बड़े-बड़े इलेक्टाेरल बांड से छूट कैसे गए?

बड़े-बड़े इलेक्टाेरल बांड से छूट कैसे गए?
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'लो हमने तेरे पहलू में तेरे-मेरे साथ गुजारी वे हसीन रातें रख दी हैं
तेरे सिवा न देखूं किसी को तेरी देहरी पर अपनी आंखें रख दी हैं'
इलेक्टोरल बांड का बवंडर थमने का नाम नहीं ले रहा, इन चुनावी फिज़ाओं में सियासी दीवारों पर लिखी हर इबारत पढ़ने में एकदम साफ नजर आ रही है तो ऐसे में लोग हैरत में हैं कि इलेक्टोरल बांड की लिस्ट से सत्ताधारी दल के समर्थक माने जाने वाले देश के 2-3 शीर्ष उद्योगपतियों के नाम कैसे नदारद हैं? सौजन्य से कांग्रेस नेता राहुल गांधी के अब तक तो यही कयास लग रहे थे कि देश के इन्हीं 2-3 चुनिंदा उद्योगपतियों ने सत्ताधारी दल की झोली अपनी निष्ठाओं से लबालब भर रखी है। पर सूत्र बताते हैं कि देश के 'न्यूऐज' थैलीशाहों से अलग राह चल कर इन 2-3 चुनिंदा घरानों ने चुनावी चंदा देने की अपनी पुरानी परिपाटी को ही जिंदा रखा। इन घरानों को कहीं गहरे इस बात का इल्म था कि इलेक्टोरल बांड के मार्फत चंदा देने से एक न एक दिन उनके नामों का भंडाफोड़ हो जाएगा। सो, इन घरानों ने एक दल विशेष को चुनावी चंदा देने के लिए अपने पुराने नुस्खों को नए-नए तरीकों से आजमाया। मसलन, अपरोक्ष तौर पर पार्टी सिरमौर की बड़ी रैलियों के सारे खर्चे इन कंपनियों ने उठाए, इनकी 'सब्सिडियरी कंपनियों' ने टेंट वालों, माइक वालों, मुनादी वालों और सोशल मीडिया के खर्चों का बाकायदा चेक या कैश से भुगतान कर दिया।
बड़े-बड़े 'वॉर रूम' जहां से संचालित हो रहे हैं वहां सोशल मीडिया आर्मी से लेकर ऑफिस और अन्य खर्चों का भुगतान भी इन सब्सिडियरी कंपनियों के मार्फत हो रहे हैं। इसके अलावा बड़े नेताओं के लिए चार्टर्ड फ्लाइट की व्यवस्था भी ये कंपनियां अपरोक्ष तौर पर कर रही हैं। तरीके और भी कई हैं, पर अब तलक वहां विपक्षी दलों की नज़र पहुंच नहीं पाई है।
पहचानो तो कौन
आइए अब बात करते हैं ऐसे कॉरपोरेट शहंशाह की जिन्होंने कांग्रेस के जमाने में खूब चांदी काटी थी। इनके पिता भी भर-भर कर कांग्रेसी थे सो, कांग्रेस की राह चलना इनके लिए बेहद मुफीद साबित हुआ। टेलिकाॅम सैक्टर में इस कंपनी ने कई नए मुकाम हासिल किए, पर जैसे ही 2014 में दिल्ली का निजाम बदला इन महानुभाव ने अपनी निष्ठाओं को भगवा रंग में भिगो लिया। 2014 में ही इस कंपनी के मालिक ने एक 'नॉन प्राफिट कंपनी' शुरू की और चुनावी चंदे के मद्देनज़र देश के 33 कारपोरेट घरानों को इससे जोड़ लिया। साऊथ दिल्ली में इस कंपनी का आलीशान कार्यालय बनाया गया। इस नॉन प्राफिट नई कंपनी का कार्य पूरी तरह राजनीतिक पार्टियों के लिए चंदा जुगाड़ करने का था। जाहिर है इस योजना की सबसे बड़ी लाभार्थी भी देश की सबसे शीर्षस्थ राजनैतिक पार्टी ही रही। बाद में इस कंपनी को एक ट्रस्ट में बदल दिया गया और इसके दफ्तर को भी नई दिल्ली में स्थानांतरित कर दिया गया।
सूत्र बताते हैं कि अकेले इस कंपनी ने 22 अरब रुपयों से ज्यादा चंदा राजनीतिक पार्टियों को दिया है। पर आपको इस उद्योगपति की दाद देनी पड़ेगी जिन्होंने भारत सरकार की इलेक्टोरल बांड योजना के आने से पहले ही उसके मजमून को भांप लिया था। सनद रहे कि भारत सरकार ने इलेक्टोरल बांड योजना की घोषणा 2017 में की थी और यह लागू 29 जनवरी 2018 को हुई थी। आपको इस टेलिकाॅम उद्यमी की दूरदर्शिता की दाद देनी होगी जिन्होंने सियासत की बदलती करवटों को कहीं पहले ही भांप लिया था।
क्या जजपा और भाजपा में मिलीभगत है?
आज हरियाणा में जाहिरा तौर पर भाजपा और जजपा की राहें जुदा हैं। हालिया दिनों की घटनाओं से आम धारणा यह भी बनी है कि भाजपा ने जजपा को बाहर कर दिया। पर सूत्र बताते हैं कि हरियाणा में हकीकत कई पर्दों में छुपी है। सच तो यह है कि लोकसभा चुनाव से ऐन पहले भाजपा और जजपा के बीच एक गुप्त समझौता हुआ है कि आगामी लोकसभा और हरियाणा विधानसभा चुनाव संपन्न हो जाने के बाद दोनों पार्टियां फिर से गठबंधन धर्म का निर्वहन करेंगी। कहते हैं भाजपा नेतृत्व जजपा को यह समझाने में कामयाब रहा कि 'यदि वे भाजपा के साथ दिखेंगे तो उनकी पार्टी को जाटों और राज्य के किसानों की नाराज़गी झेलनी पड़ सकती है।' दूसरा, भाजपा सरकार की एंटी इंकमबेंसी का भागीदार भी जजपा को बनना पड़ सकता है। सो, बेहतर है कि वे अलग होकर चुनाव लड़ें जिससे जाट और किसान वोट कांग्रेस के पक्ष में लामबंद न हो सकें। इन वोटों में बंटवारा हो सके।
क्यों बाग-बाग हैं चिराग?
लगता है इस दफे फिर से भतीजे चिराग ने अपने दोनों चचाजानों पशुपति पारस और नीतीश कुमार को सियासी पटखनी दे दी है। पारस और नीतीश कुमार के लाख विरोधों के बावजूद भाजपा ने चिराग की पार्टी के लिए बिहार में 5 लोकसभा सीट छोड़ने का निर्णय ले लिया है।
सूत्रों की मानें तो बिहार की कुल 40 सीटों में से भाजपा 17, जदयू 16, चिराग 5, उपेंद्र और जीतन राम मांझी 1-1 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे, क्योंकि भाजपा अच्छे से समझती थी कि चाचा-भतीजा में से किसे चुनना है। बिहार की राजनीति में पशुपति पारस एक चूके हुए योद्धा हैं, वे कायदे से भीड़ भी नहीं जुटा सकते। वहीं चिराग ने अपनी एक राजनीतिक हैसियत बना रखी है। वे अपने पिता के विरासत के असली उत्तराधिकारी साबित हुए हैं। वैसे भी चिराग भूले नहीं हैं कि ये वही नीतीश कुमार हैं जिन्होंने उनकी पार्टी में दो फाड़ करवाया था। रही बात पशुपति पारस की तो भाजपा उन्हें किसी राज्य का गवर्नर बनने का ऑफर दे रही है।
…और अंत में
भाजपा यूपी में कांग्रेस की एकमात्र मौजूदा सीट रायबरेली से कांग्रेसी खंभा उखाड़ने की तैयारियों में जुट गई है। अगर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी रायबरेली से मैदान में उतरती हैं तो यहां मुकाबला दिलचस्प हो सकता है। वहीं भाजपा इस सीट पर किसी ब्राह्मण चेहरे पर दांव लगा सकती है। दावेदारों की एक लंबी फेहरिस्त है जिनमें डॉ. मनोज पांडे, राज्य के डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक, कवि कुमार विश्वास और एक युवा चेहरा राजेश दीक्षित के नाम शामिल हैं। राजेश दीक्षित रायबरेली के ही रहने वाले हैं और पूर्व में मुलायम सिंह यादव के बेहद करीबियों में शुमार होते थे। उन्होंने कुछ अर्से पहले ही भाजपा ज्वाइन की है।

– त्रिदीब रमण

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