8 दिसम्बर वही तारीख है जो हिमाचल चुनावों की घोषणा करते हुए परिणाम के लिए तय की गई थी। हिमाचल के चुनाव एक ही चरण में 12 नवम्बर को होंगे मगर परिणाम 8 दिसम्बर को घोषित होंगे। तभी यह संभावना बन गई थी कि आयोग गुजरात चुनावों की घोषणा भी जल्दी करेगा क्योंकि हिमाचल में मतदान व परिणाम के बीच उसने बहुत लम्बा अन्तराल रखा है। आयोग के इस रवैये को लेकर विपक्षी पार्टियों विशेषकर कांग्रेस ने कई सवाल भी खड़े किये और पूछा कि हिमाचल व गुजरात के चुनाव एक साथ ही घोषित न किये जाने के पीछे क्या कारण रहा? राजनैतिक दलों का यह जायज हक है कि वे चुनाव आयोग के फैसलों पर टीका-टिप्पणी करें और सवाल भी पूछें क्योंकि यह एक स्वतन्त्र संवैधानिक संस्था है और इसके कामकाज में किसी भी पार्टी की सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं हो सकता। इसका मुख्य कार्य निर्भीक व निष्पक्ष तरीके से चुनाव कराना होता है और प्रत्येक राजनैतिक दल को एक समान चुनावी माहौल व सुविधाएं प्रदान करने का होता है जिससे मुकाबला बराबरी के वातावरण में हो सके।
किसी भी राजनैतिक दल को यदि इसमें भेदभाव या पक्षपात नजर आता है तो वह चुनाव आयोग से सवाल कर सकता है क्योंकि भारतीय संविधान के अनुसार चुनाव आयोग ही मूलतः देश में राजनैतिक प्रशासनिक व्यवस्था की जमीन तैयार करता है जिसकी वजह से संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर ने इसे लोकतन्त्र का प्रमुख अवलम्ब कहा था। कारण चाहे जो भी रहे हों और विपक्षी दल उनकी व्याख्या अपनी-अपनी सोच के अनुसार कर रहे हों मगर अंतिम सत्य यही है कि गुजरात विधानसभा का कार्यकाल आगामी वर्ष के फरवरी महीने में समाप्त हो रहा है और हिमाचल प्रदेश का जनवरी महीने में। अतः तकनीकी रूप से चुनाव आयोग गुजरात चुनावों की घोषणा हिमाचल चुनाव सारिणी के ऐलान के बाद कर सकता था, हालांकि उसने चुनाव परिणामों की तारीख की घोषणा गुजरात चुनावों को संज्ञान में लेते हुए ही की थी।
राजनैतिक दृष्टि से देखें तो गुजरात चुनाव का महत्व बहुत बड़ा है। 27 वर्षों से यहां भाजपा का लगातार एकछत्र राज चला आ रहा है जिनमें 12 वर्ष तक स्वयं प्रधानमन्त्री भी इस राज्य के मुख्यमन्त्री रहे हैं। इसलिए इस राज्य के चुनाव परिणामों का प्रभाव 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों पर पड़े बिना नहीं रह सकता। राज्य में प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस है और पिछले 2017 के चुनावों में भाजपा व कांग्रेस के बीच जमकर मुकाबला हुआ था जिसमें 182 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा की 99 व कांग्रेस की 77 सीटें आयी थीं। इस बार भी असली मुकाबला इन्हीं दो पार्टियों के बीच रहने की उम्मीद जताई जा रही है मगर इस बार दिल्ली की सत्ता पर काबिज आम आदमी पार्टी भी मैदान में है जिससे चुनाव काफी रोचक हो सकते हैं। ऐसा भी माना जा रहा है कि चुनाव प्रचार में फिलहाल भाजपा व आम आदमी पार्टी ही आगे चल रहे हैं और कांग्रेस पार्टी मध्यम चाल से चल रही है। मगर कुछ चुनावी रणनीतिकार इसे कांग्रेस की नई तरह की नीति के रूप में भी देख रहे हैं, क्योंकि कांग्रेस ने अपना चुनावी प्रचार मुख्य रूप से जमीनी स्तर पर गांवों व ग्रामीण केन्द्रों को बना रखा है। परिणाम चाहे जो भी आयें मगर आम आदमी की उपस्थिति की वजह से इनकी रोचकता जरूर बढ़ गई है।
गुजरात चुनावों का महत्व केवल राष्ट्रीय लोकसभा चुनावों के लिए ही नहीं है बल्कि अगले वर्ष 2023 में होने वाले पांच राज्यों के चुनावों के लिए भी है। पिछले 2017 के चुनावों में इनमें से तीन राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान में कांग्रेस पार्टी विजयी रही थी और शुरू में इसी की इन तीनों राज्यों में सरकारें भी गठित हुई थीं। परन्तु कालान्तर में मध्य प्रदेश में दल बदल की इस्तीफा ‘टेक्नोलोजी’ की वजह से यहां सत्ता पलट गई। वैसे भी गुजरात का भारत की राजनीति में विशिष्ट स्थान रहा है। यह महात्मा गांधी का राज्य है और साथ ही लौह पुरुष सरदार पटेल का राज्य भी है। गांधीवाद औऱ राष्ट्रवाद यहां समानान्तर रूप से चलते रहते हैं। मौजूदा दौर में भी यही घटनाक्रम देख रहे हैं जिसके चलते पिछले 27 साल से भाजपा का शासन चल रहा है। यह बहुत चुनौतीपूर्ण राज्य भी है। चुनावों में ये सभी मुद्दे किसी न किसी रूप में उठने स्वाभाविक हैं। वास्तव में प्रादेशिक चुनाव राज्यों की समस्याओं पर ही लड़े जाने चाहिए मगर व्यावहारिक तौर पर इनमें 70 के दशक से ही हम बदलाव देखते आ रहे हैं। हाल ही में गुजरात के मोरबी शहर में जो झूला पुल टूटने से 135 लोगों की जानें गई हैं उसका सवाल भी हम इन चुनावों में उठते हुए देख सकते हैं। वैसे मोरबी ऐसा शहर है जिसके लोगों की औसत आय पूरे भारत देश मे सर्वाधिक मानी जाती है। यहा सिरेमिक्स उद्योग का बोलबाला है। इनका निर्यात करने में भी यह अग्रणी है। कुल मिला कर गुजरात के चुनाव देश की आने वाली राजनीति के तेवरों के सूचक ही माने जायेंगे।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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