जननी जने तो भक्तजन… नहीं तो जननी बांझ भली काहे गंवाये नूर

जननी जने तो भक्तजन… नहीं तो जननी बांझ भली काहे गंवाये नूर
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जब मैं अपने कालेज-स्कूल टाइम किसी भाषण प्रतियोगिता या परिचर्चा में जाती थी तो अक्सर यह पंक्तियां बोलती थीं परन्तु उस समय दिल से इसके सही मायने नहीं मालूम थे। आज जब लगभग 20 साल हो रहे हैं। वरिष्ठ नागरिकों का काम करते हुए तो इसके मायने अच्छी तरह से समझ आ रहे हैं। आ क्या रहे हैं लोगों की आपबीती सुन-देखकर अच्छी तरह अनुभव हो रहा है।
अक्सर हम देखते हैं कि घर में बेटा पैदा होता है तो खुशियां मनाई जाती हैं, शगुन किए जाते हैं। मां, बाप, दादी-दादा, नाना-नानी को बधाइयां मिलती हैं। मां खुद गीले में रहकर बेटे को सुखे में सुलाती है। रात-रात जागती है और हर मां-बाप का सपना होता है कि यह उनके बुढ़ापे का सहारा है। आज जितने प्यार से हम उसे पाल रहे हैं बड़े होकर वह हमारा उतना ही ख्याल रखेगा और हमारा नाम आगे बढ़ाएगा, वंश चलेगा।
मगर आजकल जो मैं परिस्थितियां देख रही हूं तो पंक्ति की दूसरी लाइन समझ आती है नहीं तो जननी बांझ भली काहे गंवाये नूर इतने वाक्य, हकीकत मेरे सामने आती हैं कि मैं अपने आंसू भी नहीं रोक पाती। यही नहीं आजकल फोन पर रील चलने का जमाना है। अक्सर कार में बैठकर मैं भी रील देखती जाती हूं। पिछले सप्ताह जो रील मैंने देखी मेरे रौंगटे खड़े हो गए। वो रील रोपड़ की थी कि कैसे एक वकील अपनी पत्नी और बेटे के साथ मिलकर अपनी बूढ़ी मां को बुरी तरह से पीट रहा है। मां भी पढ़ी-लिखी कालेज की प्रोफेसर रह चुकी है परन्तु उम्र के आगे किसी की नहीं चलती। खुशियां मिलें तो 74 साल की उम्र भी 47 की उम्र के बराबर होती है परन्तु कपूत हो तो 74 की उम्र भी आपको 80-90 साल की बुढिय़ा बना देता है।
उस संस्था और उस सरदार जी के आगे मैं नतमस्त हूं जिन्होंने उस महिला को उसके बेटे के अत्याचार से बचाया। वो महिला इतनी डरी और सहमी हुई थी कि सरदार जी का हाथ ही नहीं छोड़ रही थी। यही नहीं एक और रील मेरे सामने आई कि एक बेटा अपनी मां को वृद्ध आश्रम छोडऩे आता है तो उस आश्रम को चलाने वाले उससे पूछते हैं कि तू अपनी मां की सेवा क्यों नहीं कर सकता तो वो बड़ी बेशर्मी से जवाब देता है मेरे घर में मेरी पत्नी बीमार है जो मेरे बगैर एक मिनट नहीं रह सकती तो मैं मां की सेवा नहीं कर सकता। वाह! क्या बात है, जिस मां ने जन्म दिया उसको भूला दिया और उसको आश्रम में छोडऩे आ गया।
मेरा दिल करता है कि ऐसे वकील पुत्र और दूसरे पुत्र जो अपनी मां को वृद्ध आश्रम छोडऩे आया उसे ईश्वर कड़ी से कड़ी सजा दे। रोपड़ के वकील को तो उसकी बार एसोसिएशन ने निकाल दिया (रील के अनुसार) परन्तु मैं अक्सर कहती हूं कि इतिहास हमेशा दोहराता है, सो इसी जन्म में सब हिसाब देना होगा। बेशर्मी की बात कि पत्नी भी टीचर है। कुल मिलाकर पढ़ा-लिखा परिवार है। जब पुलिस उन्हें पकडऩे आई दोनों मियां-बीवी मुंह छुपा कर चल रहे थे। धिक्कार है ऐसे पति-पत्नी और बेटे पर जो अपनी जननी मां पर हाथ उठाए। ऐसे व्यक्ति को तो चौराहे पर खड़े कर सजा मिलनी चाहिए। ऐसी महिला कल को अपने बहू-बेटे से क्या उम्मीद रखेगी। वो क्या सीख रहा है अपने माता-पिता से।अभी तक 20 सालों में काम करते-करते बहुत से पूत-कपूत देख चुकी हूं, पर इस कपूत ने तो सबको पार कर लिया। अक्सर मेरे पास केस आते हैं कि पुत्र अपने मां-बाप की जायदाद के लिए क्या कुछ नहीं कर देते और भूल जाते हैं। हम सब खाली हाथ आए थे, खाली हाथ जाएंगे। किसी ने कुछ साथ लेकर नहीं जाना और जो तुम्हारी किस्मत में है उसे तुमसे कोई छीन नहीं सकता और इतिहास हमेशा दोहराता है, जो बोओगे वो काटोगे।आओ चलें उनके साथ जिन्होंने अंगुली पकड़ कर चलना सिखाया। यह कदमों की धूल नहीं माथे की शान हैं। माता-पिता तुमसे प्यार और सम्मान चाहते हैं। उनके जाने के बाद रोना और उनके बड़े-बड़े किरयाकर्म नहीं चाहते, वो जीते जी आपका समय, आपका प्यार और अपनापन चाहते हैं। जो उनका हक है यह पंक्तियां लिखते हुए भी मेरी आंखों के आंसू थम नहीं रहे..।

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