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हिन्दू-मुस्लिम नहीं भारतीय

भारत को जो लोग संविधान से इतर किसी अन्य रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं उन्हें हम सच्चा भारतीय नहीं मान सकते हैं क्योंकि ये लोग भारत की उस सर्वव्यापी मानवीय अवधारणा और प्रतिस्थापना को कलंकित कर देना चाहते हैं जो हमारे स्वतन्त्रता सेनानियों ने लाखों कुर्बानियां देकर स्थापित की थीं। इनमें क्रान्तिकारी भी थे और अहिंसा के माध्यम से अंग्रेजों की जोर जबर्दस्ती का मुकाबला करने वाले जांबाज भी। अतः यह अकारण नहीं था कि मुहम्मद अली जिन्ना की अंग्रेजों के साथ मिलीभगत होने पर पाकिस्तान के निर्माण की तैयारी होने के बावजूद हमारे संविधान लिखने वालों ने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष ( पंथ निरपेक्ष) राज्य बनाया और तय किया कि भारत की सरजमीन पर बसने वाले हर नागरिक को भारतीय कह कर उसे बराबर के अधिकार दिये जायें। परन्तु विगत 18 व 19 दिसम्बर को हिन्दुओं की पवित्र नगरी हरिद्वार में धर्म संसद के नाम पर जो कुछ हुआ उससे भारत का माथा न केवल झुका बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर यह पैगाम भी गया कि हमारे देश में कुछ ऐसे तत्व हैं जो संविधान द्वारा स्थापित भारत की सार्वभौमिक सत्ता को लोगों की धार्मिक पहचान के आधार पर चुनौती देना चाहते हैं और उनके बीच इसी आधार पर हिंसा फैलाना चाहते हैं। 

एक विशेष मजहब के मानने वाले लोगों के खिलाफ ये लोग देश के बहुमत के लोगों को हिंसा करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं जिससे भारत की सामाजिक समरसता ही भंग होने का खतरा पैदा न हो बल्कि बर्बर सामाजिक वैमनस्ता भी जागृत हो जिसका परिणाम सिवाय खून-खराबा होने के दूसरा नहीं हो सकता। चूंकि हिन्दू धार्मिक वस्त्र धारण किये कई स्वनामधन्य विशेषण नामधारियों ने भारत के मुसलमानों के खिलाफ ऐसी कार्रवाइयां करने का आह्वान किया अतः भारत की संवैधानिक पंथ निरपेक्ष सत्ता के बारे में विदेशों में सवाल उठने शुरू हुए और सबसे पहले पाकिस्तान ने ही इस मुद्दे पर इस्लामाबाद में स्थित भारतीय उच्चायोग के सबसे बड़े अधिकारी को बुला कर गहरी आपत्ति दर्ज की। यह भी स्वयं में कम विरोधाभासी नहीं है क्योंकि अभी तक भारत ही पाकिस्तान में मजहबी कट्टरपंथियों की कार्रवाइयों के बारे में शिकायत करता रहता था। 

पाकिस्तान चूंकि एक घोषित इस्लामी मुल्क है अतः वहां के बहुमत के लोग यदि अपने अल्पसंख्यक हिन्दू व सिखों की मान्यताओं या उनके साथ कोई जुल्म करते थे तो भारत इसे पूरी तरह नाकाबिले बर्दाश्त मानते हुए वहां के अल्पसंख्यकों के मानवीय अधिकार में लाकर पाकिस्तान पर लानत भेजता था और वहां की सरकार से अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की गारंटी चाहता था। परन्तु हरिद्वार मे बैठी धर्म संसद के अहलकारों ने अपने कारनामों से भारत को ही पाकिस्तान जितना छोटा दिखाने की हिमाकत कर डाली और भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान के सिद्धान्त को तार-तार करने की कोशिश की। हम भलीभांति जानते हैं कि 1947 में धर्म या मजहब की बुनियाद पर बना पाकिस्तान 1971 में ही टूट गया और जो आज बचा-खुचा पाकिस्तान है उसके हाथ में भीख के कटोरे के सिवाय कुछ नहीं है। वहां के मजहबी मुल्ला मौलवियों ने पाकिस्तान की जड़ों में मजहब की रागिनी को इस तरह बजाया है कि आज वहां बजाय फैक्टरियां या कारखाने लगने के दहशत गर्दों की फौज तैयार हो रही है। यह सब इस मुल्क में हिन्दू विरोध के नाम पर भारत के साथ दुश्मनी बांधने का ही नतीजा है।

 हकीकत यह है कि जैसे-जैसे पाकिस्तान आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे ही इसमें इस्लाम का बुखार भी चढ़ता गया और इसका नतीजा आज हमारे सामने इस तरह है कि यह दुनिया में दहशतगर्दी का परचम बना हुआ है जबकि भारत में धर्म को किसी भी नागरिक का निजी मामला माना गया और सुनिश्चित किया गया कि देश की तरक्की और विकास में सभी धर्म के लोग मिल कर बराबर की हिस्सेदारी करें। हमें भारत और पाकिस्तान के इस मूलभूत अन्तर को समझना चाहिए और फिर सोचना चाहिए कि हरिद्वार में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा फैलाने वालों की जहनियत किस तरह किसी फतवा जारी करने वाले से अलग क्यों नहीं है। यह तो वह भारत है जिसमें ‘हुसैनी ब्राह्मण’ भी रहते हैं जो इमाम हुसैन की याद में अपने अलग ताजिये तक निकालते हैं। हिन्दुओं के बीच ही पचासियों पंथ हैं जिनमें निराकार से लेकर साकार ब्रह्म की उपासना की जाती है। क्या कभी सोचा गया है कि हीर का प्रेमी रांझा अन्त में गुरु गोरखनाथ के पंथ गोरख सम्प्रदाय का अनुगामी क्यों हो गया था। 

ये ऐसे सवाल हैं जो भारत की मानवतावाद से ओत-प्रोत संस्कृति को हर कदम पर उजागर करते हैं। क्या कोई इस बात का जवाब दे सकता है कि महाराजा रणजीत सिंह ने आगरा से लेकर काबुल तक अपनी रियासत कायम करने के बावजूद अपनी सल्तनत की भाषा ‘फारसी’ ही क्यों रखी थी जबकि उन्होंने नानकशाही रुपये की मुद्रा प्रचलित की थी। मगर हद हो गई इस धर्म संसद में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तक को नहीं छोड़ा गया जिन्होंने अंग्रेजों से भारत को आजादी दिलाने का उद्देश्य केवल सत्ता परिवर्तन ही नहीं रखा था बल्कि आम आदमी में अपने ‘भारतीय’ होने के स्वाभिमान को जगाने को भी रखा था। हमारा रास्ता निश्चित रूप से वह नहीं हो सकता जो धर्म का चोला ओढ़ कर कुछ लोग बताने की कोशिश कर रहे हैं बल्कि वह रास्ता हो सकता है जो ढाई हजार साल पहले हमें आचार्य चाणक्य ने दिखाया था और लिखा था कि प्रजा व विभिन्न पंथों को मानने वाली हो सकती है। मगर क्या सितम है कि आज पाकिस्तान हमें धर्मनिरपेक्षता के बारे में बताने की जुर्रत कर रहा है। जिस पाकिस्तान को आज तक मुल्लाओं ने यह पता नहीं लगने दिया कि ‘शरीया’ का मतलब ‘बहता पानी’ होता है अर्थात सामाजिक नियम बदलते समयानुसार बनते बिगड़ते रहते हैं। अतः बहुत जरूरी है कि धर्म संसद के कथित विशेषणधारियों के विरुद्ध संविधान के अनुसार सख्त कार्रवाई की जाये और दुनिया को पैगाम दिया जाये कि भारत सिर्फ कानून से चलने वाला देश है। यहां धर्म का अर्थ पूजा पद्ध​ति से ऊपर ‘धारयिती सः धर्मः’ होता है अर्थात जो धारण करने योग्य हो वही धर्म है। इसीलिए स्वतन्त्र भारत के प्रकांड विद्वान स्व. लक्ष्मी मल्ल सिंघवी ने भारत को ‘पंथ निरपेक्ष राष्ट्र’ संशोधित करवाया था।