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मिलावट को रोकने में लाचार तंत्र

भारत के लोगों को न शुद्ध हवा मिल रही है और न शुद्ध पानी और न ही शुद्ध खाने का निवाला। देश में खाद्य पदार्थों में मिलावट मुनाफाखोरी का सबसे आसान जरिया बन गई है।

भारत के लोगों को न शुद्ध हवा मिल रही है और न शुद्ध पानी और न ही शुद्ध खाने का निवाला। देश में खाद्य पदार्थों में मिलावट मुनाफाखोरी का सबसे आसान जरिया बन गई है। खाने-पीने की चीजें बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं हैं। किसी भी वस्तु की शुद्धता के विषय में हमारे संदेह बहुत गहरा गए हैं। मिलावट का धंधा शहरों से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक भी फैला हुआ है और इसकी जड़ें काफी मजबूत हो चुकी हैं। 
दूध, घी, मसाले, अनाज, दवाइयां तथा अन्य रोजमर्रा की शुद्ध वस्तुएं किसी भाग्यशाली को ही ​मिलती होंगी। घी के नाम पर वनस्पति, मक्खन की जगह मार्गरीन, आटे में सेलखड़ी का पाउडर, हल्दी में पीली मिट्टी, काली मिर्च में पपीते के बीज, कटी हुई सुपारी में कटे हुए छुहारे की गुठलियां ​मिलाकर बेची जा रही हैं। दूध में मिलावट का कोई अंत नहीं। नकली मावा ​बिकना तो आम बात है। राजस्थान और गुजरात में चल रहा नकली जीरे का कारोबार अब दिल्ली तक पहुंच गया है। दिल्ली में पहली बार पकड़ी गई नकली जीरे की खेप ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। 
यह जंगली घास, गुड़ की पात और पत्थर के पाउडर से मिलाकर तैयार किया जा रहा है, जो सेहत के लिए बेहद खतरनाक है। नकली जीरे के सेवन से न केवल स्टोन का खतरा है बल्कि इसके लगातार सेवन से रोग प्रतिरोधक  क्षमता यानी शरीर की इम्यूनिटी भी कमजोर हो जाती है। यह कैंसर का भी कारण बन सकता है। इस जीरे को विदेशों में भी भेजा जाता था। पुलिस ने अभी तक इस संबंध में फैक्ट्री मालिक समेत पांच लोगों को गिरफ्तार ​किया है। नकली जीरे को 20 रुपए किलो में व्यापारियों को बेचा जाता था। 
इस 20 फीसदी नकली जीरे को 80 प्रतिशत असली जीरे में मिलाया जाता था। मार्किट में जीरे की कीमत 400 रुपए किलो है। मिलावट के धंधे के चलते एक कहावत दशकों पहले प्रसिद्ध हो चुकी है ‘‘आजकल जहर भी शुद्ध नहीं मिलता।’’ एक ओर दिन-प्रतिदिन बढ़ती महंगाई दूसरी तरफ आसमान को छूती ​मिलावट, तब इस समाज की शारीरिक, मानसिक स्थिति का क्या हाल होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। वास्तव में ऐसे समाज का शरीर, मन और स्वास्थ्य दूषित ही होगा और इसके परिणामस्वरूप उसकी प्रगति के द्वार अवरुद्ध ही होंगे। 
ऐसे शरीर से रुग्ण, जीर्ण-शीर्ण मनुष्य क्या सोच सकता है और क्या कर सकता है? मिलावटी​ खाद्य पदार्थों से हजारों लोग रोगी बनते हैं। मिलावट करने वाले यह नहीं सोचते कि उनके कारण कितनों को ही अकाल मौत का सामना करना पड़ रहा है। क्या वे परोक्ष रूप से जनजीवन की सामूहिक हत्या का षड्यंत्र नहीं कर रहे? हत्यारों की तरह उन्हें भी अपराधी मानकर दंड देना अनिवार्य होना चाहिए। मिलावट एक अदृश्य हत्यारा है और हम इसे अपने बहुत समीप आने का आमंत्रण देते हैं। क्या हम अपने बच्चों को वह दूध पिलाकर ठीक कर रहे हैं, जिसमें पहले ही यूरिया मिलाया जाता है। क्या हम उन्हें वह मिठाइयां खिला रहे हैं, जो पहले से आर्गेनिक युक्त हैं। ऐसी भयंकर स्थिति के बावजूद सरकारें और हम उदासीन क्यों हैं? 
ऐसा नहीं है कि मिलावट रोकने के लिए सख्त कानून नहीं हैं। खाद्य पदार्थों में मिलावट करने वालों को उम्रकैद और दस लाख के जुर्माने का प्रावधान है। खाद्य उत्पाद विनियामक भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने 2006 के खाद्य सुरक्षा और मानक कानून में कड़े प्रावधान की सिफारिश की थी। कानून को सिंगापुर के सेल्स आफ फूड एक्ट कानून की तर्ज पर बनाया गया जो ​मिलावट को गम्भीर अपराध मानता है। देश में 2011 से पहले कच्चे खाद्य पदार्थों की जांच का कोई नियम ही नहीं था। इसी कारण मिलावटखोरों की चांदी रही और मनमानी का रवैया तब भी था, अब भी बना हुआ है। एफएसएसएआई ने 2011 में नियम बनाया और तय हुआ कि कच्चे माल की जांच की जाएगी लेकिन कड़े नियमों और कानून के बावजूद मिलावट रोकने के लिए तंत्र लाचार रहा। 
देश में अब हर जगह रेस्तरांओं और फूड आउटलेट की भरमार है। नगर निगम के कर्मचारी और पुलिस वाले आते हैं और पैसा लेकर चले जाते हैं। हर जिले में खाद्य विभाग बनाए गए हैं। मिलावटखोरों के ​विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए फूड इंस्पैक्टर भी ​नियुक्त किए गए हैं। फूड इंस्पैक्टरों का दायित्व है कि वह बाजार में समय-समय पर सैम्पल एकत्रित कर जांच करवाएं लेकिन जब सबकी ‘मंथली इन्कम’ तय हो तो फिर जांच कौन करे? जब पैसा नहीं पहुंचता तो सैम्पल इकट्ठे करने की कवायद की जाती है। फिर शुरू होता है भ्रष्टाचार का खेल। जरूरत है इस समय शुद्ध भोजन के ​लिए ईमानदार कानून की। पुराने बेकार कानून को बदल कर ऐसा कानून बनाने की जरूरत है ताकि देश के लोग कम से कम शुद्ध निवाला तो खा सकें।

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