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स्वतन्त्रता और न्यायपालिका

स्वतन्त्र भारत का इतिहास गवाह है कि आजादी के बाद से देश की स्वतन्त्र न्यायपालिका ने हमेशा ही उस स्वतन्त्रता की रक्षा में अपनी महती भूमिका निभाई है जो भारतीय संविधान में बाबा साहेब अम्बेडकर और आजादी के पुरोधाओं ने इस देश के नागरिकों को उनके मौलिक व संवैधानिक अधिकारों के रूप में दी थी। इस सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री डी.वाई. चन्द्रचूड़ का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि देश की सर्वोच्च अदालत कमजोर से कमजोर नागरिक के हकों की हिफाजत की गारंटी देती है, उसके लिए छोटा-बड़ा कोई नहीं होता। नागरिक स्वतन्त्रता व  मूलभूत अधिकारों के निष्पादन में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जा सकता।  यहां सर्वप्रथम यह विचार किया जाना चाहिए कि भारत के संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका को सरकार का हिस्सा नहीं बनाया और उसे सरकार के फैसलों की न्यायिक समीक्षा करने का अधिकार दिया। यह समीक्षा इस प्रकार की व्यवस्था कायम करती है जिसमें सत्तारूढ़ किसी भी पार्टी की सरकार को अपने कार्यों या फैसलों के लिए न्यायालय के समक्ष जवाब-तलब किया जा सके। न्यायपालिका के सामने जब किसी बड़े से बड़ेे पद पर आसीन व्यक्ति का मुकदमा भी जाता है तो उसे भी वे सारी शर्तें पूरी करनी पड़ती हैं जो किसी साधारण व्यक्ति के मुकदमे में होती हैं। 

हमारे संविधान निर्माताओं ने इतनी खूबसूरती के साथ देश की राजनैतिक शासन प्रणाली को न्यायालय के समक्ष जवाबदेही तय की है कि केवल संविधान का शासन ही हर हालत में काबिज रहे और इसे देखने की जिम्मेदारी न्यायपालिका के हवाले करके यह तय किया गया कि कोई भी राजनैतिक दल अपना राजनैतिक एजेंडा चलाते समय संविधान के प्रावधानों की हद में ही रहें। बेशक इमरजेंसी के 18 महीनों के दौरान न्यायपालिका को भी पंगु कर दिया गया था, मगर इसका कारण भी संविधान में ही मौजूद था क्योंकि संविधान की धाराओं को निकालकर ही इमरजेंसी लागू की गई थी। हालांकि बाद में जनता पार्टी की मोरारजी देसाई सरकार ने संविधान के इन प्रावधानों में ऐसा संशोधन किया कि कोई भी सरकार आन्तरिक इमरजेंसी को लागू न कर सके। भारत की जो चौखम्भा शासन प्रणाली बाबा साहेब ने भारत को दी उसमें न्यायपालिका को वह रुतबा बख्शा कि यह राजनैतिक समीकरणों और सत्ता की उठा-पटक की परवाह किये बगैर अपना कार्य पूरी स्वतन्त्रता और निष्पक्षता के साथ कर सकें और अपने संस्थान को चलाने के लिए इसकी सरकार पर निर्भरता न हो।

अतः स्वतन्त्र भारत में ऐसे कई मौके आये जब संसद द्वारा किये गये फैसलों की परख भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई और उन्हें अवैध तक करार दिया गया। इसकी वजह एक ही थी कि संविधान किसी भी हालत में नागरिकों की निजी स्वतन्त्रता से सम्बन्धित मौलिक अधिकारों पर कोई समझौता नहीं करता है जिनका संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय होता है। अतः भारत में न्यायालयों के फैसलों पर आम जनता का जो दृढ़ विश्वास बना हुआ है उसका मूल कारण यही है और इसी तरह न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ ने कुछ मुकदमों का उदाहरण देते हुए इशारा भी किया। इनमें से एक मुकदमा तो ऐसे व्यक्ति का था जिस पर बिजली तार व खम्भों की चोरी के नौ अलग-अलग मुकदमें चलें। इनमें से प्रत्येक में दो-दो साल की सजा थी। ये सब सजाएं एक साथ चलनी चाहिए थीं मगर निचली अदालतों में इस तकनीकी मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया गया जिसकी वजह से उसकी सजा 18 साल हो गई जबकि एक साथ सजा में यह दो साल ही रहती।

भारत के गतिमान व जीवन्त लोकतन्त्र को सर्वदा सजग बनाये रखने के लिए हमारे पुरखों ने जो संवैधानिक व्यवस्था हमें दी उसमें न्यायपालिका की केन्द्रीय भूमिका है। यह न्यायपालिका ही थी जिसने 12 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. इन्दिरा गांधी के रायबरेली लोकसभा सीट से लड़े गये चुनाव को अवैध करार दे दिया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश स्व. जगमोहन लाल सिन्हा द्वारा दिया गया 12 जून का यह फैसला भारत के लोकतान्त्रिक इतिहास का मील का पत्थर है जो यह बताता है कि भारत का लोकतन्त्र राजनैतिक शुचिता, शुद्धता और पवित्रता के आधार पर ही गतिमान और जीवन्त रह सकता है। इसके साथ ही नैतिकता भारतीय जीवन प्रणाली का एेसा अंग है जो सामाजिक मान्यताओं को अलिखित नियमों के अनुसार ही आचरण पर परखता है। इसकी छाया हमें राजनीति में भी दिखाई पड़ती है जिसकी वजह से समाजवादी चिन्तक व नेता डा. राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि ‘लोकतन्त्र लोकलज्जा’ से चलता है। यह राजनैतिक नैतिकता राजनीति में ‘अराजकता’ के भाव को रोकती है। 

आजकल मतदाताओं को मुफ्त सौगातें खैरात में देने पर जो बहस छिड़ी हुई है उसकी जड़ भी कहीं न कहीं ‘अराजकता’ में ही धंसी हुई है। यह मामला भी सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है। मगर इस बात की भी कम जरूरत नहीं है कि न्यायालय की प्रतिष्ठा को अक्षुण रखने के लिए उन सभी संवैधानिक व्यवस्थाओं का परिपालन पूरी निष्ठा से हो जो न्यायपालिका की स्वतन्त्रता की गारंटी देती हैं। कानून का सम्मान हर स्तर पर न केवल होना चाहिए बल्कि यह होते हुए दिखना भी चाहिए इसमें ‘अगर- मगर’ लगाने से अन्ततः लोकतन्त्र की प्रतिष्ठा पर ही आघात लगता है। क्योंकि लोकतन्त्र और कुछ नहीं केवल जनता का शासन ही होता है जो उस संविधान से चलता है जिसे जनता ने ही स्वीकार किया है। अतः यह बहुत स्वाभाविक है कि जब लोगों के मौलिक या संवैधानिक अधिकारों पर बात आती है तो वे न्यायपालिका की तरफ ही देखते हैं।

आदित्य नारायण चोपड़ा

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