महिलाओं की राजनीति में प्रभावशाली भागीदारी सुनिश्चित करने की कोशिशें पिछली एक शताब्दी से हो रही हैं लेकिन कुछ गिने-चुने देशों को छोड़कर यह कोशिशें कहीं पर भी सफल नहीं हुई थीं। सन् 1919 में लीग ऑफ नेशन के बुनियादी चार्टर में महिलाओं को राजनीतिक सत्ता में प्रभावशाली भागीदारी देने की बात कही गई थी और सन् 1945 में बने संयुक्त राष्ट्र संघ की मूलभूत अवधारणा में यह बात रखी गई थी कि अगर दुनिया में लोकतंत्र का भविष्य सुनिश्चित करना है तो उसमें महिलाओं को बराबरी की भागीदारी देनी होगी। मुश्किल से डेढ़ दर्जन देशों को छोड़ दें तो पूरे विश्व में महिलाओं की राजनीतिक स्थिति दयनीय है।
महिलाओं को संसद व विधानसभा में 33 फीसदी आरक्षण देने की कवायद के पीछे 1994 में पेरिस में सम्पन्न अंतर्संसदीय संघ की बैठक का वह घोषणा पत्र है जिसमें इसकी मांग की गई थी। इस घोषणा पत्र में राज्यों को सकारात्मक कदम उठाकर कम से कम 33 फीसदी महिला आरक्षण देने को कहा गया था। संयुक्त राष्ट्र की चौथी महिला कॉन्फ्रैंस 1995 में बीजिंग में सम्पन्न हुई थी। इस कॉन्फ्रैंस में भी प्रजातांत्रिक देशों से महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का आह्वान किया गया था। 1945 में दुनिया के केवल 20 ऐसे देश थे जिनमें प्रजातंत्र था और महिलाओं की इन देशों की संसद में केवल 3 फीसदी भागीदारी थी। तब से आज तक स्थिति काफी बदल गई है। आज लगभग 178 देशों में प्रजातंत्र किसी न किसी रूप में मौजूद है मगर महिलाओं की भागीदारी 15 फीसदी से ज्यादा नहीं है। भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और हमारी संसद लोकतंत्र का मन्दिर है।
पिछले 72 वर्षों से लोकतंत्र की यात्रा में अनेक उतार-चढ़ावों के बावजूद हमारी संसद और विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व न के बराबर है। भारतीय संसद में महिलाओं का हिस्सा 11.4 फीसदी है जबकि बेल्जियम, मैक्सिको जैसे देशों में लगभग 50 प्रतिशत है और जर्मनी, आस्ट्रेलिया में करीब 40 प्रतिशत है। इससे स्पष्ट है कि भारत में महिलाओं के उत्थान और उन्हें विकास की मुख्यधारा में शामिल करने के लिए उन्हें प्रोत्साहन देने की जरूरत है। 23 वर्ष हो गए इस विधेयक को संसद में पेश हुए लेकिन 2010 में राज्यसभा से पारित होने के एक सुखद अवसर के अलावा यह विधेयक उपेक्षा के अंधेरों में ही पड़ा रहने को विवश है। महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए 1996 में एच. डी. देवेगौड़ा के प्रधानमंत्री काल में पहली बार महिला आरक्षण विधेयक संसद में पेश किया गया था। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल बिल के सबसे मुख्य विरोधी रहे हैं।
एक समय तक जनता दल (यू) भी इसके विरोध में शामिल रहा। बिल के भारी विरोध को देखते हुए इसे संयुक्त संसदीय समिति के हवाले कर दिया गया। 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लोकसभा में फिर से बिल पेश किया। गठबंधन की मजबूरियों और भारी विरोध के बीच यह लैप्स हो गया। 1999, 2002 और 2003 में इसे फिर लाया गया। एनडीए गठबंधन बहुमत से सत्ता में लौटा लेेकिन अटल जी की सरकार कुछ नहीं कर सकी। 2008 में मनमोहन सिंह सरकार बनी तो 2010 में इस बिल को तमाम राजनीतिक अवरोधों को दरकिनार कर राज्यसभा में पेश कर पारित तो करा लिया लेकिन लोकसभा में 262 सीटें होने के बावजूद मनमोहन सरकार इसे पारित नहीं करा सकी। राज्यसभा की बुलंदी लोकसभा में न जाने कहां दबकर रह गई।
अब फिर चुनाव आ गए हैं। महिला आरक्षण का जिन्न फिर बोतल से बाहर आता दिखाई दे रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने लोकसभा चुनावों में पार्टी के जीतने पर महिला आरक्षण कानून पास कराने का वादा किया है। अन्य दल भी दबी जुबान में ऐसा ही करेंगे। पूर्व में महिला आरक्षण बिल पर असहमति को देखकर एक सुझाव यह भी आया था कि राजनीतिक दलों को चाहिए कि वह पार्टी में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाएं आैर उन्हें उम्मीदवार बनाएं। राहुल गांधी को अपने वादे के मुताबिक कांग्रेस में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाना होगा। महिला आरक्षण की विरोधी पार्टियों से तो उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह ऐसा करेंगी। भारत में योग्य महिलाओं की कमी नहीं लेकिन वे राजनीति से दूर हैं क्योंकि राजनीतिक माहौल महिलाओं के अनुकूल नहीं माना जाता।
इसी बीच ओडिशा में सत्तारूढ़ बीजू जनता दल ने अपने स्तर पर महिलाओं को लोकसभा चुनावों में 33 फीसदी कोटा देने का फैसला किया है। चुनावी दंगल में उतरने वाले उम्मीदवारों में से एक तिहाई महिलाएं होंगी। मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने एक ऐतिहासिक पहल की है, जिसकी सराहना की ही जानी चाहिए। आेडिशा में लोकसभा की 21 सीटें हैं। इस लिहाज से बीजद की ओर से कम से कम 7 महिलाओं को उम्मीदवार बनाया जाना तय हो गया है। जो काम बड़े राष्ट्रीय दल नहीं कर सके, उसे केवल ओडिशा तक सीमित क्षेत्रीय दल ने कर दिखाया। अन्य दलों ने नवीन पटनायक के इस कदम को महिलाओं के वोट बटोरने की कोशिश बताया है। सवाल यह है कि जो दल महिलाओं के सशक्तिकरण का ढिंढोरा पीटते रहे हैं, क्या वे नवीन पटनायक की पहल का अनुकरण करेंगे? राजनीतिक दल और नेता कितना भी अड़ंगा लगाएं, सच्चाई यह है कि वह आधी आबादी के फ्लैगमार्च को आगे बढ़ने से रोक नहीं पाएंगे।