सुबह-सुबह अखबार पढ़ते या टीवी पर खबरिया चैनल देखते हमें भीषण सड़क दुर्घटनाओं की खबरें मिलती हैं। दीपावली से पहले और दीवापली के बाद लगातार मिल रही दुखद खबरों से हर किसी का मन उदास हो जाता है। हर साल डेढ़ लाख से अधिक लोगों का सड़क दुर्घटनाओं में मारा जाना चिंताजनक है। बुधवार को जम्मू-कश्मीर के डोडा में एक बस के 300 मीटर गहरी खाई में लुढ़क जाने से 39 यात्रियों की मौत हो गई और 19 लोग घायल हो गए। इससे एक दिन पहले दिल्ली-हरिद्वार रोड पर हुए हादसे में एक कार में सवार 4 युवाओं समेत 6 लोगों की मृत्यु हो गई। बस दुर्घटना ओवरटेक करने की कोशिश में हुई जबकि दूसरी घटना शराब पीकर गाड़ी चलाने से हुई। नई दिल्ली-दरभंगा एक्सप्रैस के एक कोच में आग लग गई। भगवान का शुक्र है कि ट्रेन की गति कम होने के चलते यात्रियों ने कूदकर जान बचा ली। हादसे तभी होते हैं जब ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन होता है। धुंध के बीच भी भीषण हादसे हो रहे हैं। यह हादसे सभी को विचलित कर रहे हैं। परिवहन मंत्रालय द्वारा जारी की गई रिपोर्ट बढ़ते हादसों की सच्चाई बयान करती है।
मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष देश में हर एक घंटे में 53 सड़क हादसे हुए और इस दौरान हर घंटे में 19 लोगों ने जान गंवाई। इन हादसों में सीट बेल्ट और हैलमेट का इस्तेमाल न करने वालों की संख्या सबसे अधिक रही। आंकड़ों के मुताबिक, खड़े वाहन से टक्कर के मामलों में सबसे अधिक 22 फीसदी की वृद्धि देखी गई। वहीं आमने- सामने टक्कर के मामलों में भले ही एक फीसदी की वृद्धि देखी गई लेकिन यह एक्सीडेंट का दूसरा सबसे बड़ा प्रकार है। सड़क दुर्घटनाओं की गंभीरता, प्रति 100 दुर्घटनाओं में मारे गए लोगों की संख्या से मापी जाती है। पिछले एक दशक में इसमें तेजी से बढ़ोतरी हुई है। 2012 में इसकी संख्या 28.2 फीसदी थी जो 2022 में बढ़कर 36.5 फीसदी हो गई है, जिसमें हर साल लगातार वृद्धि हो रही है। हालांकि, 2020 और 2021 में कोविड-19 में देश में लागू किए गए लॉकडाउन के कारण सड़क दुर्घटनाओं और उनके कारण होने वाली मौतों में पूर्ण गिरावट दर्ज की गई क्योंकि यात्रा को लेकर बहुत सारे प्रतिबंध लागू थे, लेकिन गंभीर मामलों की दर बढ़ गई थी।
भारत दुनिया का ऐसा देश बन गया है जहां सबसे ज्यादा सड़क हादसे और मौतें होती हैं। महायुद्धाें में इतने लोग नहीं मरते जितने भारत में सड़कों दुर्घटनाओं में लोग मर जाते हैं। देश में बेहतर सड़कें और बेहतर हाईवे बन चुके हैं लेकिन दुर्घटनाओं का आंकड़ा भी बढ़ता जा रहा है। दुर्घटनाओं की मुख्य वजह वाहनों की तेज रफ्तार है। सड़क हादसों में मारे गए लाेगों की मौत केवल एक व्यक्ति की मौत नहीं होती बल्कि वह जिस परिवार से जुड़े होते हैं उनकी सारी उम्मीदें भी खत्म हो जाती हैं। परिवार के लोग जीवन भर हादसों से उभर नहीं पाते। मरने वाले लोग परिवार का पालन-पोषण करने की धुरी होते हैं। अगर धुरी ही खत्म हो जाए तो फिर जीवन चक्र ही गतिहीन हो जाता है। हादसों में मरने वाले अधिकांश लोग देश की कार्यशील जनसंख्या का अंग होते हैं। रिपोर्ट के अनुसार सड़क दुर्घटनाओं का शिकार होने वाले लोगों में 67 फीसदी लोग युवा आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह लोग परिवार की आय का जरिया होते हैं। दुर्घटनाओं के बाद केन्द्र और राज्य सरकारों को मृतकों के आश्रितों को मुआवजा देना पड़ता है।
अब सवाल यह है कि दुर्घटनाओं को आखिर रोका कैसे जाए। हमने कई समाज बना दिए हैं जबकि दायित्व बोध पैदा करने की दिशा में हम पूरी तरह विफल रहे हैं। कारों की क्रांति तेज रफ्तार का पर्याय बन गई है। परन्तु विकास और तेज रफ्तार में तालमेल स्थापित ही नहीं हो पाया। सड़क सुरक्षा के लिए जागरूकता पैदा करने के कई अभियान चलाए जाते हैं। परन्तु आबादी की तुलना में यह प्रयास नाकाम साबित हुए हैं। गलत ओवरटेकिंग, हैलमेट न लगाना, सीट बेल्ट न बांधना और रॉन्ग साइड चलना भी हादसों की बड़ी वजह है। हाईवे और एक्सप्रैस-वे बनने से वाहनों की रफ्तार बढ़ी है जो घातक सिद्ध हो रही है। सरकारें लगातार यह कहती आ रही हैं कि हाईवे या एक्सप्रैस-वे बनने से शहरों की दूरी कम हुई है और सफर के घंटे भी कम हुए हैं। इन सड़कों पर तेज गति से वाहन चलाने से लोगों को थ्रिल महसूस होता है। युवा पीढ़ी भागम भाग में लगी है। नशे में गाड़ी चलाना उनकी आदत में शुमार हो गया है। तेज रफ्तार वाले मार्ग तो बन गए लेकिन समाज को इन पर चलने का सलीका नहीं आया। विदेशों में ड्राइविंग लाइसैंस लेना इतना मुश्किल है कि लोगों को पांच-पांच बार टैस्ट देने पड़ते हैं लेकिन यहां के भ्रष्ट सिस्टम में ड्राइविंग लाइसैंस बड़ी आसानी से बन जाता है। तेज रफ्तार और सड़क यातायात में तालमेल बिठाने के लिए अनिवार्य प्रशिक्षण दिया ही नहीं जाता।
देश में तेज रफ्तार के जुनून पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है। देश के हर नागरिक को अनिवार्य रूप से ट्रैफिक नियमों के लिए ट्रेनिंग देने की जरूरत है ताकि हर किसी में ट्रैफिक सैंस पैदा की जा सके। ट्रैफिक पुलिस को भी पैसे इकट्ठे करने की बजाय सख्त कदम उठाने होंगे और विदेशों की तर्ज पर काम करना होगा ताकि वाहन चलाते समय हर कोई ट्रैफिक नियमों का पालन करें।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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