भारत के मतदाताओं की बुद्धिमत्ता को जब भी किसी ने कम आंकने की कोशिश की है तो उसे निश्चित रूप से मुंह की खानी पड़ी है। इस देश के मतदाताओं के बारे में एक और कहावत बहुत मशहूर है कि इन पर ‘लिखाई-छपाई और मुंह दिखाई’ का कोई असर नहीं पड़ता है। यह उक्ति अक्सर प्रख्यात समाजवादी चिन्तक स्व. डा. राम मनोहर लोहिया अपनी चुनावी सभाओं में कहा करते थे। इससे उनका आशय चुनाव प्रचार के विभिन्न माध्यमों से हुआ करता था। वह लोगों को समझाया करते थे कि जब भी वोट डालो उससे पहले अपनी छाती पर हाथ रखकर सोचो कि किसे वोट देने से क्या बदल सकता है ? उसके बाद जो दिल से आवाज आये उसी के अनुसार वोट डाल आओ। आपका वोट शतप्रतिशत रूप से सही प्रत्याशी और सही पार्टी को जायेगा।
परन्तु उनके इस सिद्धान्त का पालन किसी समाजवादी की बजाय कांग्रेसी ने करके देश की राजनीति की दिशा को ही बदल डाला था। यह कोई और नहीं बल्कि स्व. इंदिरा गांधी थीं जिन्होंने 1969 में तत्कालीन राष्ट्रपति डा. जाकिर हुसैन की मृत्यु के बाद अपनी पार्टी कांग्रेस के आधिकारिक राष्ट्रपति प्रत्याशी स्व. नीलम संजीव रेड्डी के स्थान पर तत्कालीन उपराष्ट्रपति श्री वी.वी. गिरी को अपनी ही पार्टी कांग्रेस के सांसदों व विधायकों से उन्हें ‘अंतरात्मा की आवाज’ पर वोट देने की अपील की। उस समय संसद व विधानसभाओं की संरचना के हिसाब से कांग्रेस के सदस्यों की गिनती को देखते हुए श्री रेड्डी के हारने का सवाल ही पैदा नहीं होता था मगर इसके बावजूद मतदान में श्री गिरी विजयी रहे। हालांकि इस मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी दो भागों में बंट गई मगर अंतरात्मा की आवाज एक नये ‘चुनावी हथियार’ के रूप में सामने आयी इसी का नाम राजनीति है जो समयानुसार अपना रंग, रूप बदलती है और नये भेष में सामने आती है।
इसके साथ ही राजनीति में एक और कमाल होता है कि इसमें ‘शेर’ का शिकार ‘शेर’ से नहीं कराया जाता बल्कि ‘चींटी’ से शेर को मरवा दिया जाता है। इंदिरा जी को इसमें भी महारथ हासिल थी। उन्होंने कांग्रेस के दो टुकड़े हो जाने के बाद विरोधी कांग्रेस पार्टी के महारथी स्व. त्रिभुवन नारायण सिंह के उत्तर प्रदेश का मुख्यमन्त्री बन जाने के बाद उन्हें गोरखपुर जिले की मनीराम विधानसभा क्षेत्र से एक युवा प्रत्याशी राम कृष्ण द्विवेदी के हाथों बुरी तरह पराजित करा दिया था। इतना ही नहीं इसी साल के शुरू में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों में भी इंदिरा कांग्रेस के बेनाम प्रत्याशियों ने बड़े-बड़े उद्योगपतियों से लेकर बड़े-बड़े राजनेताओं तक को चुनावी मैदान में धूल चटा डाली थी। परन्तु उन्हीं इंदिरा गांधी ने जब अपनी कुर्सी बचाने के लिए 1975 में देश में इमरजेंसी लगा दी और 18 महीने बाद चुनाव लड़े तो वह स्वयं चुनाव हार गईं। इंदिरा जी के साथ उस समय देश का पूरा मीडिया था (बेशक उस समय टीवी चैनल नहीं थे)।
अखबारों में कांग्रेस( ई) के इश्तहारों की बहार आयी हुई थी। विपक्षी दलों को कोई उद्योगपति चन्दा तक देने से कतरा रहा था। उस समय के बड़े-बड़े अखबार अपनी रिपोर्टों में कांग्रेस प्रत्याशियों को जीता हुआ दिखा रहे थे और दूसरी तरफ संगठित विपक्षी दलों की नई पार्टी ‘जनता पार्टी’ की जनसभाओं में आम लोगों से चादर खोल कर चुनावी खर्च के लिए नोट इकट्ठे किये जा रहे थे। इन चुनावों मंे इंदिरा जी की पार्टी के प्रत्याशी इमरजेंसी काल मंे आयी अनुशासनप्रियता और गरीबों के लिए शुरू किये गये विभिन्न कार्यक्रमों का ब्यौरा देते घूम रहे थे। कांग्रेस पार्टी की तरफ से इन चुनावों में देशभक्ति की फिल्में बनाने वाले प्रसिद्ध कलाकार मनोज कुमार जनसभाएं कर रहे थे। मगर लोग अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को समाप्त किये जाने को लेकर इतने गुस्से में थे कि उनकी सभा में शाहदरा में अंडे व टमाटर तक फेंके गये। वह उस समय स्व. एच.के.एल.भगत के पक्ष में प्रचार करने आये थे।
मगर इस बीच मीडिया सतर्क हो गया था और उसने अपनी इज्जत बचाने के लिए कांग्रेस विरोधी खबरें छापनी शुरू कर दी थी। इनमें एक अंग्रेजी अखबार अग्रणी था जो लगातार कांग्रेस की पराजय की भविष्यवाणी करने से नहीं घबरा रहा था। मगर इस सबके मूल में वही अंतरात्मा थी जिसका इस्तेमाल किसी और ने नहीं बल्कि इंदिरा गांधी ने ही किया था। उनका अस्त्र उन्हीं पर भारी पड़ रहा था और वह इस देश के लोगों को वोट से अंतरात्मा का सम्बन्ध समझा चुकी थीं। इसका लोगों ने जब पुनः तीन साल बाद ही 1980 में दिल पर हाथ रखकर प्रयोग किया तो फिर से इंदिरा जी को ही गद्दी पर बैठा दिया। इस बार इंदिरा जी की हालत ठीक वैसी थी जैसी 1977 मंे विपक्ष की। उनकी पार्टी के हक में भी चन्दा देने वाले नहीं थे। मीडिया में उनका प्रचार नाम मात्र का था मगर लोगों की अंतरात्मा में कहीं हूक उठ रही थी कि जनता पार्टी ने मुल्क को बर्बाद कर डाला। आश्चर्य की बात यह थी कि इमरजेंसी को अनुशासन पर्व कह कर ‘सरकारी सन्त’ का खिताब पाने वाले आचार्य विनोबा भावे जनता पार्टी सरकार में पूरे देश में गोहत्या पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए आमरण अनशन पर बैठने की धमकी दे रहे थे और उधर पाकिस्तान में फौजी शासन लागू हो चुका था और वहां का फौजी हुक्मरान भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. मोरारजी देसाई को ‘निशाने पाकिस्तान’ के खिताब से नवाजने की तजवीजों पर आगे बढ़ रहा था।
हम हिन्दोस्तानी आज तक यह पता नहीं लगा सके कि मोरारजी भाई ने कौन सी खिदमत की थी जिसकी वजह से उन पर पाकिस्तान इतना मेहरबान हुआ? दरअसल हर चुनाव हमें अपनी अंतरात्मा पर हाथ रख कर ही वोट डालने की हिदायत करता है और अपने मुल्क की अलामत में हमें सिपहसालार बनाता है। देखना केवल यह होता है कि हम उस आवाज को सुनते हैं या नारों व ढोल-नगाड़ों की अावाजों के बीच उसे दबा देते हैं।