फिर आया स्वतन्त्रता दिवस

फिर आया स्वतन्त्रता दिवस
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आज 15 अगस्त अर्थात स्वतन्त्रता दिवस है। भारत जब अपना स्वतन्त्रता दिवस मनाता है तो एेलान करता है कि इस देश के सभी लोगों को इस दिन अंग्रेजों की दो सौ साल की गुलामी से मुक्ति मिली थी जिसे दिलाने में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की प्रमुख भूमिका थी। महात्मा गांधी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन का नेतृत्व करते हुए स्पष्ट किया था कि आजाद भारत में प्रत्येक व्यक्ति के आत्मसम्मान व गरिमा की रक्षा करने का दायित्व सरकार पर होगा। लोगों को यह अधिकार स्वतन्त्र भारत में इसके संविधान के माध्यम से दिया गया जिसमें प्रत्येक नागरिक के मूल अधिकारों की व्याख्या है परन्तु आजादी का मतलब केवल अंग्रेजों के भारत छोड़कर इंग्लैंड चले जाना नहीं था बल्कि भारत के प्रत्येक समुदाय के स्वतन्त्र होने से था। आजादी के आन्दोलन में इसकी बागडोर अवश्य संभ्रान्त समझे जाने वाले वर्ग के लोगों के हाथों में थी मगर किसानों से लेकर मजदूरों व स्त्रियों तक ने इसमें सक्रिय भाग लेकर अपनी-अपनी अहम भूमिका निभाई थी। किसानों को जमींदारों व जागीरदारों से आजादी चाहिए थी, मजदूरों को पूंजीपतियों के शोषण से आजादी चाहिए थी और स्त्रियों को पितृ सत्तात्मक समाज से आजादी चाहिए थी। सभी वर्गों के लिए आजादी का मतलब अलग-अलग था। अतः भारत के आजाद होने पर इसके प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने इन सभी मोर्चों पर काम किया और आजाद भारत को आगे बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक सोच रखने की लोगों से अपील की। नेहरू ने कृषि मूलक रूढि़वादी भारतीय समाज के आगे बढ़ने के लिए पूरे देश में औद्योगीकरण की नींव डाली और विज्ञान के मोर्चे पर भी भारत को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया। यह काम आसान नहीं था क्योंकि उस समय के समाज की रूढि़वादी बेि​ड़यों को तोड़ना दुष्कर कार्य था। इसीलिए पं. नेहरू ने स्वतन्त्र भारत में लगने वाले नये उद्योगों व सिंचाई के बांधों को भारत के नये मन्दिर कहा और साफ किया कि संविधान में मिली राजनैतिक स्वतन्त्रता की सम्पूर्णता के आर्थिक स्वतन्त्रता बहुत जरूरी है जिसके लिए वैज्ञानिक सोच विकसित करने की परम आवश्यकता होती है।
हम यदि आज के भारत पर नजर डालें तो यह चहुंमुखी विकास की राह पर है, बेशक इसने अर्थव्यवस्था का नेहरू ढांचा छोड़कर बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का ढांचा पकड़ लिया है मगर इस देश के आम लोगों की समस्याओं के अन्त के लिए हमें आज भी नेहरू के समाजवादी माॅडल की जरूरत पड़ती है। वर्तमान सरकार द्वारा जो 81 करोड़ गरीब लोगों को मुफ्त भोजन दिया जा रहा है उसकी जड़ें समाजवादी अर्थव्यवस्था के सिद्धान्तों से जाकर ही जुड़ती हैं लेकिन वर्तमान भारत की समस्याओं का यह एक पहलू भर है दूसरा पक्ष बेरोजगारी का है जिसका सम्बन्ध लगातार घटती सरकारी नौकरियों से जाकर भी जुड़ता है। बेशक केवल सरकारी नौकरियां बेरोजगारी का जवाब नहीं हो सकती हैं मगर इनके साथ किसी भी सरकार का उत्तरदायित्वपूर्ण सम्बन्ध जुड़ा हुआ है जो कि किसी भी लोकतन्त्र का मूल होता है। इस सन्दर्भ में हमें राष्ट्रपिता की वह उक्ति ध्यान रखनी चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था कि जो सरकार लोगों की आधारभूत जरूरतें पूरी न कर सके वह लोकतन्त्र में केवल कुछ अराजकतावादियों का जमघट ही कहलायेगी। सरकार का पहला दायित्व होता है कि वह लोगों की शिक्षा, स्वास्थ्य व भोजन-पानी की जरूरतों को पूरा करे।
वर्तमान भारत में शिक्षा जितनी महंगी होती जा रही है उसने सामान्य वर्ग के लोगों का पसीना बहुत बुरी तरह से निकाल रखा है। इस तरफ हमें स्वतन्त्र भारत के मनीषी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया की बात पर ध्यान देना होगा जो कहा करते थे कि आजाद भारत में अच्छी शिक्षा पाने का अधिकार जितना किसी रईस के बेटे का है उतना ही अधिकार किसी गरीब से गरीब असूचित जाति या जनजाति के बेटे का भी है। जिस प्रकार हमने राजनैतिक आजादी के लिए भारत के प्रत्येक वयस्क नागरिक को एक वोट का अधिकार दिया है जिसमें मजदूर के वोट की कीमत भी किसी उद्योगपति के वोट के बराबर होती है उसी प्रकार हमें शिक्षा का अधिकार भी प्रत्येक नागरिक को देना होगा। इस बारे में संविधान निर्माता डा. भीमराव अम्बेडकर का यह कथन याद रखना होगा कि 'शिक्षित बनो-निडर हो और आगे बढ़ो'। आर्थिक आजादी का सम्बन्ध सीधे तौर पर शिक्षा से जुड़ा हुआ है। बेशक मनमोहन सरकार के दौरान तत्कालीन मानव विकास मन्त्री श्री कपिल सिब्बल ने शिक्षा का अधिकार कानून बनाया था मगर इसका लाभ गरीब वर्ग के लोग इसलिए नहीं उठा पा रहे हैं कि सरकारी स्कूलों की हालत बहुत खस्ता है जिनमें गुणवत्ता की पढ़ाई नहीं होती है जबकि भारत के हर राज्य में निजी स्कूलों की बाढ़ प्राथमिक स्तर से ही आयी हुई है और उच्च शिक्षा के तन्त्र को हमने कार्पोरेट व निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया है। इस विसंगति को दूर करना लोकतन्त्र में सरकार का काम ही होता है। इस 15 अगस्त को जब हम भारत पर नजर दौड़ाते हैं तो हमें हर क्षेत्र में समस्याओं का अम्बार दिखाई देता है।
सबसे बड़ी समस्या लगातार बढ़ रही जो आर्थिक विषमता की है। यदि एक प्रतिशत लोगों के हाथ में देश की 40 प्रतिशत सम्पत्ति है तो हम इसका अन्दाजा आसानी से लगा सकते हैं कि 99 प्रतिशत लोगों की स्थिति क्या होगी और इनमें भी अगर दस प्रतिशत लोग ही 25 हजार रुपए मासिक से ऊपर की आय करते हैं तो भारत के 70 प्रतिशत से अधिक लोगों की आर्थिक स्थिति के बारे में सोचा जा सकता है। आर्थिक विषमता मिटाने के लिए हमें फिर से भारत के संविधान की प्रस्तावना पर लौटना होगा जिसमें यह लिखा हुआ है कि भारत एक समाजवादी धर्मनिरपेक्ष देश है। बेशक ये दोनों शब्द 1976 में ही प्रस्तावना में जोड़े गये थे परन्तु इन्हें जोड़ने का एक विशिष्ट सन्दर्भ है। अतः बहुत स्पष्ट है कि भारत को आगे बढ़ने के लिए अब सामाजिक व आर्थिक मोर्चे पर इस तरह आगे बढ़ना होगा जिसमें अनुसूचित जातियों के आरक्षण पर भी कोई आंच न आये और आर्थिक विषमता भी कम होती चली जाये। मगर यह कार्य भी आसान नहीं है।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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