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शहीदों की सम्मनित वीरांगनाएं

राजस्थान में शहीद सैनिकों की विधवाओं को लेकर जिस प्रकार की ओछी राजनीति हो रही है वह पूर्णतः अनुचित और राष्ट्र पर अपना जीवन बलिदान करने वाले रणबांकुरों के सम्मान को कम करने वाली है। शहीद न तो किसी एक राजनैतिक दल के होते हैं और न ही विशेष वर्ग के होते हैं बल्कि वे पूरे राष्ट्र का गौरव होते हैं, अतः उनकी शहादत पर सियासत करना खुद सियासतदानों की तंग नजरी का सबूत ही कहा जा सकता है। तीन शहीदों की वीरांगनाओं को लेकर जिस प्रकार राज्य के राज्यसभा सदस्य श्री किरोड़ी लाल मीणा पिछले नौ दिन से धरने पर बैठे हुए हैं उससे यह संकेत जा रहा है कि राज्य के मुख्यमन्त्री श्री अशोक गहलौत वीरांगनाओं की मांगों के प्रति संवेदनहीन हैं जबकि हकीकत इसके पूरी तरह उलट है और वह यह है कि राजस्थान के घोषित ‘शहीद पैकेज कानून’ के अनुसार वीरांगनाओं को पूरी मदद दी जा चुकी है। उनके खातों में पचास लाख रुपए की रकम पहुंचा दी गई है और उनकी मूर्तियां भी सार्वजनिक स्थलों पर लगा दी गई हैं तथा कई स्कूलों के नाम भी शहीदों के नाम पर रख दिये गये हैं। साथ ही शहीदों के मां-बाप के खातों में भी पांच-पांच लाख रुपए की रकम बैंक सावधि योजना में जमा करा दी गई है। 

कारगिल युद्ध के बाद जब विभिन्न राज्य सरकारों ने शहीद पैकेज योजनाएं शुरू की थीं तो राजस्थान सरकार की यह योजना पूरे देश में सर्वोत्तम आंकी गई थी। इस योजना के तहत  सरकार शहीद के एक बेटा या बेटी को सरकारी नौकरी देने की भी गारंटी देती है। इसी मामले में शहीदों की वीरांगनाओं को गफलत में डाल दिया गया लगता है। गहलौत सरकार प्रत्येक शहीद की सन्तान को सरकारी नौकरी देने की गारंटी दे रही है मगर तीन में से दो वीरांगनाएं मांग कर रही हैं कि उनकी औलाद की जगह उनके शहीद पति के छोटे भाई अर्थात देवर को नौकरी दी जाये। यह मांग पूरी तरह शहीद के परिवार के प्रति नाइंसाफी दिखाती है। इसकी वजह यह है कि शहीद के पुत्र या पुत्री को बालिग होते ही सरकारी नौकरी पाने का हक रहता है। उसके इस हक को  राजस्थान की किसी भी पार्टी की सरकार मार नहीं सकती। शहीदों के गांव तक पक्की सड़क बनाने की मांग भी गहलौत सरकार ने स्वीकार कर ली है मगर औलाद की जगह देवर को नौकरी देकर वह शहीद की विधवा और उसके बच्चों का भविष्य अंधकारमय नहीं बना सकती। यह बात इतनी सीधी है कि खुद किरोड़ी लाल मीणा को ही वीरांगनाओं को समझानी चाहिए मगर हो उल्टा रहा है । सांसद महोदय दलील दे रहे हैं कि मुख्यमन्त्री को पैकेज के नियम व कानून ही बदल देने चाहिए। यदि एक बार में पैकेज कानून बदला जाता है तो कल को इससे भी इतर मांगें राजनैतिक आवरण में उठाई जा सकती हैं और शहीद पैकेज कानून काे ‘फुटबाल’ बनाया जा सकता है।

 राजनैतिक हित साधने के लिए वीरांगनाओं से छल नहीं किया जा सकता और उसके बच्चों को उनके  वाजिब हक से महरूम नहीं रखा जा सकता। इस कानून में तो यहां तक प्रावधान है कि यदि शहीद की कोई पत्नी शहादत के समय गर्भवती है तो सरकारी नौकरी उसकी होने वाली सन्तान के लिए आरक्षित रहेगी। इस न्यायपूर्ण कानून पर केवल राजनैतिक हित साधने की गरज से विवाद खड़ा करना पूरी तरह वीरांगनाओं के अधिकारों के खिलाफ ही कहा जायेगा। सभी राजनैतिक दलों को इस मुद्दे पर गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए और सोचना चाहिए कि शहीदों की विरासत पर किसी तरह से भी दाग न लग सके। देवर को नौकरी देने की अनुचित जिद के पीछे पारिवारिक कारण भी हो सकते हैं क्योंकि राजस्थान का समाज पुरानी रूढि़यों से अभी तक किसी न किसी स्वरूप में बंधा हुआ माना जाता है। कानून और नियम समाज को आगे की ओर ले जाने के लिए ही बनते हैं अतः बहुत आवश्यक है कि सभी राजनैतिक दल समाज को आगे की तरफ ले जाने में अपनी सक्रिय भूमिका निभायें।

शहीद पैकेज कानून में जिस तरह शहीद की औलाद को संरक्षण दिया गया है उसमें ढिलाई बरतने का मतलब उसकी शहादत का सही मूल्यांकन न करना ही कहा जायेगा क्योंकि पिता की विरासत पर पहला हक उसकी सन्तान का ही होता है। इस हक को भी सियासत का मोहरा बना देने का प्रयास केवल यही संकेत देता है कि राजनीति कितनी बेरहम हो सकती है जबकि राजनीति का पहला काम किसी भी इंसान या भारतीय नागरिक के मूलभूत अधिकारों की रक्षा करना ही होता है। भारत के नागरिक तो वैसे भी अपने शहीदों का बहुत सम्मान करते हैं और सैनिकों को बहुत ऊंचे पायदान पर रख कर देखते हैं। भारतीय समाज किसी सैनिक को देखते ही राष्ट्र गौरव के भाव से भर जाता है अतः उनकी वीरांगनाओं का सम्मान भी समाज पूरी निष्ठा के साथ करता है। उनके सम्मान की रक्षा करने के लिए दल-गत राजनीति की कतई जरूरत नहीं है बल्कि एक स्वर से उनके उज्वल भविष्य की व्यवस्था करना है।

आदित्य नारायण चोपड़ा

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