संशोधित नागरिकता कानून के विरोध में उत्तर प्रदेश में हो रहे प्रदर्शनों से इस राज्य की योगी सरकार जिस तरह निपटने का प्रयास कर रही है उसे लोकतन्त्र में नागरिकों को मिले मूल अधिकारों के खिलाफ इसलिए कहा जायेगा क्योंकि लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार लोगों के मतभेद प्रकट करने की प्रक्रिया को सत्ता का भय पैदा करके समाप्त कर देना चाहती है। बेशक किसी भी आन्दोलन या विरोध प्रदर्शन में हिंसा का प्रयोग हर रूप मे अंसवैधानिक और गैरकानूनी है मगर भीड़ में हिंसा फैलाने के आरोप में पुलिस द्वारा की गई निशानदेही के आधार पर उनसे सरकारी सम्पत्ति के नुकसान की तुरत भरपाई मांगना ‘प्रतिशोधात्मक’ कार्रवाई की श्रेणी में रखा जायेगा।
हालांकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में सरकारी सम्पत्ति के नुकसान की भरपाई करने का निर्देश दिया है मगर यह कार्य किसी भी आरोपी के मुजरिम सिद्ध हो जाने पर ही किया जा सकता है और वह भी पूरी न्यायिक प्रक्रिया चलाने के बाद। इसके साथ ही आन्दोलन या प्रदर्शन के चलते राज्य शासन की ओर से पुलिस द्वारा किसी निजी सम्पत्ति को पहुंचे नुकसान की भरपाई करने का सवाल भी खड़ा हो जाता है। उत्तर प्रदेश में बिजनौर में एक व्यक्ति की हत्या जिस तरह पुलिस की गोली से हुई है उसकी भरपाई के लिए पुलिस प्रशासन को नहीं बल्कि स्वयं मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है क्योंकि उनके ही दिशा-निर्देशन में पूरा पुलिस प्रशासन कार्य करता है।
हिंसा का प्रयोग एक तरफ से नहीं बल्कि दोनों तरफ से वर्जित है। जाहिर है कि व्यवस्था बनाये रखने के लिए पुलिस को बल प्रयोग की संवैधानिक छूट होती है परन्तु यह आमने-सामने हिंसक मुकाबला होने की सूरत में ही होती है। इसीलिए जब पुलिस किसी डाकू या आतंकवादी को गोली का शिकार बनाती है तो इसे शौर्यपूर्ण कार्य माना जाता है। श्री योगी गुरु गोरखनाथ मठ के महन्त भी हैं अतः वह जानते होंगे कि 1966 में जब गोहत्या पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग करते संसद को घेर कर प्रदर्शन करती भीड़ पर पुलिस ने गोली चलाई थी और उसमें कई लोग मारे गये थे तो तत्कालीन केन्द्रीय गृहमन्त्री स्व. गुलजारी लाल नन्दा को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था।
गोली नन्दा ने नहीं बल्कि पुलिस ने चलाई थी और दिल्ली की पुलिस गृहमन्त्री के निर्देशन में ही कार्य करती है। सितम यह हुआ है कि उत्तर प्रदेश में अब तक नागरिकता कानून के विरोध में 16 व्यक्तियों की जान चली गई है और प्रशासन आन्दोलनकारियों की भीड़ को ही इसके लिए जिम्मेदार मान रहा है, कर्नाटक के मेंगलूरू में भी इसी तरह हिंसा हुई थी मगर वहां घटना की न्यायिक जांच के आदेश मुख्यमन्त्री बी.एस. येदियुरप्पा ने दे दिये हैं वह भी भाजपा के ही मुख्यमन्त्री हैं यह कार्य उत्तर प्रदेश में क्यों नहीं हो रहा है? लोकतान्त्रिक सरकारें सिर्फ न्याय की बात करती हैं और इसके लिए अपना अस्तित्व तक दांव पर लगा देती हैं। 70 के दशक तक भारत में एेसे एक नहीं कई उदाहरण बने थे।
पुलिस की गोली से किसी चुनी हुई सरकार के शासन में किसी नागरिक की हत्या होने का सीधा मतलब उस राज्य के मुख्यमन्त्री की जिम्मेदारी से होता है, परन्तु तस्वीर का दूसरा पहलू भी है जो कम महत्वपूर्ण नहीं है। यदि किसी आन्दोलन को हिंसक तत्व अपने हाथ में ले लेते हैं तो प्रशासन का कर्त्तव्य बनता है कि वह उस हिंसा को समाप्त करने के लिए यथोचित बल प्रयोग करे। यदि पुलिस के ऊपर ही भीड़ में से गोलियां चलाई जाती हैं तो पुलिस को आत्मरक्षार्थ कार्रवाई करने का अधिकार है क्योंकि लोकतन्त्र में कोई भी व्यक्ति संविधान द्वारा स्थापित शासन को हिंसा की मार्फत चुनौती नहीं दे सकता है।
अतः वाजिब तौर पर पुलिस को सिद्ध करना होगा कि उसे आत्मरक्षार्थ जवाब में भी गोली चलाने के लिए मजबूर होना पड़ा और इसके लिए निष्पक्ष जांच जरूरी है। हालांकि अभी तक पुलिस ने कुल 16 मारे गये लोगों में से एक बिजनौर की घटना में ही स्वीकार किया है कि वहां एक नागरिक की मृत्यु उसके एक जवान की बन्दूक से निकली हुई गोली से हुई मगर हर उस घटना की न्यायिक जांच बहुत आवश्यक है जहां-जहां भी लोगों की मृत्यु गोली लगने से हुई है क्योंकि अधिसंख्य मृतकों के परिवारों ने आरोप लगाया है कि मौत पुलिस की गोली से हुई।ऐसा करना इसलिए भी बहुत जरूरी है कि उत्तर प्रदेश ही एकमात्र एेसा प्रदेश है जहां नागरिकता विरोधी आन्दोलन में सर्वाधिक हिंसा हुई है।
हालांकि यह आंदोलन विभिन्न राज्यों में चल रहा है और राजधानी तो इसका केन्द्र बनी हुई है। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रा का अधिकार संविधान के मौलिक अधिकारों में से एक है और स्वतन्त्र भारत में अभी तक इसका सबसे ज्यादा प्रयोग स्वयं भाजपा ने ही किया है और उसके बाद कम्युनिस्टों का नम्बर आता है। यह अधिकार तब भी था जब दिल्ली के रामलीला मैदान में ही 1971 की ‘भारत-रूस सामरिक सन्धि’ की प्रतियां भाजपा (जनसंघ) ने स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में जलाई थीं और तब भी था जब 1972 में भारत-पाक के बीच हुए ‘शिमला समझौते’ की प्रतियां भी स्व. वाजपेयी के ही नेतृत्व में जलाई गई थीं। यह अधिकार भारत के संविधान ने ही भाजपा को दिया था।
मगर यह भी हकीकत है कि भाजपा के अधिकतम आन्दोलन अहिंसक ही होते थे। बेशक बाद में पुलिस के साथ झड़पें ज्यादा होने लगी थीं किन्तु बात कभी लाठी भांजने या आंसू गैस के गोले छोड़ने अथवा पानी की बौछार करने से आगे नहीं निकलती थी। अतः आज के विपक्ष के आन्दोलन में यदि हिंसा होती है तो इसकी जिम्मेदारी भी उसे लेनी होगी। योगी जी तो एेसे मठ के महन्त हैं जिसके अधिष्ठाता गुरू गोरखनाथ जी महाराज ने मानवता की रक्षा के लिए ही धर्म के तत्व ज्ञान को सर्वत्र फैलाया था अतः यह संयोग नहीं है कि मठ के अनुयायियों में जिन्हें नाथ सम्प्रदाय का कहा जाता है मुस्लिम नागरिक तक शामिल रहे और दलितों और पिछड़ों में तो इसकी पैठ जबर्दस्त रही अतः सवाल आज केवल मानवीय न्याय का है और योगी जी को किसी भी घटना की जांच कराने से पीछे नहीं हटना चाहिए।
सोचने वाली बात यह है कि जब रामपुर में हुई घटना के लिए किसी मजदूर या दैनिक दिहाड़ी करने वाले अथवा दस्तकारी के जरिये रोजी कमाने वाले व्यक्ति को आन्दोलन में नष्ट सरकारी सम्पत्ति की भरपाई का नोटिस शासन की ओर से भेजा जाता है तो न्याय की कलम की स्याही खुद सूखने सी लगती है और जुबां दिल से कहने लगती है कि वाह क्या नादिरशाही हैं ?