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हाथरस, करोली और कुडलूर

हाथरस बलात्कार व हत्याकांड की जांच का काम सीबीआई को सौंप कर उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने अपना भार जरूर हल्का किया है किन्तु यह सवाल अपनी जगह खड़ा हुआ है

हाथरस बलात्कार व हत्याकांड की जांच का काम सीबीआई को सौंप कर उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने अपना भार जरूर हल्का किया है किन्तु यह सवाल अपनी जगह खड़ा हुआ है कि पूरे मामले में प्रशासनिक लापरवाही क्यों हुई वहीं दूसरी तरफ राजस्थान के करोली जिले के एक गांव में जिस तरह मन्दिर के एक पुजारी को जला कर मारा गया उसमें प्रशासनिक सावधानी के चलते पुजारी के परिवार के साथ न्याय होने में देर नहीं लगी और मुख्य आरोपी को पुलिस ने तुरत-फुरत गिरफ्तार करके पूरे मामले को सहृदयता से निपटाने का प्रयास किया। दोनों मामलों की किसी भी प्रकार से न तो तुलना की जा सकती है और न ही दोनों में कोई समानता है। हाथरस में जहां एक बाल्मीकि परिवार की 19 वर्षीय युवती को पाशविकता का निशाना शारीरिक हवस पूरी करने के लिए बनाया गया वहीं करोली में जमीन पर कब्जा करने की लालसा ने पुजारी को काल का ग्रास बना दिया।
मैं शुरू से ही लिख रहा हूं कि हाथरस में जातिगत विद्वेश का मामला दूर-दूर तक नहीं है बल्कि यह एक निर्बल या कमजोर पर खुद को दबंग या ताकतवर समझने वाली मानसिकता का जघन्य अपराध है। जबकि राजस्थान में तो जातिगत झगड़े का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता क्योंकि यह गांव के एक वर्ग द्वारा मन्दिर की जमीन को लेकर खड़ा किया गया झगड़ा है जिसका अंजाम भूमि पर काबिज पुजारी की हत्या के रूप में हुआ है मगर जिस तरह करोली गांव के जम​ीन विवाद को दलित-ब्राह्मण विवाद के रूप मे परिवर्तित करने का राजनैतिक प्रयास किया जा रहा है उससे आज के दौर की राजनीति का खोखलापन जाहिर होता है। यह सत्ता पक्ष और विपक्ष की राजनीति नहीं है बल्कि किसी अपराध को वोटों के तराजू में तोल कर नजरिया मोड़ देने की राजनीति है जिसे लोकतन्त्र में इसलिए स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि अपराधी की पहचान कानून न तो जाति से करता है और न धर्म से बल्कि उसकी अपराधी प्रवृत्ति से करता है। राजस्थान की अशोक गहलौत सरकार ने अपराध में संलिप्त मीणा जाति के लोगों के खिलाफ इसलिए आरोप नहीं लगाये हैं कि वे आदिवासी वर्ग से सम्बन्ध रखते हैं बल्कि इसलिए लगाये हैं कि उन्होंने एक व्यक्ति की हत्या की है। यह विशुद्ध रूप से जमीन को लेकर पैदा हुआ झगड़ा है। जिस तरह जमीन की कोई जाति नहीं होती उसी प्रकार अपराध करने वालों की कोई जाति नहीं होती। अतः इस मामले को जातिगत चश्मे से देखना पूरी तरह राजनैतिक अवसरवादिता है। इसी प्रकार हाथरस कांड को भी जो लोग राजनैतिक चश्मे से देखने की कोशिश कर रहे हैं वे लोकतन्त्र में असहमति या मतभिन्नता के मिले अधिकार का दुरुपयोग कर रहे हैं।
लोकतन्त्र में कानून का शासन होता है, इस हकीकत के बावजूद कि सरकार किसी न किसी राजनैतिक पार्टी की ही होती है। क्या कभी यह सोचा गया है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी का भार पूरी तरह राज्य सरकारों के कन्धों पर ही क्यों डाला जबकि हर आईएएस या आईपीएस अफसर केन्द्र सरकार का नौकर होता है? इसकी असली वजह हर राज्य में हर कीमत पर कानून का शासन लागू करना ही था। भारत की बहुदलीय राजनैतिक प्रशासनिक प्रणाली में विभिन्न क्षेत्रीय दलों का राजनैतिक एजेंडा कुछ भी हो सकता है मगर उसे पूरा करने के लिए वे सत्तारूढ़ होने पर कानून या संविधान  के साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं कर सकती। प्रशासन उसी तरह चलेगा जो कानून या संविधान कहेगा। यह व्यवस्था भारत के प्रथम गृह मन्त्री लौह पुरुष सरदार पटेल करके गये थे। इसमें भारत की एकात्मता तो निहित थी ही, साथ में यह भी सन्देश था कि राजनैतिक विचारधारा अलग होने से प्रशासनिक नियमों में परिवर्तन नहीं होगा। अतः हमें हाथरस और करोली की घटनाओं को इनमें हुए अपराध की मूल प्रवृत्ति को ध्यान में रख कर देखना होगा।
हाथरस के अपराध में  एक युवती के शरीर को निशाना बनाया गया जबकि करोली में जमीन निशाने पर थी जिसकी चपेट में इसका कब्जेदार पुजारी आया। अपराध की मंशा दोनों ही मामलों में पूरी तरह अलग है। अतः कानून भी इसी के अनुरूप दोनों मामलों में काम करेगा। अपराध विज्ञानी जानते हैं कि जुल्म और अपराध में क्या अन्तर होता है। हाथरस में जुल्म ढहाने की मंशा से अपराध हुआ और करोली के गांव में जमीनी कब्जे को समाज के एक वर्ग ने अपने ऊपर ज्यादती समझा और जमीन पर काबिज व्यक्ति की हत्या कर डाली। कानूनी नुक्ते से कहें तो उन्होंने दीवानी अदालत के एक मामले को फौजदारी का मुकदमा बना डाला। जातिगत विद्वेष को बेशक तमिलनाडु के उस गांव की घटना समझा जा सकता है जिसमें एक दलित जाति की एक गांव सरपंच को प्रशासनिक अधिकारियों की मौजूदगी में जमीन पर बैठने के लिए मजबूर किया गया। यह घटना कुडलूर जिले के एक गांव में घटी जिसका उप-सरपंच व सचिव कथित ऊंची जाति के हैं। उन्होंने दलित सरपंच को सरकारी कार्यक्रमों में तिरंगा तक नहीं फहराने दिया। यह घटना बताती है कि जातिवाद का जहर हमारे समाज की नसों में स्वतन्त्रता के 73 वर्ष के बाद भी किस तरह भरा हुआ है मगर हम गंभीर अपराधों पर ही राजनैतिक रोटियां सेकने के लिए उतावले हो जाते हैं और ऐसे वीभत्स अपराधों को जातिवाद का रंग देकर इसी जातिवाद की जड़ें और गहरे तक जमाना चाहते हैं क्योंकि इससे आम जनता से जुड़े मूल सवालों से मुंह फेरने में सुविधा होगी। महात्मा गांधी का भारत के गांवों की दशा बदलने से आशय केवल भौतिक परिवर्तन से नहीं बल्कि बौद्धिक व वैचारिक परिवर्तन से भी था। यही विचार बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर का भी था मगर हम तो उल्टे चल रहे हैं और यथा स्थिति को जमाये रखने की राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं। ऐसी राजनीति हमें आगे नहीं बल्कि पीछे की ओर ले जाती है।

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