भारत के लोकतंत्र में हमारे संविधान निर्माता वह अद्भुत अन्तर्निहित शक्ति का संचार करके गए हैं कि जब लोगों के जनादेश से बनी किसी भी राजनीतिक पार्टी की सरकार अपने कर्त्तव्य से विमुख होकर नींद में सो जाती है तो स्वतंत्र न्यायपालिका उसे झकझोर कर उठा देती है। ऐसा हमने पिछली मनमोहन सरकार के दौरान भी देखा कि जब वित्तीय घोटालों की बहार आई हुई थी तो न्यायपालिका से ही आवाज आई कि सरकार नींद से जागे और 2-जी स्पैक्ट्रम लाइसैंसों को रद्दी की टोकरी में फैंके। वास्तव में लोकतंत्र में न्यायपालिका की भूमिका एक मायने में सर्वोच्च है कि यह किसी भी राजनीतिक दल को संविधान के दायरे से बाहर जाकर अपनी धींगामस्ती करने पर लगाम लगाती है और ताईद करती है कि भारत में सरकार किसी भी राजनीतिक दल की शक्ति के बूते पर कायम तो की जा सकती है मगर च्राजज् संविधान का ही चलेगा। हिंसक गौरक्षकों के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया है वह इसी नजरिये से दिया गया फैसला है क्योंकि कथित गौरक्षक कानून को न केवल अपने हाथों में ले रहे थे बल्कि संविधान का मजाक भी उड़ा रहे थे।
उनकी ऐसा हरकतों पर सरकारें लगाम लगाने में असमर्थता दिखा रही थीं और गौरक्षा की आड़ में उनको संरक्षण भी दे रही थीं जबकि भारत का कानून यह कहता है कि जिन राज्यों में गौवध पर प्रतिबंध है उसे लागू होते हुए देखना केवल सरकारी मशीनरी का काम है। इसके लिए व्यापक पुलिस तंत्र है, मगर इन गौरक्षकों ने खुद को ही कानून लागू करने का खुदाई खिदमतगार घोषित कर दिया और आम लोगों पर जुल्म ढहाने शुरू कर दिए। सवाल किसी मजहब या सम्प्रदाय का बिल्कुल नहीं है बल्कि कानून का है और कानून का पालन करना गौरक्षकों का भी फर्ज है और बूचड़खाने चलाने वालों का भी मगर इस बहाने कुछ लोग साम्प्रदायिक उन्माद पैदा करके सामाजिक समरसता को लगातार तोड़ने की कोशिश कर रहे थे। उनकी इस सीनाजोरी से संदेश जा रहा था कि भाजपा शासित राज्यों में उन्हें सरकार का परोक्ष समर्थन प्राप्त है और वे किसी के भी घर में घुस कर गौमांस का निरीक्षण कर सकते हैं। सबसे पहले यह समझा जाना चाहिए कि गौहत्या निषेध केन्द्र के अधिकार में नहीं आता है बल्कि यह राज्य सरकारों का विषय है और कृषि क्षेत्र में आता है।
कृषि राज्यों का विशिष्ट विषय हमारे संविधान निर्माताओं ने इसीलिए रखा जिससे पृथक-पृथक प्रदेशों की जलवायु के अनुसार वहां के किसानों के विकास के लिए काम किया जा सके। इसमें पशु संरक्षण भी आता है। उत्तर भारत के अधिसंख्य राज्यों में गौवध पर प्रतिबंध 60 के दशक में ही लगा दिया था और तब इन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें ही थीं। बेशक 1966 में अखिल भारतीय स्तर पर गौवध पर प्रतिबन्ध के लिए प्रबल जनांदोलन स्व. प्रभुदत्त ब्रह्मचारी के नेतृत्व में हुआ और इस आन्दोलन ने तत्कालीन गृहमंत्री स्व. गुलजारी लाल नंदा का इस्तीफा भी देखा मगर इसके बाद गौहत्या कभी राजनीतिक मुद्दा नहीं बन सका मगर अफसोसनाक यह है कि इसके नाम पर इंसानों की हत्या करके इसे अमानवीयता का चोला पहनाने में भी कोई हिचक नहीं दिखाई गई। राजनीति में पिछले तीन सालों से जिस तरह गौवंश के नाम पर खुदाई खिदमतगारों ने तूफान मचा रखा है उससे केन्द्र सरकार की छवि भी धूमिल हो रही है, इसी वजह से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इन्हें गुंडे तक कहा था मगर इसके बावजूद इनके हौंसले कम नहीं हुए और ये विभिन्न राज्यों में गौमांस के नाम पर खुद ही लोगों को न केवल सजाएं देने लगे बल्कि उनकी घेर कर आदमखोर तरीके से हत्याएं भी करने लगे।
आखिरकार इनमें इतनी हिम्मत कहां से आयी ? गौरक्षक होना बुरी बात नहीं है क्योंकि भारतीय संस्कृति में गाय का विशेष पूज्य स्थान है मगर उसके नाम पर आदमी की हत्या करना भारतीय संस्कृति में ही अभिशाप है। भारत के इतिहास में गाय की रक्षा के लिए राजाओं ने अपनी रियासतें तक दांव पर लगाई हैं और अपनी जान तक को जोखिम में डाला है मगर किसी दूसरे की जान नहीं ली है। गाय के नाम पर राजनीति की गुंजाइश भारतीय लोकतंत्र में शुरू से ही नहीं रही है क्योंकि गायों को पालने के काम में मुसलमान नागरिक भी उतनी ही संख्या में लगे हुए हैं जितने कि हिन्दू। गाय हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था का अभिन्न हिस्सा इस मशीनी युग में भी बनी हुई है और इसमें मुसलमानों की भागीदारी हिन्दुओं से किसी भी तरह कम नहीं है। हम भूल जाते हैं कि अग्रेजों ने हिन्दू–मुसलमानों को आपस में बांटने के लिए गाय का इस्तेमाल राजनीतिक हथियार के रूप में किया था वरना मुगलकाल में तो मंगलवार के दिन बाजारों में मांस बिकने पर भी प्रतिबन्ध रहता था (औरंगजेब के शासन को छोड़कर ) और जब औरंगजेब ने मजहबी सियासत शुरू की तो उसके बाद मुगलिया सल्तनत का क्या हश्र हुआ यह इतिहास हम सभी जानते हैं।