स्वतन्त्र भारत में ऐसे कई अवसर आये हैं जब सत्ता और विपक्ष के बीच आर-पार की लड़ाई का समां बन्धा है परन्तु इस युद्ध का परिणाम हमेशा लोकतन्त्र की विजय ही निकला है। यह लोकतन्त्र ही है जो भारत की सबसे बड़ी ताकत आजादी के बाद से बना हुआ है और इसी व्यवस्था के बीच अंग्रेजों द्वारा कंगाल बना कर छोड़े गये भारत ने प्रगति व विकास की छलांग लगा कर दुनिया को चौंकाया भी है।
1965 में हिन्दी के समर्थन में अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन चला था तो पूरे देश में अराजकता जैसी स्थिति पैदा हो गई थी और हिंसक आंदोलनों से देश त्रस्त सा होने लगा था परन्तु बीच में पाकिस्तान से युद्ध होने की वजह से इसमें ठहराव आया और इसके समाप्त होने के बाद पुनः हिन्दी आन्दोलन पूरे देश में फैलने लगा तो तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने इसका हल त्रिभाषा फार्मूले के तौर पर दिया जिसे पूरे देश ने स्वीकार किया। यह लोकतन्त्र की ही ताकत थी कि इसने विवाद का सर्वमान्य हल ढूंढा।
यह रास्ता हमें गांधी बाबा बता कर गये थे कि हिंसा से किसी भी समस्या का हल संभव नहीं है क्योंकि यह प्रतिहिंसा को जन्म देती है परन्तु कालान्तर में हम इस सिद्धान्त को भूल सा गये और क्रिया की प्रतिक्रिया के सिद्धान्त को सच्चाई मानने लगे जबकि इसका सुनिश्चित परिणाम सामाजिक सन्दर्भों में विध्वंस और विनाश ही होता है। लोकतन्त्र मूल रूप से इसका निषेध करता है और सर्वानुमति या सर्वसम्मति की बात करता है। हमने जो संसदीय प्रणाली स्वीकार की है वह केवल बहुमत और अल्पमत की लड़ाई का खेल नहीं है बल्कि बहुमत द्वारा अल्पमत को भी साथ लेने की विधा है जिससे सत्ता समग्रता में जनता की सरकार कहला सके।
इसी वजह से सरकार जो भी विधेयक लाती है उस पर संसद में खुली बहस कराने का प्रावधान है जिससे विधेयक के गुण-दोष पर तर्कपूर्ण चर्चा हो सके। इसका एकमात्र उद्देश्य यही होता है कि विपक्ष में बैठे हुए लोग विधेयक के गुणों को स्वीकार करें और सत्ता पक्ष में बैठे हुए इसके अवगुणों पर ध्यान दें। इसकी एकमात्र वजह यह होती है कि सत्ता और विपक्ष दोनों ही आम जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं और दोनों ही अपने-अपने नजरिये से विधेयक को जनता के हित में मानते हैं।
इसका और ज्यादा तार्किक विश्लेषण कुछ दिनों पहले पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने किया था और सिद्ध किया था कि भारतीय संसदीय प्रणाली में सत्ता पर काबिज लोग बेशक संसद में बहुमत का प्रतिनिधित्व करते हैं परन्तु आम जनता में भी उसका बहुमत हो, ऐसा जरूरी नहीं होता। उन्होंने आंकड़े देकर बताया था कि स्वतन्त्र भारत में केवल एक बार 1952 के चुनावों को छोड़ कर सत्ताधारी दल कभी भी 50 प्रतिशत से अधिक मत नहीं ले पाया है। बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली में व्यक्तिगत बहुमत का विधान होने से उसके सदस्यों की संख्या संसद में बहुमत में जरूर आ सकती है किन्तु जनता के मत पाने के मोर्चे पर वह बहुमत के प्रतिशत को पार नहीं कर पाती है।
भारत पर सबसे लम्बे समय तक राज करने वाली पार्टी औसत 44 प्रतिशत मत पाकर ही पूरे पचास साल तक राज करती रही जबकि विपक्षी दलों को 56 प्रतिशत मत मिलते रहे। हमारी संसदीय प्रणाली में इसी खाई को पाटने के लिए सर्वानुमति या सर्वसम्मति बनाने के अलिखित सिद्धान्त को माना गया और बहुमत की सरकार की नीतियों की समीक्षा करने का कारगर तन्त्र संसद के भीतर स्थापित किया गया। हालांकि दल-बदल कानून के आने के बाद से सर्वानुमति बनाने के प्रयासोंं को जबर्दस्त धक्का लगा है क्योंकि सांसद अब निजी स्वतन्त्र राय रखने की जगह समुच्यगत राय से बन्ध चुके हैं।
इसके बावजूद लोकतन्त्र में वह भावना स्फूर्त है जिसे आधार मान कर हम सर्वानुमति की राह पर चल सकते हैं। संशोधित नागरिकता कानून को लेकर यही पेंच खड़ा हो रहा है। हालांकि राज्यसभा में यह प्रवर समिति को भेजा गया था जिसने अपनी खंडित राय सदन को दी थी परन्तु विधेयक को पारित करने के लिए अन्ततः संख्या बल ही निर्णायक होता है। अतः विधेयक पारित होने में कठिनाई नहीं हुई। अब विपक्षी दल सड़कों पर इसका पुरजोर विरोध कर रहे हैं। इसका उन्हें पूरा अधिकार भी लोकतन्त्र देता है परन्तु संसद की प्रक्रिया में विजयी होकर बाहर आये विधेयक के कानून बनने को वे पलट नहीं सकते हैं।
यह कार्य केवल सर्वोच्च न्यायालय ही उस स्थिति में कर सकता है जबकि कानून संविधान की कसौटी पर खरा न उतरे। ऐसा असम में अवैध नागरिक पहचान कानून (आईएमडीटी) के साथ हो चुका है जिसे 1983 में इन्दिरा सरकार ने संसद में बनाया था मगर 2005 में इसे सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध करार दे दिया था। संयोग से तब विपक्ष में बैठी भाजपा के तीखे और करारे सवालों का जवाब भी रक्षामन्त्री की हैसियत से श्री प्रणव मुखर्जी ने ही दिया था और कहा था कि संसद को इतनी शक्ति संविधान ने दी है कि वह अपने फैसलों को संशोधित कर सकती है।
तब भी मुद्दा अवैध बंगलादेशियों को लेकर ही था और आज भी मुद्दा कमोबेश उन्हें लेकर ही ज्यादा है, हालांकि नये नागरिकता कानून में भारत में आने वाले शरणार्थियों की पहचान धर्म से की गई है। कलह की जड़ यही पहचान है जिसे लेकर इस कानून को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे दी गई है। जो लोग इस मुकदमे को साधारण मान रहे हैं वे भ्रम में हैं क्योंकि इसका सम्बन्ध किसी भारतीय या विदेश से आने वाले व्यक्ति के धर्म से न होकर संविधान में नागरिक बनने की पात्रता की शर्तों से है।
अतः पूरा मामला बेहद कानूनी पेंच से भरा है और पेचीदा भी है इसलिए ऐसे कानूनी विषय को हम सड़कों पर हल करने की कोशिश कर रहे हैं। बेहतर हो कि संयम से काम लेते हुए प्रतीक्षा की जाये क्योंकि भारत की न्यायपालिका ने भी लोकतन्त्र को जयमान बनाया है।