पुलिस वह विभाग है जिससे देश के हर नागरिक काे मतलब पड़ता है चाहे जीवन में एक ही बार ऐसा अवसर आए। बहुत कम सौभाग्यशाली होंगे जिनको अपने या अपने शुभचिंतकों के काम से पुलिस के पास न जाना पड़े। यही कारण है कि पुलिस और नागरिकों के रिश्तों को लेकर हमेशा चर्चा की जाती है। पुलिस जितना सक्षम विभाग है आैर जितनी कानूनी शक्तियां इसके पास हैं लेकिन वह भी सियासतदानों की ताबेदार बनती गई। न तो पुलिस को हम मानवीय बना सके और न ही उसका चेहरा बदल सके। इसका प्रमुख कारण पुलिस की नियुक्तियों में पारदर्शिता का अभाव, सत्ताधारी राजनीतिक दलों द्वारा अपनी विचारधारा के करीबी लोगों को उच्च पदों पर बैठाने और राज्य सरकारों द्वारा मनमानी किया जाना है।
अक्सर सत्ता बदलते ही पुलिस महानिदेशक पद पर राज्य सरकारें अपनी पसंद के किसी अफसर की नियुक्ति करती हैं। पुलिस में व्यापक स्तर पर तबादले किए जाते हैं। विधायक तो अपने इलाके में ऐसा थाना प्रभारी चाहते हैं जो उनके इशारे पर काम करे। सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में पुलिस सुधारों के संदर्भ में कुछ दिशा-निर्देश जारी किए थे। उम्मीद तो की जा रही थी कि राज्य सरकारें दिशा-निर्देशों का पालन करेंगी और तत्परता से कदम उठाएंगी लेकिन राज्य सरकारों ने पुलिस सुधारों के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार राज्य सरकारों को फटकार भी लगाई लेकिन वे स्वेच्छा से कुछ भी करने को तैयार ही नहीं हुईं। सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधारों पर अब कई दिशा-निर्देश जारी किए हैं। सभी राज्यों आैर केन्द्र शासित प्रदेशों को आदेश दिया गया है कि वह किसी भी पुलिस अधिकारी को कार्यवाहक डीजीपी के तौर पर नियुक्त न करें। डीजीपी या पुलिस कमिश्नर के पद पर नियुक्ति के लिए सरकार जिन वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के नाम पर विचार कर रही होगी, उनके नाम संघ लोक सेवा आयोग को भेजे जाएंगे। इन्हें शार्ट लिस्ट कर आयोग तीन सबसे उपयुक्त अधिकारियों की सूची राज्यों को सौंपेगा। इनमें से किसी को भी राज्य सरकार पुलिस प्रमुख नियुक्त कर सकेगी।
पुलिस प्रमुख पद से रिटायरमैंट से तीन महीने पहले यह सिफारिश संघ लोक सेवा आयोग को भेजनी होगी। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि डीजीपी बनने वाले अधिकारी का पर्याप्त सेवाकाल बचा दो। दरअसल हो यह रहा है कि राज्य सरकारें राजनीतिक सहूिलयत के अनुसार अधिकारियों को कार्यकारी डीजीपी बना देती हैं। रिटायरमैंट की तारीख नजदीक आने पर उस अधिकारी को डीजीपी बना दिया जाता है। वह दो साल तक पद पर रहता है। काेर्ट ने अपने आदेश में संशोधन किए बिना सिर्फ राज्यों को कार्याहक डीजीपी की नियुक्ति से रोक दिया है। केवल पांच राज्यों तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना और कर्नाटक ने ही 2006 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक डीजीपी की नियुक्ति के लिए यूपीएससी से अनुमति ली, जबकि 26 राज्यों ने ऐसा नहीं किया। पुलिस महानिदेशकों की नियुक्ति मेरिट के आधार पर आैर पारदर्शी तरीके से होनी चाहिए। शीर्ष अदालत ने 2006 के फैसले में पुलिस के जांच संबंधी कार्यों और कानून व्यवस्था के कार्यों को अलग-अलग करने की सिफारिश की थी। इसके साथ ही न्यायालय ने पुलिस उपाधीक्षक के पद से नीचे के अधिकारियों के तबादले, तैनाती, पदोन्नति और सेवा से संबंधित दूसरे मामलों पर फैसले के लिए पुलिस प्रतिष्ठान बोर्ड गठित करने की सिफारिश की थी। इन निर्देशों पर अमल नहीं होने के कारण संबंधित प्राधिकारियों के खिलाफ अवमानना कार्यवाही के लिए दायर याचिकाएं अब भी लंबित हैं। आश्चर्यजनक ढंग से जांच करने वाले पुलिस अधिकारियों को विशेष कार्यपालक मैजिस्ट्रेट नियुक्त किया जाता रहा और वे कुछ मामलों में न्यायाधीश की तरह काम करते हैं। पुलिस अधिकारियों को कानून व्यवस्था कायम रखने के लिए लोगों से जमानती मुचलकों से निपटने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता के तहत कार्यपालक मैजिस्ट्रेटों का काम करने की अनुमति कैसे दी जा सकती है। इस पर भी शीर्ष अदालत ने सभी राज्यों को जवाब दायर करने का निर्देश दिया है।
यह समझना कठिन है कि राज्य सरकारों को थानाध्यक्षों से लेकर पुलिस प्रमुख तक के कार्यकाल को निर्धारित करने और जांच तथा कानून व्यवस्था को अलग-अलग करने में क्या कठिनाई है। पुलिस के चरित्र के बारे में शीर्ष अदालत से लेकर आम जनता ने खुली टिप्पणियां की हैं, पुलिस को डकैतों का संगठित गिरोह करार दिया जाता है। पुलिस भर्ती में भ्रष्टाचार के बारे में सब जानते हैं। कमाई वाले क्षेत्रों में थानों की बोली लगती है।राज्य सरकारें हमेशा ही पुलिस सुधारों को लेकर हीलाहवाली का परिचय देती हैं। सच तो यह है कि वे पुलिस का राजनीतिक इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति का परित्याग नहीं कर पा रही हैं। जब तक पुलिस सुधार लागू नहीं किए जाते तब तक पुलिस की चाल, चरित्र आैर चेहरा नहीं बदलेगा।