देश के स्वतन्त्रता दिवस पर हमें यह जरूर आकलन करना चाहिए कि पिछले 70 सालों में हमने आजाद भारत के विकास में कितना सफर तय किया है। हमारा सफर लोकतन्त्र की व्यवस्था के साये में निश्चित रूप से सन्तोषप्रद रहा है क्योंकि इन 70 सालों में भारत का स्थान दुनिया के 20 प्रमुख औद्योगीकृत देशों के बीच लाकर खड़़ा कर दिया है परन्तु गोरखपुर के जीआरडी अस्पताल में जिस तरह सिर्फ आक्सीजन की कमी की वजह से दो दिन में 63 बच्चों को मौत का ग्रास बनना पड़ा उसने इस सफर को फिर से वहीं लाकर पटक दिया है जहां अंग्रेजों ने हमें छोड़ा था। इसकी वजह यह है कि अंग्रेजों के शासन में सरकार आम जनता के प्रति उत्तरदायी न होकर ब्रिटेन की महारानी की ताबेदार हुआ करती थी और भारत का निजाम ब्रिटेन की संसद द्वारा बनाये गये कानून के तहत चलता था लेकिन आज हम खुद मुख्तार हैं और अपनी सरकार खुद अपने एक वोट की ताकत से चुनते हैं।
इस सरकार का पहला दायित्व होता है कि वह सबसे गरीब आदमी की स्थिति सुधारने के लिए सभी उपाय करे। इसके लिए हमने अपने संविधान में सुनिश्चित किया कि भारत का शासन जनकल्याणकारी शासन होगा। स्वास्थ्य, शिक्षा और कृषि व कानून-व्यवस्था जैसे मामलों को हमने राज्य सूचि का विषय बनाया जिससे राज्यों की जनता की स्थानीय जरूरतों के मुताबिक उनके ही द्वारा चुनी गई राज्य सरकारें जरूरी उपाय कर सकें। यह ऐसी कारगर व्यवस्था साबित हुई कि भारत के सभी राज्य भारतीय संघ के ढांचे में स्वयं को समाहित किये रहे और अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार राष्ट्रीय आय स्रोतों में योगदान करते रहे इन सभी की देखभाल की जिम्मेदारी केन्द्र सरकार की रही। दिल्ली में बैठी केन्द्र सरकार अभिभावक की भूमिका में रही। इस भूमिका का निर्वाह केन्द्र सरकार राज्यों में राज्यपालों की मार्फत पूरी निष्पक्षता के साथ करती है।
यह आश्चर्य की बात है कि गोरखपुर के अस्पताल में जघन्य कांड हो जाने के बावजूद यहां के राज्यपाल श्री राम नाइक मौन धारण करके बैठे हुए हैं और उन्होंने अभी तक राज्य सरकार से इस बाबत रिपोर्ट नहीं मांगी है। राज्य सरकार से जवाबतलबी करने का उनको पूरा हक है क्योंकि गोरखपुर में पूरे प्रसासनिक ढांचे को राज्य सरकार ने असफल होते खुद देखा है। लोकतन्त्र में प्रणली कभी भी असफल नहीं होती है बल्कि वे लोग ही इसे असफल करते हैं जो सत्ता में होते हैं। केरल राज्य में राजनैतिक हत्याओं का बाजार गर्म होने की वजह से ही वहां के राज्यपाल ने मुख्यमन्त्री को तलब करके उन्हें सचेत किया था। ऐसा ही कार्य प. बंगाल के राज्यपाल ने भी वहां की मुख्यमन्त्री को साम्प्रदायिक हिंसा के भड़कने पर किया था। दोनों ही जगह चुनी सरकारें थीं। उत्तर प्रदेश में जिस तरह छोटे-छोटे बच्चों की एक सरकारी अस्पताल में कुप्रबन्धन की वजह से दर्जनों बच्चों को मौत के मुंह में जाना पड़ा है उससे यहां के राज्यपाल की संवेदना जागृत न हो ऐसा नहीं माना जा सकता क्योंकि यह कांड पूरी तरह मानवीयता का गला घोट कर किया गया है। लोकतन्त्र का पूरा सिद्धान्त मानवीयता पर ही टिका हुआ है। पूरा राजनैतिक तन्त्र उसी के दायरे में घूमता है। मगर मसला केवल गोरखपुर का ही हो ऐसा नहीं है।
स्वतन्त्रता दिवस पर हमें पूरे देश की स्थिति पर नजर दौड़ानी चाहिए। उस देश के लोगों का इससे बड़ा दुर्भाग्य कोई नहीं हो सकता कि खुद सरकार उन्हें अपना आजादी का दिन मनाने के लिए निर्देश दे। ऐसी स्थिति क्यों आ रही है कि जो कार्य स्वत: स्फूर्त ढंग से पिछले 70 सालों से होता आ रहा है उसे करने के लिए सरकार निर्देश जारी कर रही है। क्या हमारी राष्ट्रभक्ति में कहीं कमी आ गई है या हमारे राष्ट्रप्रेम की परिभाषा बदल गई है। जिस देश की आजादी के लिए उसके आम आदमी ने ही सबसे ज्यादा कुर्बानियां दी हों वह किस तरह इस दिन को भूल सकता है। विचार इस बात पर भी करने की जरूरत है कि ऐसा करके हम क्या खुद पर ही भरोसा उठने का सन्देश तो नहीं दे रहे हैं। जो व्यक्ति अपने आसपास के गली-मुहल्ले में सफाई अभियान चलाये हुए है, उससे बड़ा देशभक्त कौन हो सकता है क्योंकि वह अपने लिए नहीं बल्कि समाज के लिए जीता है।
गांधी ने हमको यही तो सिखाया है कि जो लोग समाज के लिए जीते हैं उनकी राष्ट्रभक्ति को कोई चुनौती नहीं दे सकता। 70 साल बाद भी यदि हम दुविधा में फंसे हुए हैं तो इसका प्रमुख कारण यह है कि हमारी वरीयता राष्ट्र न होकर स्वयं का आभा मंडन हो गया है और इसे हम अन्धी प्रतियोगिता में झोंकना चाहते हैं। 15 अगस्त 1947 को लाल किले पर झंडा फहराने के बाद प. नेहरू ने केवल राष्ट्रगान ‘जन-गण-मन अधिनायक जय हो’ ही नहीं गवाया था बल्कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज का यह कौमी तराना भी गवाया था। ‘कदम-कदम बढ़ाये जा खुशी के गीत गाये जा, ये जिन्दगी है कौम की तू कौम पर लुटाये जा’। इसका मन्तव्य यही था कि आजादी किसी की जागीर नहीं है बल्कि इस मुल्क के लोगों की सामूहिक हिम्मत से हासिल की गई कामयाबी है। इस स्वतन्त्रता दिवस पर हमें महात्मा गांधी से लेकर पं. नेहरू और सरदार पटेल व नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा दिखाये गये उस मार्ग को याद रखने की जरूरत है जिसमें स्वतन्त्र भारत की आस्था गरीबों के उत्थान में निहित हो। यह क्या कोई याद दिलाने वाली बात है कि जब सरदार पटेल मरे तो उनकी कुल जमा सम्पत्ति केवल 259 रुपए थी। आज के नेता यदि यही मार्ग पकड़ लें तो इस देश से गरीबी खुद-ब-खुद समाप्त हो जायेगी मगर यहां तो सब तरफ कुएं में भांग डाल दी गई है।