भारत का फिल्म उद्योग इस क्षेत्र में विश्व का सबसे बड़ा उद्योग इसीलिए माना जाता है कि ‘बालीवुड’ में सर्वाधिक हिन्दी फिल्मों का निर्माण होता है। मगर हिन्दी फिल्मों की अन्तर्राष्ट्रीय भूमिका का हमें भारत में बैठे कोई अन्दाजा नहीं होता। हिन्दी या उर्दू फिल्में केवल भारत में ही नहीं चलती बल्कि पूरे मध्य एशिया व अफ्रीकी देशों तक में वहां के नागरिक इन्हें बहुत चाव से देखते हैं। फिल्म कलाकार स्व. राजकपूर व नरगिस से लेकर इन देशों में मिथुन चक्रवर्ती, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र, अनिल कपूर, शाहरुख खान व सलमान खान एवं रानी मुखर्जी व ऐश्वर्य राय जैसी अभिनेत्रियां खासी लोकप्रिय हैं। इनके अलावा और भी बहुत से सिने कलाकार हैं जिनके अभिनय पर दूसरे देशों के नागरिक जान छिड़कते हैं। वास्तव में हिन्दी सिनेमा भारतीय संस्कृति का विदेशों में जिस प्रभावशाली ढंग से प्रतिनिधित्व करता है उसका अन्दाजा हमारे आज के राजनीतिज्ञों को बिल्कुल नहीं है जिसकी वजह से वे विभिन्न फिल्मों को भारत में ही विवादास्पद बना कर वोटों की खेती करना चाहते हैं। इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि सोवियत संघ में स्व. राजकपूर व नरगिस की लोकप्रियता का आलम यह था कि लोग उनकी अपने देश में उपस्थिति से ही रोमांचित हो जाया करते थे। उनकी फिल्मों के गाने सोवियत संघ में किसी रूसी भाषा के गाने से भी अधिक लोकप्रिय हुआ करते थे जिनमें ‘मेरा जूता है जापानी, मेरी पेंट इंग्लिस्तानी, सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल हैं हिन्दोस्तानी’ सबसे अधिक प्रचिलित था परन्तु पिछले दशक में मध्य एशिया व अफ्रीकी देशों में राजकपूर का स्थान मिथुन चक्रवर्ती ने लिया और उनकी फिल्म डिस्को डांसर के गाने बहुत प्रचिलित हुए।
दरअसल सवाल किसी फिल्म अभिनेता के विदेश की धरती पर लोकप्रिय होने का नहीं है बल्कि भारत की उस सांस्कृतिक झलक के प्रति सम्मोहन पैदा होने का है जिसे विदेशी नागरिक इस मुल्क की पहचान समझते हैं और यह पहचान निःसन्देह भारत की मिलीजुली विभिन्न धर्मों की समावेशी संस्कृति है परन्तु जब हम भारत में किसी फिल्म को विवादों के घेरे में डालने का प्रयास करते हैं तो विदेशों में हमारे देश की छवि पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। मध्य एशियाई व अफ्रीकी देशों में अधिसंख्य इस्लाम को मानने वाले मुल्क हैं और इन सभी के तार प्राचीन भारत से लेकर आधुनिक भारत के साथ किसी न किसी सांस्कृतिक या आर्थिक धागे से जुड़े रहे हैं जिसकी वजह से इन देशों में भारतीयों की बहुत इज्जत की जाती है। इसमें हिन्दी फिल्मों की परोक्ष रूप से बहुत बड़ी भूमिका है क्योंकि इन फिल्मों में भारत की मिलीजुली संस्कृति का चित्रांकन जिस हृदय स्पर्शी तरीके से होता रहा है उससे अफ्रीकी व एशियाई देशों के नागरिकों के दिलों में आम भारतीय का सम्मान बढ़ता है, यह सम्मान मानवीय स्तर पर ही नहीं बल्कि इसका असर वहां की सरकारों तक पर भी पड़ता है।
यही वजह है कि इन देशों के साथ चीन अपनी आर्थिक ताकत के बूते पर सम्बन्धों को प्रगाढ़ करने की जो कोशिश कर रहा है वे सिरे नहीं चढ़ पा रही हैं क्योंकि इन देशों के लोगों के बीच चीन की छवि एक मुनाफा कमाने वाले पूंजीपति से अधिक कुछ नहीं है जबकि भारत के प्रति इन देशों के लोगों के दिलों में विश्वास का भाव है। यह विश्वास चीन अफ्रीकी व एशियाई देशों में अरबों डालर का निवेश करने के बावजूद पैदा करने में असमर्थ है तो उसके पीछे कहीं न कहीं भारत की हिन्दी फिल्मों द्वारा फैलाई गई इंसानियत की भावना ही है जिसका सम्बन्ध हम भारत की सांस्कृतिक व आर्थिक धारा से जोड़ कर देख सकते हैं। खास कर मध्य एशियाई इस्लामी देशों में आठवीं सदी से पूर्व बौद्ध धर्म व पारसी धर्म का प्रदुर्भाव रहा है और उस दौरान इन देशों में भारतीय ज्ञान व दर्शन का भी अस्तित्व रहा है। इसका प्रमाण हमें 12वीं शताब्दी के प्रसिद्ध अफगानिस्तानी लेखक विद्वान ‘अलबरूनी’ द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘किताब उल हिन्द’ से मिलता है जिसनें गीता समेत कई धार्मिक पुस्तकों का संस्कृत से अनुवाद किया था। अलबरूनी महमूद गजनवी के साथ लाहौर तक ही आया था।
हिन्दी फिल्में प्रायः भारत के सांस्कृतिक पक्ष के हर पहलू को लेकर अपना कथानक तैयार करती रही हैं जिसकी वजह से न केवल इन देशों में हिन्दी या उर्दू को समझने में यहां के लोगों को सुविधा हुई है बल्कि अपने प्राचीन इतिहास के साथ भारत को जोड़ने में भी सरलता हुई है। यही वजह है कि सहारा रेगिस्तान तक में बसे अफ्रीकी इस्लामी देश ‘मारीतानिया’ तक में हिन्दी फिल्में बड़े चाव से देखी जाती हैं और भारतीयों को देख कर लोग यह गाने से गुरेज नहीं करते कि ‘आपकी सूरत है सुभान अल्लाह’। हिन्दी फिल्मों की इस अजीम ताकत को पहचानने की हमें आज के दौर में सख्त जरूरत है। इन्हें जबर्दस्ती विवादास्पद बना कर हम भारत का ही नुक्सान करते हैं। यह तो वह देश है जहां ‘नजीर बनारसी’ किशन कन्हैया का बालपन सुनाता है और ‘शंकर-शंभू’ हजरत मोहम्मद साहब की शान में ‘नात’ गाते हैं। हिन्दी फिल्में हमारी इसी संस्कृति का मुजाहिरा करती रही हैं और दुनिया के देशों के साथ भारत को शान से जोड़ती रही हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा