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हिन्दू ही अल्पसंख्यक

सर्वप्रथम यह स्पष्ट होना चाहिए कि 1947 में हिन्दू-मुस्लिम या मजहब की बुनियाद पर हिन्दोस्तान का विभाजन भारत और पाकिस्तान में होने के बाद स्वतन्त्र हुए भारत में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द के मायने क्या थे जबकि उसी दौर में लिखे जा रहे भारतीय संविधान में भारत की भौगोलिक सीमाओं के भीतर रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को एक समान राजनैतिक व आर्थिक अधिकार दिये गये थे

सर्वप्रथम यह स्पष्ट होना चाहिए कि 1947 में हिन्दू-मुस्लिम या मजहब की बुनियाद पर हिन्दोस्तान का विभाजन भारत और पाकिस्तान में होने के बाद स्वतन्त्र हुए भारत में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द के मायने क्या थे जबकि उसी दौर में लिखे जा रहे भारतीय संविधान में भारत की भौगोलिक सीमाओं के भीतर रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को एक समान राजनैतिक व आर्थिक अधिकार दिये गये थे? ये अधिकार साधारण नहीं थे बल्कि एक वोट के माध्यम से सत्ता में भागीदारी और निजी विकास के लिए समान अवसर दिये जाने की गारंटी के थे। परन्तु धर्म व भाषाई आधार पर अल्पसंख्यकों को अपनी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित रखने का अधिकार भी संविधान के अनुच्छेद 30 में दिया गया जिसका एकमात्र मन्तव्य यह था कि स्वतन्त्र भारत में हर समुदाय के नागरिक को आत्म सम्मान के साथ जीने का अधिकार मिले।
इसी वजह से संविधान में अनुसूची छह व सात रखी गई जिसमें यह प्रावधान किया गया कि भारत के विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी या जनजाती लोगों के विकास की जिम्मेदारी स्वयं केन्द्र सरकार उन राज्यों के राज्यपालों की मार्फत उठाये। इसे तब ‘संविधान के भीतर संविधान’ की संज्ञा तक दी गई थी। मगर उद्देश्य केवल प्रत्येक व्यक्ति को विकास की धारा में शामिल करने का ही था। परन्तु जब हम आजाद भारत में रहने वाले नागरिकों को अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक में बांटते हैं तो उन नागरिकों के बीच ही ‘विभेद’ का आभास होता है जिनको संविधान ने एक समान अधिकार दिये हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि भारत की विविधता को देखते हुए संविधान में माध्यमिक शिक्षा को राज्यों का विषय बनाना दूर दर्शिता पूर्ण फैसला नहीं था क्योंकि इससे भारत के एक इकाई के रूप में समान रूप से प्रगति करने के मार्ग में बाधाएं आ सकती थीं। इसके साथ ही अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार शिक्षण संस्थाएं खोलने की इजाजत देना भी राष्ट्रीय एकता के भाव में विकार पैदा करने जैसा ही था। इसकी मुख्य वजह यह कही जाती है कि ऐसा  करने से पंथनिरपेक्ष भारत में मजहबी भावनाओं को संविधान के प्रावधानों के तहत मिली निजी स्वतन्त्रता के राष्ट्रीय दायित्व के ऊपर भी गालिब किया जा सकता है।
संभवतः हमारे संविधान निर्माताओं के सामने बंटवारे के बाद तब यह प्रश्न नहीं होगा कि भविष्य में भारत में कोई समय ऐसा  भी आ सकता है जब बहुसंख्यक हिन्दू ही कुछ राज्यों में अल्पसंख्यक हो सकते हैं। अतः जब वर्तमान में मिजोरम, लक्षद्वीप, मणिपुर, जम्मू-कश्मीर, मेघालय, नागालैंड में हिन्दुओं की संख्या अन्य मजहबों को मानने वाले लोगों से कम रह गई है तो उनकी सांस्कृतिक सुरक्षा भी एक मुद्दा बन गई है और इसी बाबत देश के सर्वोच्च न्यायालय में वर्ष 2020 में वकील अश्विनी उपाध्याय ने याचिका दायर कर अपील की कि इन राज्यों में हिन्दुओं को अल्पसंख्यक घोषित कर उन्हें उन अधिकारों से लैस किया जाये जो देशभर में अल्पसंख्यकों को प्राप्त हैं। मगर इस मामले में दिक्कत यह थी कि अल्पसंख्यकों को चिन्हित करने का कार्य मूल रूप से केन्द्र सरकार का ही रहा है मगर 2002 में इसी से सम्बन्धित सर्वोच्च न्यायालय में टी.एम.ए. पई की याचिका पर न्यायमूर्तियों ने फैसला दिया था कि संविधान के अनुच्छेद 30 में अल्पसंख्यकों के अधिकारों के तहत उन्हें अपने शिक्षण संस्थान खोलने की इजाजत देने के सम्बन्ध में राज्य सरकारों को भी विचार करने का अधिकार है अर्थात अपने राज्य के अल्पसंख्यकों को राज्य सरकारें भी चिन्हित कर सकती हैं। इस फैसले की रोशनी में ही उपाध्याय ने अपनी याचिका दायर की और जवाब में सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार से जवाब तलबी की जिस पर केन्द्र के अधिवक्ता ने हलफनामा दायर करके कहा कि राज्य सरकारें अल्पसंख्यकों की निशानदेही कर सकती हैं। मगर 1992 में केन्द्र की नरसिम्हाराव  सरकार के दौरान राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का गठन किया गया था। जिसने 1993 में मुस्लिम, सिख, बौद्ध, पारसी व इसाइयों को अल्पसंख्यक घोषित किया। इसके बाद 2004 में जब केन्द्र में मनमोहन सिंह  सरकार गठित हुई तो इस सरकार में 2006 में पृथक अल्पसंख्यक मन्त्रालय का गठन किया गया और स्व. ए.आर. अंतुले इसके पहले मन्त्री बने। इसके बाद इस मन्त्रालय की ही परंपरा चालू हो गई। मगर 2014 के चुनावों से पहले जैन मतावलंबियों को भी अल्पसंख्यक खाने में डाल दिया गया। अल्पसंख्यक आयोग ने भारतीयों को अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक के खांचों में कड़ा करके आपस में ही बांटना शुरू कर दिया जिसकी वजह से श्री उपाध्याय ने अपनी याचिका में अल्पसंख्यक आयोग की 1993 में जारी अधिसूचना को ही निरस्त करने की मांग की है। हालांकि श्री उपाध्याय ने पंजाब में भी हिन्दुओं को अल्पसंख्यक बताया है मगर व्यावहारिक रूप में यह उचित नहीं लगता है क्योंकि पंजाब में हिन्दुओं व सिखों के बीच कोई धार्मिक या सांस्कृतिक विभेद नहीं देखा जाता है क्योंकि यहां के पंजाबी परिवारों में सबसे बड़ा बेटा सिख बना दिया जाता है। सभी पंजाबी ही बोलते हैं और सिख गुरु संस्कृति को मानते हैं। मगर इससे यह तो साबित होता ही है कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने भारतीयों को ही अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक में बांटने का काम किया। जबकि अल्पसंख्यकों के शैक्षणिक अधिकारों के नाम पर देश भर में मदरसों की बाढ़ जारी रही जिनमें कट्टरपंथी धार्मिक शिक्षा देने का काम ही किया गया। यह अजीब धर्मनिरपेक्षता है।

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