असम में इस समय राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के दूसरे और सम्पूर्ण खंड पर काम चल रहा है। राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में जिन लोगों के नाम शामिल नहीं होंगे उनको अवैध अप्रवासी माना जाएगा। राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का पहला मसौदा जारी किया गया था तो असम के लोग अपनी नागरिकता को जानने उमड़ पड़े थे। असम में तनाव फैल गया था। पहले मसौदे में 3.29 करोड़ आवेदनों में से 1.9 करोड़ लोगों को ही कानूनी रूप से भारतीय माना गया था। सवाल उठा था कि 2.20 करोड़ लोग कौन हैं और वे असम में वहां के लोगों के हक आैर सुविधाएं छीन रहे हैं। अब दूसरे मसौदे की इंतजार में लोगों में तनाव बढ़ने लगा है। पहली सूची सामने आने के बाद तो असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल ने यह कहते हुए लोगों को शांत किया था कि नागरिकता सूची से किसी को घबराने की जरूरत नहीं। अभी और दस्तावेजों की जांच की जाएगी आैर जांच के बाद बाकी नाम भी रजिस्टर में शामिल किए जाएंगे।
कुछ मामले ऐसे भी हैं जहां संवेदनशील पदों पर रहने वाले भी अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाए। दूसरी तरफ असम पुलिस को भी इसके लिए फजीहत झेलनी पड़ी कि उसने नागरिकता साबित करने का गलत नोटिस थमा दिया। गुवाहाटी में सेना के एक सेवानिवृत्त अधिकारी तक को अपनी नागरिकता साबित करने का नोटिस थमा दिया गया था। पहली सूची में असम के दो सांसदों के नाम भी शामिल नहीं थे। इनमें से एक सांसद बदरुद्दीन अजमल हैं जिनका वहां की राजनीति में अच्छा-खासा प्रभाव है। राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर का दूसरा मसौदा असम में पहली बार बनी भाजपा सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है। असम में नागरिकता का मामला इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि पिछले वर्ष 2017 के अन्त में पंचायत एवं रूरल डेवलपमेंट ने जूनियर सहायक पंचायत सचिव समेत अन्य पदों के लिए 945 पदों पर नौकरियों के विज्ञापन जारी किए थे। यह नौकरियां दूसरे देश से अवैध रूप से आए घुसपैठियों को न मिले, इसका ध्यान तो रखा जाना ही चाहिए। अवैध रूप से रह रहे बंगलादेशियों आैर अन्य लोगों की पहचान होना भी असम की जरूरत है, लेकिन किसी के साथ अन्याय भी नहीं होना चाहिए। जनता ने भाजपा को सत्ता इसलिए सौंपी है ताकि इस जटिल समस्या का समाधान हो सके। असम में नागरिकता और बंगलादेशी मुस्लिमों का मुद्दा 1979 से ही राजनीतिक तौर पर उठने लगा था।
असम में आतंकवाद की समस्या की शुरूआत असमी लोगों के पहचान संकट के साथ तब शुरू हुई, जब भारत विभाजन के समय तब के पूर्वी पाकिस्तान से भारी संख्या में शरणार्थियों ने असम की आेर पलायन करना शुरू कर दिया। हालांकि इस बात को आधी शताब्दी बीत चुकी है लेकिन आज भी बंगलादेश से पलायन करके भारत आने वालों की संख्या में कमी नहीं हुई है आैर इस समस्या ने पूरे उत्तर-पूर्व के जनसांख्यिकी आंकड़ों को बदलकर रख दिया है। असम में इस घुठपैठ को लेकर असंतोष धीरे-धीरे बढ़ने लगा और जुलाई 1979 में ऑल असम स्टूडेंट यूनियन (एएएसयू) आैर ऑल असम गण संग्राम परिषद (एएजीएसपी) के नेतृत्व में आंदोलन की शुरूआत हुई। इन आंदोलनकारियों की मांग थी कि असम में रह रहे सभी बाहरी लोगों को बाहर किया जाए और इन बाहरी लोगों की परिभाषा तय करते हुए 1951 के बाद आए सभी लोगों को इस श्रेणी में शामिल करने की वकालत की। इसी परिभाषा को लेकर भारत सरकार आैर आंदोलनकारियों के बीच मतभेद उभरे और बातचीत असफल रही। दरअसल, भारत सरकार 1971 के बाद आए लोगों को ही बाहरी मानने पर अपनी सहमति दे रही थी और आंदोलनकारी इससे संतुष्ट नहीं थे। बातचीत में असफल होने के बाद आंदोलनकारियों ने शांति का मार्ग छोड़ दिया आैर आंदोलन ने हिंसात्मक रुख धारण कर लिया।
सरकार को राज्य में शांति व्यवस्था कायम करने के लिए इसी साल दिसम्बर में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा। इस अशांति के बीच शिवसागर में 7 अप्रैल 1979 काे यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम या उल्फा अस्तित्व में आया। परेश बरुआ इस संगठन का अध्यक्ष था और अरविन्द राजखोआ प्रमुख तथा अनूप चेटिया प्रमुख सचिव के तौर पर काम करने लगे। प्रदीप गोगोई इस संगठन का उपाध्यक्ष चुना गया जो 8 अप्रैल 1998 से कैद में है। इस संगठन का मुख्य उद्देश्य असम को बाहरी लोगों से निजात दिलाना आैर एक स्वतंत्र असम की स्थापना करना है। इस संगठन ने आसू आैर असम गण संग्राम परिषद काे अपने हाथों में ले लिया। यह आतंकवाद के बल पर अपने लक्ष्यों की पूर्ति में विश्वास करता था। राज्य पुलिस आैर सेना सहित अन्य सुरक्षा बलों को अर्द्ध न्यायिक शक्तियों से लैस करने के बाद दूषित हुए लोकतांत्रिक वातावरण ने आम असमवासियों में पृथकतावाद तथा असमी युवाओं में खासतौर पर सशस्त्र पृथकतावाद को बढ़ावा देने में उत्प्रेरक का काम किया है। (सक्सेसनिस्ट इंसर्जेन्सी एंड दि फ्रीडम ऑफ माइन्ड्स) राज्य में शांति व्यवस्था को बनाए रखने और उल्फा पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए 28 मार्च 1980 से सेना तैनात कर दी गई, इससे लोगों में असंतोष और बढ़ गया। सरकार ने एक और कदम आगे बढ़ाते हुए असम के कछार और उत्तरी कछार क्षेत्र को छोड़कर असम अशांत क्षेत्र अधिनियम 1955 के तहत शेष असम को अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया। 6 अप्रैल, 1980 को सशस्त्र सेना (विशेषाधिकार) अधिनियम, 1958 (एएफएसपीए) लागू कर दिया जो आगे चलकर बड़े विवाद का कारण बना। असम बार-बार लहूलुहान होता रहा लेकिन असमी लोगों की पहचान का संकट नहीं सुलझ सका। बाकी चर्चा मैं कल के लेख में करूंगा। (क्रमशः)