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वैचारिक स्वतन्त्रता और नेहरू

यह सुखद संयोग है कि आज दीपावली के दिन भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री और महान स्वतन्त्रता सेनानी पं. जवाहर लाल नेहरू का जन्म दिवस है।

यह सुखद संयोग है कि आज दीपावली के दिन भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री और महान स्वतन्त्रता सेनानी पं. जवाहर लाल नेहरू का जन्म दिवस है। लोकतन्त्र में वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता किसी प्रकाशोत्सव से कम नहीं होती क्योंकि केवल विचारों की रोशनी के बलबूते पर ही मानव सभ्यता अंधेरे से प्रकाश की ओर बढ़ती है। यह वैचारिक प्रकाश ही मनुष्य के दिमाग में रोशनी भर कर उसे लगातार प्रगति की ओर ले जाता है और वह अधिकाधिक सुसंस्कृत कहलाने लगता है। पं. नेहरू,जिनका बाल्यकाल पूरी तरह राजसी ठाठ-बाट में बीता था, जब युवा हुए तो उन्होंने अपने देश की वास्तविकता जानने के लिए गांवों में जाकर किसानों के बीच काम करना शुरू किया। जाहिर तौर पर यह सब उनके महात्मा गांधी के सम्पर्क में आने के बाद ही हुआ था क्योंकि बापू मात्र एक धोती लपेट कर जीवन यापन करते थे , लन्दन से बैरिस्टरी पास करके लौटे नेहरू पर इसका जबर्दस्त प्रभाव पड़ा और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वह भी भारतीय वेशभूषा में ही लोगों के बीच काम करेंगे। वस्तुतः नेहरू की जीवनी लिखने का कोई इरादा इन पंक्तियों में नहीं है बल्कि आजकल अभिव्यक्ति  की स्वतन्त्रता को लेकर माननीय सर्वोच्च न्यायालय से लेकर सड़कों तक जो बहस चल रही है उस ओर इशारा करने का लक्ष्य है।
स्वतन्त्रता के बाद से भारत में तीन विचारधाराएं राष्ट्रवाद, समाजवाद व साम्यवाद प्रमुख रही हैं। इन विचारधाराओं के बीच आपसी द्वन्द इस प्रकार रहा है कि 1952 के प्रथम आम चुनावों में कांग्रेस से ही निकल कर एेसे दलों का गठन हुआ जो प्रखर समाजवादी सोच के थे। इनमें आचार्य कृपलानी से लेकर डा. राम मनोहर लोहिया व आचार्य नरेन्द्र देव प्रमुख थे, परन्तु  श्यामा प्रसाद मुखर्जी एेसे व्यक्ति थे जो महान शिक्षाविद होने के साथ ही हिन्दू महासभा के विचारों से प्रभावित थे  मगर आजाद भारत में उन्होंने अपनी अलग पार्टी भारतीय जनसंघ की स्थापना की और समाजवादी विचारों के धुर विरोधी आर्थिक विचारों का प्रतिपादन किया। उन्होंने 1951 में स्थापित भारतीय जनसंघ के घोषणापत्र में लिखा कि भारत में बाजार मूलक अर्थव्यवस्था ही आम आदमी के विकास का प्रयोजन बन सकती है। 
इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि पं. नेहरू कम्युनिस्ट विचारधारा  का अंतरंग हिस्सा बनी हिंसा के प्रबल विरोधी थे मगर समाजवाद के हिमायती थे। उनके लिए महात्मा गांधी का यह कथन हमेशा रोशनी देने का काम करता रहा कि ‘यदि साम्यवाद से हिंसा के प्रयोग को हटा दिया जाये तो वह सबसे बड़े कम्युनिस्ट हैं।’ दरअसल महात्मा गांधी ने कम्युनिस्ट सामाजिक बराबरी के सिद्धांत के समानान्तर  ट्रस्टीशिप या सामाजिक सहभागिता का सिद्धान्त प्रतिपादित करके कम्युनिस्टों के लिए भारत की मूल संस्कृति सर्वजन हिताय से जुड़ने की चुनौती फैंक दी थी। अतः यह बेवजह नहीं था कि पं. नेहरू ने भारत को मिश्रित अर्थव्यवस्था का रास्ता दिखाया जिसमें निजी उद्योगपतियों को भी फलने-फूलने की इजाजत दी गई। समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया को नेहरू जी से हमेशा यही शिकायत रही कि उनके राज में टाटा, बिड़ला व डालमिया जैसे उद्योगपतियों के साथ सरकार दोस्ताना व्यवहार करती है परन्तु नेहरू ने इस तरफ कभी ध्यान नहीं दिया और कम्युनिस्ट विचारधारा को भारत में न पनपने देने के उपाय भी किये। इस मामले में वह पूरे राष्ट्रवादी थे और कम्युनिस्टों के हिंसक तरीकों के इस्तेमाल के सख्त विरोधी भी। इसलिए यह समझना जरूरी है कि उन्होंने आजाद भारत में कम्युनिस्टों पर प्रतिबन्ध क्यों लगाया था। 
कम्युनिस्टों ने खुलेआम भारत की स्वतन्त्रता को ‘सत्ता के हस्तांतरण’ का नाम दिया था। नेहरू जी को इस पर सख्त एेतराज था क्योंकि कम्युनिस्ट हिंसक रास्तों से भारत में सत्ता बदलना चाहते थे। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को केवल अहिंसक विचारों तक सीमित करने के पीछे नेहरू जी का उद्देश्य यही था कि भारत की चुनावी लोकतान्त्रिक प्रणाली के माध्यम से ही सरकारें अदली- बदली जायें। चुनावों में केवल अहिंसा के माध्यम से ही सत्ता परिवर्तन का पक्ष लेने वाले दलों को खड़ा होने की इजाजत ही नेहरू जी के संशोधन से मिली जिसका परिणाम यह हुआ कि 1952 के पहले चुनावों से पहले कम्युनिस्टों ने भारतीय संविधान की शपथ लेते हुए प्रण किया कि उनका भारत की संसदीय चुनाव प्रणाली पर अटूट विश्वास रहेगा और वे केवल अहिंसक रास्ते अपना कर ही अपने विचारों को फैलाएंगे जिनमें हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं होगा मगर इसके साथ ही पं. नेहरू लोकतन्त्र में निडर होकर अपनी बात कहने के हक के पक्के पक्षधर भी थे। उनका मानना था कि लोकतन्त्र कभी भी डर फैला कर खौफ के साये में नहीं चल सकता क्योंकि डरा हुआ आदमी हमेशा सच बोलने से कतराता है और वह अनर्गल बहाने ढूंढने लगता है। लोकतन्त्र में यह स्थिति कभी भी नागरिकों को अपने अधिकार पाने के प्रति प्रेरित नहीं कर सकती जबकि लोग ही लोकतन्त्र के मालिक होते हैं, उनकी निर्भयता ही लोकतन्त्र में उनकी सच्ची सरकार प्रदान करती है। इस कथन की पुष्टि बाद में भारतीय जनसंघ के विचारक पं. दीन दयाल उपाध्याय ने भी करते हुए लिखा कि लोकतन्त्र निःस्वार्थ होता है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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