हम कब तक आपदा काे सहते रहेंगे…

हम कब तक आपदा काे सहते रहेंगे…
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जल आपदा क्या होती है, इस पर हमारे पर्यावरण विशेषज्ञ काम कर रहे हैं। बरसात या फिर जल सैलाब अथवा बाढ़ में लोग क्यों मरते हैं, यह आज का सवाल है। वायनाड में कुदरत के कहर से 300 लोगों का मारा जाना, ​िहमाचल में 5 जगहों पर बादल फटने से 5 लोगों की मौत और 51 की जिन्दगी की तलाश अभी जारी है। उत्तराखंड में भी बादल फटने की सुर्खियां उभर रही हैं लेकिन 48 घंटे पहले दिल्ली में आफत बनकर बरसी बारिश में लोगों के मारे जाने की सुर्खियाें पर एक नजर डालिये-
* मयूर विहार में नाले में गिरने से मां-बेटे की मौत
* ​बिंदापुर में ट्यूशन पढ़कर आ रहे छात्र की करंट से मौत
* जैतपुर में पानी की टंकी में करंट से युवक की मौत
* शास्त्री पार्क में छत गिरने से दुकानदार की मौत
* संगम विहार में गली में पानी भरा, करंट से युवक की मौत
* नोएडा, गाजियाबाद में बिजली करंट से 4 मौतें
* फरीदाबाद नाले में युवक की मौत
अगर छह दिन पहले की बात करें तो ​िदल्ली के पटेल नगर में करंट से आईएएस की तैयारी कर रहे युवक की मौत तथा राजेन्द्र नगर के कोचिंग सैंटर अव्यवस्था की कहानी बयान कर रहे हैं। हर मौत जवाब मांग रही है। कब तक हम मौसम की मार कह कर कुदरत के हादसों को कोसते रहेंगे। हमारे यहां पानी की आफत से बचने के ठोस उपाय जरूरी हैं। मयूर ​विहार इलाके से सटे गाजीपुर की खेड़ा कालोनी में तीन साल के प्रियांश और 23 साल की उसकी मां तनुजा ​िबष्ट की मौत के लिए नाला जिम्मेदार है या अव्यवस्था। लेकिन मां की बेटे के लिए यह ममता थी, प्रेम था जिस वजह से दोनों की जान गई। तनुजा की भाभी पिंकी भी वहीं थी। तनुजा की गोद में प्रियांश था और एक हाथ में बैग था। मां ने बेटे को गोद से नहीं छोड़ा तथा दूसरे हाथ में बैग थाम कर वह जिन्दगी की जंग हार गई। पानी में पिंकी डूब गई लेकिन उसका हाथ बाहर निकल आया​ जिसे बचावकर्मियों ने बचा लिया। जल भराव को लेकर दोषारोपण या राजनीति की बजाय जिन लोगों की मौत हुई है, उनके परिजनों से दर्द बांटा जाए। उन्हें मुआवजा दिया जाना चाहिए। सोशल मीडिया पर लोग व्यवस्था न होने पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं कि अव्यवस्था की कीमत आम आदमी क्यों चुकाए।
हर साल 'बाढ़' आती है। उतनी बारिश नहीं होती जितना पानी भर जाता है। ​िदल्ली से गुरुग्राम, सोनीपत, पानीपत हर हाइवे झील बन जाते हैं। वाहन फंस जाते हैं। दिल्ली के अन्दर हर सड़क पर जाम लग जाता है। पानी में करंट आ सकता है। ऊपर ​लिखे हादसे से दिल्ली-एनसीआर में 10 मौतें प्रशासन को मजबूत व्यवस्था के लिए अलर्ट दे रहे हैं, हमें सावधान हो जाना चाहिए।
मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानना है कि कोई भी हादसा प्राकृतिक रूप से भी घटित हो सकता है क्योंकि कुदरत के प्रकोप को रोकना मनुष्य के वश की बात नहीं है लेकिन हम देख रहे हैं कि हादसों में लगातार लोगों की जानें जा रही हैं और राष्ट्रीय सम्पदा का नुक्सान भी हो रहा है। प्रकृति के कहर को रोका तो नहीं जा सकता लेकिन उसके प्रभाव को कम किया जा सकता है लेकिन मानव निर्मित हादसों का बढ़ना सबके लिए चिंता का विषय है। हादसों के लिए चूक जिम्मेदार है। अधिकांश ट्रेन दुर्घटनाएं मानवीय भूल से हो रही हैं। इसमें हर वर्ष सैकड़ों रेल यात्रियों की मौत हो जाती है। वर्षाकाल के दिनों में एक के बाद एक हादसे हो रहे हैं लेकिन दिल्ली में वर्षा आैर करंट के चलते 10 लोगों की जान चली जाए तो मानवीय पहलू तथा बंदोबस्त की मजबूती जरूरी है।
पटेल नगर इलाके में एक छात्र द्वारा वर्षा के दौरान लोहे का गेट पकड़ने पर करंट लगने से मौत हो गई। यूपी के गाजीपुर का निलेश कुमार छात्र सिविल सर्विस का आरम्भिक टैस्ट क्लीयर का चुका था और मेन्स की तैयारी कर रहा था। उसके बाद राजेन्द्र नगर में एक कोचिंग सैंटर की बेसमेंट में पानी भरने से 3 छात्रों की मौत हो गई। ​िजनमें दो छात्राएं भी थीं। यह सारे हादसे मानव निर्मित ही हैं। अगर बिजली का करंट दौड़ाने वाली नंगी तारों को पहले ही देख लिया होता तो छात्र की ​कीमती जान बच सकती थी। बेसमेंट में लाइब्रेरी बनाना सीधा-सीधा ​िनयमों का उल्लंघन हो रहा है। दरअसल नियम व कानून लागू करने वाली एजैंसियां इतनी लापरवाह हो चुकी हैं कि उन्हें लोगों की जान की कोई परवाह नहीं है। अगर खतरों को भांप कर बेसमेंट में सुरक्षा के कोई पुख्ता प्रबंध किए ॒गए होते तो हादसा टल सकता था। जिन्होंने निगरानी रखनी थी वह भी गायब रहे और ​जो कोचिंग सैंटर चला रहे थे उन्हें भी धन के अलावा कुछ नजर नहीं आ रहा था। ऐसी व्यवस्था समाज के लिए घातक होती है जिसमें प्रशासन तंत्र भ्रष्टतंत्र में बदल जाए और अकूत धन कमाने की लालसा में सब अंधे हो जाएं। अब सवाल यह है कि मानव निर्मित आपदाओं को रोका कैसे जाए।
हमारा यह मानना है कि हर साल पानी भराव को लेकर ठोस परियोजना कब बनाई जाएगी। बाद में कमेटी बनाने या जांच बैठाने का क्या लाभ? पहले ही से ठोस प्रबंध कर लिए जाएं तो बहुत जानें बचाई जा सकती हैं तथा कागजों पर दावे करने की बजाय यह सु​िनश्चित करना चाहिए कि किसी मां-बेटी, बहन-भाई या तीन साल के प्रियांश तथा उसकी मां तनुजा की जान नहीं जाएगी। जान किसी युवक या किसी बेटी या बेटे की गई, वह इंसान की ही थी। जो व्यवस्था कर रहे हैं, वे भी इंसान ही हैं इसलिए इंसान का रिश्ता इंसा​िनय​त तथा मददगार का होना चाहिए।

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