वीकृति के ​बिना अं​तिम संस्कार भी करा दिया। अंतिम संस्कार के समय परिवार का कोई सदस्य मौजूद नहीं रहा। पुलिस ने एक नहीं सुनी। गांव में हर आंख नम है, परिवार न्याय की गुहार लगा रहा है। पुलिस के अमानवीय रवैये और घटना के विरोध में देशभर में प्रदर्शन हो रहे हैं।
दिल्ली के निर्भया मामले के बाद जैसी सामाजिक क्रांति देखने को मिली थी, उससे यह उम्मीद बंधी थी कि अब शायद देश में महिलाओं को वैसे त्रासद अपराध से नहीं गुजरना पड़ेगा। बलात्कार कानूनों को सख्त बनाया गया लेकिन ना बलात्कार रुके, ना दरिन्दगी ना ही महिलाओं की हत्याएं। उत्तर प्रदेश में खासतौर पर महिलाओं के खिलाफ अपराधों जैसा सिलसिला चल पड़ा है। इस राज्य को महिलाओं के लिए सबसे ज्यादा असुरक्षित राज्य में शामिल कर दिया है। हाथरस की बेटी से ​दरिन्दगी हुई, इसकी पुष्टि उसकी मौत से होती है। उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़ी गई और जीभ काटी गई। हाथरस पुलिस इस दरिन्दगी का खंडन कर रही है।
यह कोई अकेली घटना नहीं है, लेकिन इस घटना की जो प्रकृति है, वह किसी भी आदमी को झकझोर देने के लिए काफी है। युवती दलित पृष्ठभूमि से थी और गिरफ्तार चारों आरोपी उच्च जाति के हैं। सवाल फिर सामने है कि क्या ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी दलित पृष्ठभूमि का होना ही अपराध का शिकार होने की स्थितियां बना देता है? वह कौन-कौन से कारण हैं कि दबंगों को यह सब करने से पहले कानून का कोई खौफ क्यों नहीं रहा। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में जातिवाद की जड़ें आज भी गहरी हैं।  
आज भी दलितों पर अत्याचार जारी है और उच्च जातियों के दबंग अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए ऐसी घटनाओं को अंजाम देते रहते हैं। अफसोस तो इस बात का है कि तमाम सख्त कानूनों के बावजूद देशभर में जमीनी स्तर पर महिलाओं के खिलाफ असुरक्षा और अपराधों की स्थितियों में कोई फर्क नहीं आया।
इसमें कोई संदेह नहीं कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने राज्य को अपराधमुक्त बनाने के लिए कड़े कदम उठाए हैं। बड़े अपराधियों पर शिकंजा कसा जा रहा है और उनकी अवैध सम्पत्तियों को तोड़ा जा रहा था, जब्त किया जा रहा है। बड़े-बड़े माफिया सरकार से आतंकित हैं लेकिन समाज में पनपी विकृति पर काबू पाना सरकारों के लिए मुश्किल काम होता है। इस वर्ष की शुरूआत में राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट  में बताया गया था कि महिलाओं के खिलाफ अपराधों के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे खतरनाक हालत में पहुंच चुका है। समाज के कमजोर तबकों की महिलाओं से बलात्कार और उनकी हत्या की घटनाएं जिस तरह से लगातार आने लगी हैं, उससे पुलिस पर सवाल तो उठेंगे ही। बलात्कार की घटनाओं के बाद प्राथमिकी दर्ज करने से लेकर जांच करने तक आरोपी को दोषी ठहराने तक के मामले में पुलिस का रवैया बेहद असहयोग से भरा रहता है। पुलिस रसूखदारों के पक्ष में काम करती है। हाथरस घटना में भी पुलिस का रवैया असहयोग वाला ही रहा। उत्तर प्रदेश के एटा जिले में अपहरण और बलात्कार की घटना के तीन वर्ष बाद प्राथमिकी दर्ज करने को लेकर जो खबर आई है, वह बताती है कि थानों में बैठी पुलिस किस तरह प्रभावशाली व्यक्तियों के पक्ष में काम करती है। अपराध पीड़ित महिला जिसको 88 दिन बंधक बनाकर लगातार सामूहिक बलात्कार किया जाता रहा, वह इंसाफ के लिए दर-दर ठोकरे खाती रही। लखीमपुर खीरी में तीन साल की बच्ची के साथ बलात्कार और फिर उसकी हत्या की घटनाओं से समाज में पनपती विकृति चिंता का विषय  है ही, यह भी चिंता का विषय है कि बड़े-बड़े अपराधियों को मार ​​गिराने वाली पुलिस महिलाओं के विरुद्ध अपराध करने वालों में कोई खौफ पैदा नहीं कर पा रही है। कोई परीक्षा फार्म भरने घर से बाहर निकलती है, उसे अगवा करके मार दिया जाता, कभी बच्चियों को कुंठित अपनी हवस का शिकार बनाने से बाज नहीं आते।
पूर्व में हमने देखा है कि देश को झकझोर देने वाले आपराधिक मामलों की गूंज मीडिया से जरिये देश के एक कोने से दूसरे कोने पर सुनाई पड़ी, इन पर सेलिब्रिटिज की प्रतिक्रियाएं आईं और कैंडिल मार्च निकाले गए। राजधानी दिल्ली में इंडिया गेट और मुम्बई में गेटवे ऑफ इंडिया तक मशहूर सेलि​ब्रिटिज की अगुवाई में तमाम मामलों में न्याय की मांग की गई। धीरे-धीरे कैंडिल मार्च भारत में लोकतांत्रिकता और अभिव्यक्ति की आजादी का एक नया आयाम बनकर उभरा। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि समाज की मानसिकता कैसे बदली जाए। पुरुषों की नग्नता क्रूर अटहास करती नजर आती है। हर बार महादेवी वर्म की ये पंक्तियां न जाने क्यों प्रासंगिक हो उठती है।
‘‘मैं नीर भरी दुख की बदली,
विस्तृत नभ का कोना-कोना
मेरा न कभी अपना होना
परिचय इतना, इतिहास यही, 
उमड़ी कल थी, मिट आज चली।’’
महिलाओं के प्रति स्वास्थ्य दृष्टि कहां से और कैसे लाएं? यह सवाल समाज से है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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