जम्मू-कश्मीर में धारा 35-ए को लेकर चल रहे सियासी घमासान के बीच निकाय और पंचायत चुनावों की घोषणा कर दी गई है। काफी पसोपेश के बाद चुनाव कराने का फैसला राज्यपाल सत्यपाल मलिक की अध्यक्षता में हुई राज्य प्रशासनिक परिषद की बैठक में लिया गया। भारत में पंचायत आैर स्थानीय निकाय चुनाव लोगों को अपनी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए राज्य की राजधानी या जिला मुख्यालय गए बिना अपने स्तर पर निर्णय लेने को सक्षम बनाते हैं। स्थानीय निकायों के पास पर्याप्त धनराशि होती है जो लोगों की मूल आवश्यकताओं पर खर्च की जाती है। जम्मू-कश्मीर की दो प्रमुख पार्टियों महबूबा मुफ्ती की पीडीपी और फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कान्फ्रैंस ने पहले ही चुनावों का बहिष्कार करने की घोषणा कर दी है। पीडीपी ने संविधान की धारा 35-ए के मसले को लेकर निकाय चुनावों से किनारा कर लिया है। नेशनल कान्फ्रैंस ने भी कहा है कि जब तक 35-ए को लेकर राज्य के लोगों की शंका का समाधान नहीं होता तब तक वह चुनाव नहीं लड़ेंगे। दोनों ही दलों ने केन्द्र की मोदी सरकार से धारा 35-ए को लेकर अपना रुख स्पष्ट करने को कहा है।
संविधान की धारा 35-ए जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को कुछ विशेषाधिकार देती है, वहीं सुप्रीम कोर्ट में धारा 35-ए की वैधता के चुनौती दी गई है। कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में लम्बित हैं। यह धारा जम्मू-कश्मीर विधानसभा को स्थायी नागरिक की परिभाषा तय करने का अधिकार देती है। इसके तहत जम्मू-कश्मीर के अलावा दूसरे राज्य के नागरिक यहां सम्पत्ति नहीं खरीद सकते, न यहां के नागरिक बन सकते हैं। आम कश्मीरी डरे हुए हैं। उनकी धारणा है कि धारा खत्म हुई तो देशभर से लोग कश्मीर में बस जाएंगे। कांग्रेस की जम्मू-कश्मीर इकाई ने भी अभी स्थानीय निकाय चुनावों को लेकर कोई निर्णय नहीं किया है। विपक्ष भाजपा के खिलाफ एकजुट हो रहा है। ऐसे में चुनाव कराना राज्यपाल के लिए काफी मुश्किल भरा हो सकता है। राज्यपाल ने अपील की है कि सभी राजनीतिक दल चुनाव में भाग लें। उनका कहना है कि चुनाव न तो मेरे लिए हैं और न ही दिल्ली के लिए हैं, चुनाव जम्मू-कश्मीर की जनता के लिए हैं। जहां तक धारा 35-ए का सवाल है जब तक राज्य में सरकार नहीं बनती, हम कोई स्टैंड नहीं ले सकते।
जहां तक घाटी की स्थिति है, यह सही है कि सुरक्षा बलों का ‘ऑपरेेशन आल आउट’ काफी सफलतापूर्वक चल रहा है। सुरक्षा बल लगातार आतंकियों को ढेर कर रहे हैं लेकिन आतंकियों द्वारा बड़ी वारदात करने की आशंकाओं को नकारा नहीं जा सकता। आतंकियों ने खुलेआम धमकी दी है कि लोग चुनाव से दूर रहें। हिज्बुल कमांडर रियाज नायकू ने एक आॅडियो संदेश में धमकी दी थी कि जो भी चुनाव में खड़ा होने की सोच रहे हैं वह नामांकन पत्रों के साथ अपना कफन भी तैयार कर लें। उसने चुनाव लड़ने वालों की आंखों में तेजाब उड़ेलने की धमकी भी दी थी। इन धमकियों के चलते खौफ है। चुनाव के लिए कौन जान को दाव पर लगाने को तैयार होगा। हुर्रियत कांफ्रैंस चुनावों के बायकाट की काल के साथ जुलूस निकाल रही है। भाजपा स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव लड़ेगी आैर कुछ अन्य छोटे दल भी चुनाव लड़ सकते हैं। अगर भाजपा ही अकेले मैदान में रह जाएगी, तब सवाल यह है कि ऐसी स्थिति में चुनाव महज तमाशा ही तो बनकर रह जाएंगे? चुनावों के बहिष्कार के ऐलान से राज्य की उथल-पुथल और राजनीतिक अस्थिरता साफ झलकती है। यह अस्थिरता और मजबूत होती भी दिख रही है। आतंकवाद आम लोगों के बीच गहरी जड़ें जमा चुका है।
घाटी में 2016 में सामने आए लोगों के आक्रोश के बाद मुख्यधारा की राजनीति के लिए जगह ही नहीं बची। भाजपा के साथ सत्तासुख भोगने वाली पीडीपी के लिए तो उसके अपने किले दक्षिण कश्मीर में ही जनता उसके खिलाफ हो चुकी है। हालात यह है कि महबूबा सरकार अनंतनाग की खाली लोकसभा सीट पर चुनाव कराने की हिम्मत नहीं कर सकी थी। पीडीपी को भी हार का डर सता रहा है। नेशनल कांफ्रैंस भी अपना जनाधार खोती जा रही है। पीडीपी आैर नेशनल कांफ्रैंस को दोबारा जनसमर्थन प्राप्त करने के लिए अपनी नीतियों में बदलाव करना होगा। इन पार्टियों के नेताओं का जनता से सम्पर्क खत्म हो चुका है। मुख्यधारा की राजनीति करने वाले नेताओं में से किसी ने भी दक्षिण कश्मीर का कोई दौरा नहीं किया है।
जम्मू-कश्मीर में 7 वर्ष से अधिक समय से निकाय और दो साल से पंचायत चुनाव लम्बित हैं। इस दौरान नेशनल कांफ्रैंस आैर पीडीपी दोनों की सरकारें रहीं। चुनाव नहीं कराए जाने की वजह आतंकवाद आैर कानून व्यवस्था बताई गई परन्तु असल वजह राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी थी। केन्द्र को लगता है कि राज्य के विकास के लिए स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव जरूरी हैं। चुनाव न होने से निचले स्तर पर विकास के पिहये थमे हुए हैं। करीब 4 हजार करोड़ का केन्द्रीय अनुदान रुका है जो पंचायत एवं निकायों को दिया जाना है। 35-ए का जिन्न बार-बार खड़ा हो रहा है और चार माह बाद फिर खड़ा होगा जब सुप्रीम कोर्ट इस पर सुनवाई करेगा। ऐसी स्थिति में जम्मू-कश्मीर में स्थानीय निकाय चुनाव कैसे होंगे, यह प्रश्न अजगर की तरह मुंह बाये खड़ा है।