प्रश्न खड़ा हो सकता है कि जब रेल में सफर करते 81 मजदूर नारकीय परिस्थितियों में दम तोड़ देते हैं और प्लेटफार्म पर एक अबोध बालक अपनी मां के शव को जगाने का बाल प्रयास करता है तो हमारी मानवीय संवेदना कहां सो जाती है? सवाल यह भी बहुत बड़ा है कि जब उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के एक गांव में एक गन्ना किसान पेड़ से लटक कर फांसी इसलिए लगा लेता है कि उसके गन्ने के भुगतान की रकम अदा किये बिना ही चीनी मिल बन्द हो गई और वह कंगाली की हालत में आ गया तो मानवीय संवेदना इसे एक घटना क्यों मान लेती है? लाॅकडाऊन की अवधि में पूरे देश में कम से कम 667 जानें कोरोना से इतर बदहाली व तंगदस्ती की वजह से हुईं। इनकी मृत्यु की जिम्मेदारी किस मन्त्रालय या सरकार पर डाली जाये? लेकिन इसके समानान्तर केरल में एक गर्भवती हथिनी की विस्फोटक पदार्थ खिलाने से जो दुखद मृत्यु हुई है वह मानवीय संवेदना के समस्त स्पन्दनों में भयंकर विस्फोट करके आदमी के हैवान होने की घोषणा करती है।
संवेदनहीनता और हैवानियत में मूलभूत अंतर व्यक्ति के हिंसक पशु बन जाने का होता है। निश्चय ही केरल की इस घटना ने इस खूबसूरत प्रकृति जन्य राज्य के माथे पर कलंक लगाया है मगर इसे जो लोग राजनीति या मजहब से जोड़ने की फिराक में हैं उन्हें सबसे पहले हिमाचल प्रदेश में बन्दरों के मारे जाने के लिए केरल जैसी ही विधि अपनाये जाने पर गौर करना चाहिए। दोनों राज्यों में धुर विरोधी राजनीतिक विचारधारा वाली पार्टियों का शासन है मगर दोनों की जानवरों के प्रति दृष्टि में कोई अन्तर नहीं दिखाई पड़ता। अतः राजनीतिक दल हथिनी के मुद्दे पर राजनीतिक रोटियां सेंकने से बाज आयें और अपने गिरेबान में झांक कर देखें। केरल की मार्क्सवादी सरकार ने किसानों की खेती को जंगली सूअरों से बचाने के लिए फल व अन्य खाद्य पदार्थों में विस्फोटक रख कर उन्हें मारे जाने की इजाजत भी उसी प्रकार दी जिस प्रकार हिमाचल की भाजपा सरकार ने बन्दरों को मारे जाने के लिए अमानुषिक रास्ते अख्तियार करने की। सबसे पहले जानवरों के प्रति इस दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने की जरूरत है।
हकीकत यह है कि कोरोना वायरस पर सफलतापूर्वक नियन्त्रण पाने के लिए केरल की स्वास्थ्य मन्त्री श्रीमती शैलजा टीचर की अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा हो रही है मगर उनकी सरकार के सूअरों को मारने के ऐसे आदेश से केरल की स्वास्थ्य मोर्चे पर अभूतपूर्व सफलता दागदार हो गई है। हिन्दू संस्कृति में पशु-पक्षी ही नहीं बल्कि पेड़-पौधे भी पूजे जाते हैं जो पर्यावरण संरक्षण के द्योतक हैं। अतः हाथी जहां गणेश का स्वरूप है वहीं बन्दर हनुमान जी का। हमें इसमें भेद करके राजनीतिक आग्रहों के आधार पर न सोच कर मानवीय संवेदना के स्तर पर सोचना चाहिए और आरोप-प्रत्यारोप से बचना चाहिए। जानवरों के प्रति निर्दयता और बर्बरता आदमी को हैवान बनाती है और 1972 में वन्य जीव संरक्षण कानून बना कर भारत ने यही एेलान किया था कि पशु भी इस देश की सम्पत्ति हैं। हथिनी की मृत्यु के लिए केरल के मल्लापुरम जिले को अनावश्यक रूप से चर्चित बनाने की जरूरत इसलिए नहीं है क्योंकि हथिनी को अन्नानास में पटाखे रख कर पलक्कड़ जिले में दिये गये थे और वह मल्लापुरम की सीमा में आ गई थी।
दरअसल अंधाधुंध विकास के चलते जंगल कम होते जा रहे हैं, हरे-भरे जंगलों की जगह अब कंक्रीट के जंगलों ने ले ली, जिसमें इंसान रहता है। पशु जंगल छोड़ कर शहरों की तरफ आ रहे हैं इसलिए मनुष्य और पशुओं का संघर्ष बढ़ रहा है। ऐसा इसलिए हो रहा है कि हमारे पास कोई ठोस नीति नहीं। हाथी ट्रेन से कट रहे हैं, पशुओं की कई प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं। यदि ऐसा ही चलता रहा तो भविष्य में बच्चे केवल किताबों में ही पशुओं की तस्वीरें देखेंगे कि हाथी और बाघ कैसे थे। या फिर डिस्कवरी जैसे चैनल देखकर वन्य प्राणियों को देखेंगे। इंसानों ने वन्य जीवों के आशियाने उजाड़ दिए , अब वन्य जीव भी इंसानों के लिए परेशानी पैदा कर रहे हैं। हैरानी की बात तो यह है कि हथिनी की मौत की त्रासदी को कुछ लोगों ने नफरत भरे अभियान में बदलने की कोशिश की। गुरुवयूर में 48 हाथी हैं, कोची देवासम बोर्ड के पास 9 हाथी हैं, त्रावणकोर देवासम बोर्ड के पास 30 हाथी हैं और मालावार देवासम बोर्ड के पास 30 हाथी हैं। हाथी मालिकों के संगठन के 380 सदस्य हैं जिनके पास 486 पालतू हाथी हैं। इन हाथियों की परेड़ मंदिरों के उत्सवों के दौरान कराई जाती है।
हथिनी की मौत से देशभर में गुस्सा है, इसलिए जांच कर दोषियों को दंडित करना जरूरी है। इस संबंध में एक आरोपी को गिरफ्तार भी कर लिया गया लेकिन यह भी सोचना होगा कि जंगली सूअरों और हाथियों को खेतों से दूर रखने के कोई और उपाय नहीं हो सकते। केन्द्र सरकार ने हाथी को राष्ट्रीय धरोहर पशु घोिषत किया है और इसे वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 की अनुसूची-एक मेें सूचीबद्ध करके कानूनी संरक्षण भी प्रदान किया गया है। मनुष्य को यह भी देखना होगा कि उसका पशु-पक्षियों के प्रति व्यवहार कैसा हो। मनुष्य की तरह पशुओं को भी प्राण प्यारे होते हैं। बुद्धि, विवेक और अधिकारों की दृष्टि से मनुष्य उन सबसे बड़ा है। मनुष्य का धर्म है कि वह अपने से छोटे जीवों पर दया करे। पर्यावरण संतुलन के लिए पशुओं-पक्षियों का जीवित रहना बहुत जरूरी है। गाय, बैल, घोड़े सब युगों-युगों के साथी हैं। लोग इनसे आजीविका कमाते हैं, फिर भी उन पर अत्याचार ढाते हैं। पशुओं का उत्पीड़न करना पाशविक ही नहीं, पैशाचिक वृत्ति है, जिसका सुधार मनुष्य को ही करना है। फिलहाल हथिनी इंसाफ मांग रही है। देखना होगा कि केरल सरकार क्या कदम उठाती है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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