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भारत का सम्मान और किसान

आजाद भारत में कृषि क्षेत्र को लाभप्रद और आत्मनिर्भर बनाने के प्रयास इस तरह हुए हैं कि सरकारें किसानों को अपने कन्धों पर बैठा कर आर्थिक सुरक्षा के माहौल का दिखा सकें।

आजाद भारत में कृषि क्षेत्र को लाभप्रद और आत्मनिर्भर बनाने के प्रयास इस तरह हुए हैं कि सरकारें किसानों को अपने कन्धों पर बैठा कर आर्थिक सुरक्षा के माहौल का दिखा सकें। इसका प्रमाण यह है कि 1947 में देश के स्वतन्त्र होने पर इसकी कुल आबादी 35 करोड़ के लिए भी इतना अनाज पैदा नहीं हो पाता था कि उसकी भूख मिट सके। स्वतन्त्रता के बाद से अब तक के हुए वित्तमन्त्रियों के भाषणों को यदि गौर से पढ़ा जाये तो 1970 तक सभी वित्तमन्त्री इस बात पर जोर देते रहे थे कि देश के आत्म गौरव व सम्मान के लिए अन्न उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी है। स्व. बाबू जगजीवन राम केन्द्रीय खाद्य मन्त्री बने तो साठ के दशक के अन्तिम काल में भारत अन्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता पा गया। बाबू जगजीवनराम को उस समय देश के सबसे सौभाग्यशाली या भागवान मन्त्री की उपाधि राजनीतिक क्षेत्रों में मिली इससे पहले भारत को अपनी खाद्यान्न जरूरतें पूरी करने के लिए विदेशों के सामने हाथ फैलाना पड़ता था। यदि उस समय की पुरानी सरकारों के जिम्मेदार मन्त्रियों के वक्तव्यों को पढ़ा जाये तो एक बात साफ होती है कि अनाज के लिए जब विदेशी सरकारों के सामने याचक बन कर भारत खड़ा होता था तो इसके आत्मसम्मान पर गहरी चोट पहुंचती थी, परन्तु भारत के किसानों ने अपनी मेहनत व लगन और समयानुरूप आधुनिक कृषि तकनीक अपना कर कालान्तर में इस स्थिति को न केवल बदल डाला बल्कि यह आज कृषि उत्पादन का  निर्यात करने वाला देश बन चुका है और दुग्ध उत्पादन में इसका नम्बर प्रथम तीन देशों में आता है। निश्चित रूप से यह कार्य सरकारों के सहयोग से ही हुआ है। 
कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश की गंगा बहा कर हमने यह स्थिति प्राप्त की है जो पश्चिमी देशों की निगाहों में लगातार खटकती रही है। भारत की 134 करोड़ की आबादी के लिए जरूरत से अधिक अन्न उत्पादन करने वाले हमारे किसानों ने यह सिद्ध कर दिया है कि वे कृषि टैक्नोलोजी अपनाने में किसी से पीछे नहीं हैं। बेशक इस क्षेत्र में पंजाब के किसानों ने ही शुरू से ही अग्रणी भूमिका निभाई है और भारत में कृषि या हरित क्रान्ति की नींव डाली है। मगर इस कार्य में इस राज्य के समर्पित राजनीतिज्ञों का योगदान भी रहा है। 1956 में राज्य पुनर्गठन होने के बाद पंजाब के मुख्यमन्त्री बने स्व. सरदार प्रताप सिंह कैरों इसके ध्वज वाहक थे।  राजनीति में आने से पहले वह अमेरिका में अर्थशास्त्र का अध्ययन करने के लिए गये थे मगर वहां से स्नातकोत्तर डिग्री लेने के बाद उन्होंने अमेरिका के कृषि क्षेत्र का अध्ययन किया और वहां के किसानों के खेती करने के तरीकों  के बारे में निरीक्षण किया।  वापस भारत लौटने पर राजनीति में प्रवेश करने पर जब वह मुख्यमन्त्री बने तो उन्होंने सबसे पहले पंजाब में कृषि सुधारों को लागू किया और इसके बल पर ही 1963 तक पंजाब को भारत का ‘यूरोप’  बना दिया।  पंजाब के हर गांव को पक्की सड़कों से जोड़ दिया गया और प्रत्येक में बिजली पहुंचा दी गई व प्रत्येक जिले में आईटीआई संस्थान खड़ा कर दिया व जिला अस्पताल को आधुनिक चिकित्सा उपकरणों से लैस कर दिया गया।  यह सब कमाल उन्होंने खेती की पैदावार बढ़ाने की तकनीक इस्तेमाल करके किया।  किन्तु इसके समानान्तर ही भारत की बढ़ती आबादी की खाद्य जरूरतों की पंजाब ज्यादा से ज्यादा भरपाई करने लगा।
 कृषि सम्पन्नता प्राप्त करके पंजाब ने अपना चहुंमुखी विकास किया और अपनी खेती में दूसरे राज्यों के खेतीहर मजदूरों का सहयोग पाना प्राप्त किया।  इसी का परिणाम है कि आज पंजाब की खेती किसानी में बिहार व पूर्व उत्तर प्रदेश के मजदूरों का सबसे बड़ा योगदान है। अतः बहुत आवश्यक है कि हम अपने देश के कृषि क्षेत्र का संरक्षण इस प्रकार जारी रखें जिससे विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) की उन शर्तों को नकार सकें जो वह भारत जैसे कृषि प्रधान देशों पर लगाना चाहता है। इस संगठन का सदस्य बनने के बाद भारत ने अपनी खाद्य सब्सिडी में भारी कटौती की है। यह आर्थिक उदारीकरण का प्रभाव था जिसे अपना कर भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था में सुधार करना चाहा और बाजार मूलक अर्थव्यवस्था को अपनाया, परन्तु संगठन में प्रभावशाली पश्चिमी देश शुरू से ही यह चाहते हैं कि भारत कृषि सब्सिडी में भी कमी करे और किसानों को सीधे बाजार की व्यवस्था का अंग बना दे। जबकि दूसरी तरफ पश्चिमी व यूरोपीय देश अपने कृषि क्षेत्र को भारी सब्सिडी विभिन्न रूपों में देते हैं।  यूरोपीय देशों में एक गाय खरीदने पर भी वहां की सरकार सब्सिडी देती है। इसकी असली वजह यह है कि भारत का कृषि बाजार बहुत बड़ा है। विश्व बाजार में इसके किसी एक अनाज चावल या गेहूं अथवा दलहन के खरीदार बन कर खड़ा होने से ही उसके दाम ऊंचाई नापने लगते हैं।
 हमने देखा है कि 1996 से 98 तक कृषि मन्त्री के पद पर तैनात स्व. पंचानन मिश्र के जमाने में हुए गेहूं आयात पर किस तरह बावेला मचा था। यह इसी तथ्य का प्रमाण था कि भारत में अन्न उत्पादन की कमी हो जाने का लाभ विश्व बाजार किस तरह उठाता है। अतः हमें अपने किसानों को इस प्रकार प्रोत्साहित करना होगा कि वे अपनी उपज में लगातार वृद्धि करते रहें और उनकी उपज का लाभप्रद मूल्य उन्हें  बाजारों में मिलता रहे। इस बारे में समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया के उस सिद्धान्त को गले से लगा कर रखना होगा कि किसान की फसल का मूल्य भी औद्योगिक व  अन्य उपभोक्ता उत्पादों के मूल्यों के समानान्तर ही समानुपाती तरीके से बढ़ना चाहिए क्योंकि अपनी फसल बेच कर किसान स्वयं उपभोक्ताओं में शामिल हो जाता है।

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