भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था में न्यायपालिका को सरकार का अंग नहीं बनाया गया है और इसे एक स्वतन्त्र हैसियत प्रदान की गई है। इसकी वजह यह थी कि हमारे संविधान निर्माता चाहते थे कि भारत का लोकतन्त्र इस प्रकार चले कि सर्वदा हर हालत में पूरे देश में संविधान का शासन ही कायम रहे। अतः भारत के लोकतन्त्र के जो चार पाये बताये गये उनमें से विधायिका व कार्यपालिका को सरकार का अंग बनाया गया जबकि चुनाव आयोग व न्यायपालिका को सरकार के घेरे से बाहर इस प्रकार रखा गया कि ये दोनों संस्थान सीधे संविधान से शक्ति लेकर अपना काम बखूबी कर सकें। इस सन्दर्भ में भारत की न्यायप्रणाली की साख स्वतन्त्रता के बाद से ही बहुत ऊंची रही है और अन्तर्राष्ट्रीय जगत तक में इसकी प्रतिष्ठा मानी जाती है। इसी प्रकार भारत के चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा भी दुनिया के तमाम लोकतान्त्रिक देशों में सन्देह से परे मानी जाती रही है मगर अब जाकर इसकी प्रतिष्ठा में भारत में ही बट्टा लगता दिख रहा है। इसकी वजह यह भी है कि भारत की प्रशासनिक प्रणाली राजनैतिक व्यवस्था के अन्तर्गत संचालित होती है जिसके तहत विभिन्न राजनैतिक दल विधानसभाओं व लोकसभा में बहुमत पाकर अपनी सरकारें बनाते हैं। ये दल अपने राजनैतिक एजेंडे के तहत सरकार पर काबिज होते हैं मगर इनके शासन को संविधान के दायरे में ही रहना पड़ता है।
चुनाव आयोग राजनैतिक दलों के कार्यकलापों के प्रति संविधानतः जिम्मेदार होता है और सभी को एक धरातल पर रखते हुए हर पांच साल बाद निष्पक्ष व निर्भयपूर्ण वातावरण में चुनाव कराने के दायित्व से बंधा रहता है। चुनाव के समय सत्ताधारी दल और विपक्ष में बैठे दलों के बीच चुनाव आयोग भेदभाव नहीं कर सकता। अतः इसमें जब भी गफलत पाई जाती है तो चुनाव आयोग पर अंगुलियां उठने लगती हैं। परन्तु न्यायपालिका इन सब प्रकार के सन्देहों से बहुत ऊपर होती है और न्यायिक प्रशासन की मुखिया होती है। इसका संरक्षक देश का सर्वोच्च न्यायालय होता है। हर राज्य का अपना उच्च न्यायालय होता है जिससे न्यायिक प्रशासन कारगर तरीके से काम कर सके। चूंकि न्यायपालिका सरकार के हस्तक्षेप से मुक्त होती है अतः उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के पास होता है। ये नियुक्तियां सर्वोच्च न्यायालय अपने न्यायाधीशों के एक चयन मंडल (कॉलेजियम) के जरिये से करता है। मगर नियुक्ति पत्र देने का अधिकार सरकार के पास ही होता है क्योंकि यह मामला प्रशासनिक प्रक्रिया से जुड़ जाता है। कॉलेजियम सरकार से अनुशंसा करता है कि वह अमुख उच्च न्यायालय में अमुख न्यायाधीश की नियुक्ति कर दे। यह सरकार पर निर्भर करता है कि वह इस काम में कितना समय लेती है।
हाल ही में झारखंड की सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की है कि केन्द्र सरकार के खिलाफ अवमानना का मुकदमा क्यों न चलाया जाये क्योंकि उसने पिछले लगभग तीन महीने से अब तक झारखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का पद नहीं भरा है जबकि कॉलेजियम इसकी सिफारिश कर चुका है। सर्वोच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश श्री डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने इस याचिका के बारे में भारत के अटाॅर्नी जनरल श्री आर. वेंकटरमणी को स्वयं बीते गुरुवार को न्यायालय में बताया जिस पर सरकार का पक्ष रखने के लिए श्री वेंकटरमणी ने कुछ समय मांगा। इसके साथ ही न्यायालय अपने यहां दायर एक जनहित याचिका पर भी सुनवाई कर रहा जिसमें दलील दी गई है कि सरकार को कॉलेजियम की सिफारिशें एक निश्चित अवधि के बीच मान लेनी चाहिए। श्री चन्द्रचूड़ ने इस याचिका की सुनवाई करते समय ही झारखंड सरकार की याचिका के बारे में जानकारी दी थी। श्री वेंकटरमणी ने जनहित याचिका का जबाव देने के लिए एक सप्ताह बाद का समय मांगा था।
झारखंड सरकार ने अपनी याचिका में दलील दी है कि उसके राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश राज्य में न्यायिक परिवार के मुखिया होते हैं। अतः इस पद पर नियमित मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति न्यायिक प्रशासन को सुचारू चलाने के लिए जरूरी होती है। परन्तु भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाले कॉलेजियम द्वारा मुख्य न्यायाधीश के नाम की सिफारिश किये जाने के बावजूद उनकी नियुक्ति न करने पर राज्य में न्यायिक प्रशासनिक व्यवस्था को नुकसान पहुंच रहा है। ध्यान देने वाली बात यह है कि विगत 11 जुलाई को कॉलेजियम ने सिफारिश की थी कि हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री एम.एस. रामचन्द्र राव की नियुक्ति झारखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में कर दी जाये। इसके साथ ही कॉलेजियम ने सात अन्य राज्यों के उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति की संस्तुति भी की थी। मगर विगत 17 सितम्बर को कॉलेजियम ने इनमें से तीन नामों को संशोधित कर दिया। इसकी वजह यह बताई गई कि सरकार उसकी 11 जुलाई की सिफारिशें को ही अब तक लागू नहीं कर पाई है अतः उसने तीन नाम बदल दिये। इसका कारण यह बताया गया कि कॉलेजियम ने नियुक्तियों में देरी होते देख अपने पुराने निर्णय पर पुनर्विचार किया जिसमें सभी सम्बद्ध तथ्यों का पुनः आंकलन किया गया। मगर इस प्रकरण से हमें यह अन्दाजा हो सकता है कि भारत में न्यायापालिका की स्वतन्त्रता सभी प्रकार के दुराग्रहों व पूर्वाग्रहों से किस प्रकार ऊपर है क्योंकि एक राज्य की सरकार केन्द्र की सरकार के खिलाफ भी न्यायिक याचिका दायर करने का हक रखती है और अपने राज्य के न्यायिक प्रशासन के बारे में पूरी चिन्ता करती है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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