प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की 21 से 27 सितम्बर तक होने वाली अमेरिका यात्रा कई मायनों में बहुत महत्व रखने वाली होगी क्योंकि इस दौरान वह राष्ट्रसंघ महासभा के अधिवेशन को भी सम्बोधित करेंगे। उनके इस सम्बोधन पर आम भारतीयों की नजरें लगी रहेंगी क्योंकि उनके बाद इसी सभा को पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री इमरान खान भी खिताब करेंगे।
पाकिस्तान लगातार जिस तरह कश्मीर मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने की कोशिश कर रहा है उसे देखते हुए भारत के प्रधानमन्त्री की कूटनीतिक चतुरता की भी परख होगी मगर इस यात्रा से यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि अमेरिका भारत और पाकिस्तान के साथ अपने सम्बन्धों को लेकर कहां खड़ा हुआ है? अमेरिकी राष्ट्रपति पिछले दिनों फ्रांस में श्री मोदी के साथ जब बैठे हुए थे तो भारत के प्रधानमन्त्री ने साफ कर दिया था कि कश्मीर के मामले में हम किसी तीसरे देश को कष्ट देना नहीं चाहते हैं और इसका समाधान हम दोनों मिलकर आपस में ही ढूंढ लेंगे।
श्री मोदी का उस समय कहा गया यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि 1947 तक हम दोनों एक ही थे। इसके बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति श्री डोनाल्ड ट्रम्प ने हाल ही में फिर से दोहरा दिया कि वह मध्यस्थता करने को तैयार हैं। अमेरिका के बारे में हमें बहुत सावधानी के साथ अपने सम्बन्धों की समीक्षा पश्चिम एशिया में उसकी गतिविधियों को देखते हुए करनी होगी। वह अपने हितों को सर्वोपरि रखते हुए ही पाकिस्तान के साथ अपनी ‘रसाई’ की सीमा तय करेगा क्योंकि इस्लामी दुनिया में अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए वह पाकिस्तान को एक औजार की तरह प्रयोग करना चाहेगा।
इसलिए जरा भी भावुकता की गुंजाइश नहीं है और हमें यथार्थ की सतह पर घटनाओं और परिस्थितियों को परखते हुए अपना रुख तय करना होगा। हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति के व्हाइट हाऊस कार्यालय से यह घोषणा कर दी गई है कि 22 सितम्बर को श्री नरेन्द्र मोदी जब अमेरिकी शहर ह्यूस्टन में 50 हजार से अधिक भारतीय प्रवासी नागरिकों की सभा को सम्बोधित करेंगे तो श्री डोनाल्ड ट्रम्प भी उसमें हिस्सा लेने जायेंगे जो कि किसी विदेशी नेता को दिया जाने वाला अति विशिष्ट सम्मान होगा।
जाहिर तौर पर भारत व अमेरिका के सम्बन्धों में प्रगाढ़ता आयी है। विशेषकर श्री मोदी व ट्रम्प के बीच निजी सम्बन्ध भी बहुत ऊंचे स्तर पर हैं किन्तु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका ने अभी तक पाकिस्तान को वित्तीय मदद देना नहीं छोड़ा है बेशक ‘हाऊडी-मोदी’ के नाम से प्रचारित की गई ‘ह्यूस्टन सभा’ को अमेरिका दुनिया के सबसे प्राचीन लोकतन्त्र और सबसे बड़े लोकतन्त्र देश के बीच पक्की रणनीतिक साझेदारी का प्रतीक बता रहा हो मगर उसकी असली पहचान राष्ट्रसंघ की सभा में ही होगी कि इसके विभिन्न मंचों पर वह पाकिस्तान के बारे में क्या रुख अपनाता है।
प्रधानमन्त्री की पिछले दिनों की गई रूस यात्रा अत्यन्त सफल रही है जिस पर अमेरिका की पैनी नजर न रही हो यह नहीं माना जा सकता। इसके साथ ही चीन का रवैया पाकिस्तान को लेकर किस मोड़ पर आकर खड़ा हो गया है, इसका ध्यान भी भारत को रखना होगा परन्तु इतना जरूर कहा जा सकता है कि ह्यूस्टन की सभा में श्री ट्रम्प के आने से अमेरिका में रह रहे लाखों प्रवासी भारतीयों में आत्मविश्वास बढे़गा और वे अमेरिका में रहते हुए भारत के अनाधिकारिक राजदूतों की भूमिका में ज्यादा प्रभावी हो सकेंगे। दोनों देशों के समाजों में गहराई से एकता स्थापित होने में भी इससे बल मिलेगा जिसका अन्ततः लाभ अमेरिका को ही होगा।
अगर गौर से देखा जाये तो अमेरिका के नजरिये में भारत के प्रति पिछले दो दशकों में जो बदलाव आया है उसका मूल कारण भी भारत की प्रतिभा है। इसके वैज्ञानिक अन्तरिक्ष शोध संस्थान ‘नासा’ से लेकर कम्प्यूटर साफ्टवेयर व इंटरनेट की माइक्रोसाफ्ट और गूगल जैसी कम्पनियों में तीस प्रतिशत भारतीय ही काम करते हैं। अतः अमेरिकी आर्थिक हितों का संरक्षण भी भारतीय प्रतिभा की मार्फत हो रहा है। इस सबके बावजूद अमेरिका का पुराना इतिहास भारत के हितों को कमजोर करने वाला रहा है चाहे वह पाकिस्तान के साथ 1965 का युद्ध हो अथवा 1971 का। अतः हमें अतीत से सबक लेते हुए ही जोश में होश नहीं गंवाना होगा और हमेशा याद रखना होगा-
काम उससे आन पड़ा है इस ‘जहान’ में
लेवे न कोई नाम उसका सितमगर कहे बगैर