भारत की संस्कृति का सबसे बड़ा और मूल आधार यह रहा है कि इसमें किसी भी उग्रवादी विचार के लिए कोई स्थान नहीं रहा है। इसलिए भारत की आजादी के बाद जब ‘नाथूराम गोडसे’ ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या की तो देश की जनता ने इस कृत्य को ‘क्रूरतम आतंकवादी’ घटना माना और इस कृत्य से जुड़े लोगों व संगठन को राष्ट्रद्रोहियों की श्रेणी में रखने से भी गुरेज नहीं किया परन्तु बापू की हत्या के लगभग 70 साल गुजरने के बाद जब कुछ लोग कोई विशिष्ट संगठन खड़ा करके गोडसे की प्रतिमा लगाकर उसे सम्मान देना चाहते हैं तो सवाल खड़ा होना लाजिमी है कि वे किस विचारधारा के पोषक हैं और लोकतान्त्रिक भारत में उनका उद्देश्य क्या है और इसके पीछे छुपा हुआ राजनैतिक लक्ष्य क्या है? गोडसे ने बापू की हत्या की वजह विभाजित भारत में बसे मुसलमान नागरिकों के प्रति नरम रुख अपनाने को समग्र तौर पर बताई थी। उस समय तक पं. नेहरू के मन्त्रिमंडल में भारतीय जनसंघ के संस्थापक डा. श्यामा प्रशाद मुखर्जी बतौर उद्योगमन्त्री काम कर रहे थे। वह हिन्दू महासभा के प्रतिनिधि के तौर पर 15 अगस्त 1947 को गठित पं. नेहरू की राष्ट्रीय सरकार में मन्त्री बने थे। डा. मुखर्जी के केन्द्र सरकार में रहते बापू की हत्या 30 जनवरी 1948 को हुई थी। डा. मुखर्जी इससे पूर्व 1937 में बंगाल की मुस्लिम लीग व हिन्दू महासभा की सांझा सरकार में वित्तमन्त्री भी रहे थे। ये दोनों ही दल हिन्दू-मुसलमान के आधार पर मतदाताओं को बांटकर बंगाल विधानसभा में पहुंचे थे और कांग्रेस पार्टी को तब बहुमत नहीं मिल पाया था मगर 1947 में भारत के बंटवारे के समय हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग दोनों को ही महात्मा गांधी की व्यक्तिगत महाशक्ति का परिचय हो चुका था जब उन्होंने भयंकर हिन्दू-मुस्लिम दंगों की आग में झुलस रहे बंगाल के ‘नोआखाली’ में पहुंचकर अपने सत्याग्रह की ताकत के बूते पर पानी डाल दिया था और दंगों को शान्त कर दिया था। उस समय भारत के गवर्नर जनरल लार्ड माऊंटबेटन ने महात्मा गांधी को एेसी ‘सिंगल मैन आर्मी’ कहा था जिसकी सामर्थ्य पश्चिमी सीमा पंजाब में तैनात फौज की कई बटालियनों से भी ज्यादा थी। बापू की इस महान शक्ति के अभूतपूर्व सामर्थ्य से तब की साम्प्रदायिक ताकतें बुरी तरह घबरा गई थीं।
इसका असर केवल भारत में ही नहीं बल्कि नवनिर्मित पाकिस्तान में भी हुआ था क्योंकि महात्मा गांधी ने तब यह कहकर अंग्रेजों के भी कान खड़े कर दिये थे कि ‘‘उनकी इच्छा है कि उनकी मृत्यु पाकिस्तान में ही हो।’’ यह बयान ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दे रहा था कि मुहम्मद अली जिन्ना को मोहरा बनाकर भारत को बांटने का उनका षड्यन्त्र दोनों देशों के नागरिकों के दिलों को नहीं बांट सकता और एक न एक दिन इसे अपनी मौत स्वयं ही मरना होगा। यही वजह थी कि जिन्ना ने 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान के बनने पर कहा था कि इस नये देश में पूरी धार्मिक आजादी होगी। हिन्दू और मुसलमान अपने-अपने मजहब पर चलते हुए नये मुल्क को अपना मुल्क कह सकेंगे। आज के हिन्दू और मुसलमान उग्रवादी विचारों के पोषकों के लिए यह जानना भी जरूरी है कि जिन्ना ने तब पाकिस्तान को इस्लामी देश घोषित नहीं किया था, 1956 में पाकिस्तान में फौज का दबदबा बढ़ने पर इसे इस्लामी देश घोषित किया गया। मजहब के आधार पर पाकिस्तान को लेने वाले जिन्ना के इस लचीले रुख की असली वजह महात्मा गांधी ही थे क्योंकि उनके विचारों के प्रति नवनिर्मित पाकिस्तान के लगभग प्रत्येक राज्य ( पंजाब को छोड़कर ) में लोगों की असीम आस्था थी। सिन्ध, बलूचिस्तान और पख्तून इलाकों में तो महात्मा गांधी को ही पूजा जाता था। जिन्ना ने अपने पाकिस्तान का पहला राष्ट्रगान लिखने के लिए किसी हिन्दू शायर की खोज बिना किसी वजह के ही नहीं की थी और बामुश्किल तब लाहौर की गलियों से खोज कर ‘स्व. जगन्नाथ आजाद’ को लाया गया था। यही वजह थी कि 1956 तक बलूचिस्तान पाकिस्तान के भीतर एेसा स्वायत्तशासी राज्य था जिसका अपना अलग झंडा था और इसे ‘संयुक्त राज्य बलूचिस्तान’ के नाम से जाना जाता था। विभिन्न क्षेत्रों, अंचलों और रियासतों को जोड़कर बने पाकिस्तान को ‘एकल भौगोलिक राज्य’ अर्थात ‘सिंगल यूनिट टेरीटरी’ मान कर जब 1956 में यहां चुनाव कराये गये तो उसके बाद देश पर सेना का कब्जा हो गया।
अतः 1948 में महात्मा गांधी की भारत में हत्या करके हिन्दू आतंकवादी नाथूराम गोडसे ने उस विचार से छुटकारा पाना चाहा था जो हिन्दू-मुस्लिम कट्टरता पर आधारित राजनीति को एक सिरे से नकारता था परन्तु 1950 में पं. नेहरू ने पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री लियाकत अली खां के साथ समझौता करके तय कर दिया था कि दोनों देशों में एक-दूसरे के धर्म के तीर्थ स्थलों की पूरी सुरक्षा सरकार के साये में होगी जिससे दोनों ओर के कट्टरपंथी ही इस आधार पर अपने-अपने लोगों को न भड़का सकें। ‘नेहरू-लियाकत समझौता’ भारत और पाकिस्तान के बीच अमेरिका और कनाडा की तर्ज पर आपसी सम्बन्धों को साफ-सुथरा रखने का प्रयास था जिससे दुःखी होकर डा. श्यामा प्रशाद मुखर्जी ने नेहरू सरकार से इस्तीफा देकर कुछ महीने बाद ही भारतीय जनसंघ की स्थापना कर दी थी। आज के सन्दर्भ में यह जानना बहुत जरूरी है कि राजनीति में क्यों हिन्दू व मुस्लिम आतंकवाद की व्याख्या करने के लिए कुछ लोग व संगठन उतावले हो रहे हैं? उनकी मंशा आजादी से पहले की राजनीति को हवा देने की ही है। मक्का मस्जिद मामले में एनआईए अदालत ने फैसला तो दे दिया है और सभी अभियुक्तों को बरी भी कर दिया है मगर फैसला देने वाले जज ने कुछ घंटे बाद ही अपने पद से इस्तीफा भी दे दिया है ! इसके मायने भारतीय लोकतन्त्र की शुचिता और न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के सन्दर्भ में जरूर ढूंढे जाने चाहिएं।