लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

लोकसभा चुनाव पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

स्वतन्त्र न्यायपालिका का रुतबा

NULL

यह कितना बड़ा विरोधाभास हमारे आज के लोकतन्त्र में पैदा हो रहा है कि सां​ि​वधिक पदों पर बैठे लोगों को ही सर्वोच्च न्यायालय को ताईद करनी पड़ रही है कि वे न्याय के उस पहले सिद्धान्त का पालन करते हुए अपनी जुबान खोलें जिसमें किसी भी विषय के अधिकृत स्वरूप लेने पर ही मत-भिन्नता या वाद-विवाद का संज्ञान लिया जा सकता है। विद्वान न्यायाधीशों ने यह मत ‘पद्मावती’ फिल्म पर उठे बवाल पर व्यक्त किया है। इससे बड़ी विडम्बना कुछ और नहीं हो सकती कि इस फिल्म को सेंसर बोर्ड द्वारा प्रदर्शन के लिए प्रमाणित किये जाने से पहले ही कुछ राज्यों के मुख्यमन्त्रियों ने अपने-अपने राज्यों में प्रतिबन्धित करने की घोषणाएं करनी शुरू कर दीं। इनमें मध्य प्रदेश के खुद को ‘मामा’ कहलाने के शौकीन मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान तो सभी अन्य मुख्यमन्त्रियों को प्रतियोगिता से बाहर करने की दौड़ में इतने तेज भागे कि उन्होंने पद्मावती को ‘राष्ट्रमाता’ की उपाधि दे डाली। उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ का ध्यान पद्मावती ने इस तरह भंग किया कि उन्होंने शोर-शराबा सुनकर ही कह दिया कि ‘मेरे राज्य में फिल्म नहीं चलेगी।’ सर्वोच्च न्यायालय ने एेसे ही धुरंधरों को चेताया है कि वे अपने पद की संवैधानिक गरिमा के दायरे में रहें और जब तक इस फिल्म को प्रदर्शन का प्रमाण देने वाली संस्था ‘सीबीएफसी’ देखकर कोई राय कायम न करे तब तक खुदा के वास्ते चुप रहें।

दरअसल राजनीतिक नेताओं का एेसा उतावलापन केवल यही दिखाता है कि वे दिमागी तौर पर दिवालियेपन के शिकार हो चुके हैं और वोटों की खातिर किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। यह तो इस देश की स्वतन्त्र न्यायपालिका का रुतबा है कि वह उन्हें समय-समय पर सावधान करती रहती है और बताती रहती है कि यह देश केवल संविधान से ही चलेगा और वास्तव में न्यायपालिका का काम मुख्य रूप से यही देखना है जिसकी व्यवस्था हमारे संविधान में की गई है। यह संविधान ही है जो हर प्रकार की कट्टरपंथी ताकतों पर अंकुश लगाये रखता है और घोषणा करता रहता है कि भारत में ‘राज’ किसी व्यक्ति या राजनीतिक पार्टी के नक्शे का नहीं बल्कि ‘कानून’ का होता है। इसी वजह से सरकार द्वारा बनाये गये कानूनों की तसदीक करने का हक सर्वोच्च न्यायालय को हमारे संविधान निर्माताओं ने दिया जिससे किसी भी पार्टी की सरकार अपनी ताकत के बूते पर संविधान के दायरे से बाहर जाने की हिम्मत न कर सके। किसी भी प्रकार की निरंकुशता या अराजकता को एक सिरे से नकारने की ताकत हमारे संविधान में हमारे पुरखे इस तरह भर कर गये हैं कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका अपना कार्य अपने-अपने दायरे में रहकर इस प्रकार करते रहें कि उनका कोई भी कदम संविधान की सीमा को न लांघ न सके। मगर राजनीतिज्ञ अक्सर स्वतन्त्र न्यायपालिका की अहम भूमिका को अंकुश में लाने का परोक्ष प्रयास करते रहे हैं। इस मामले में फिल्म ‘एस दुर्गा’ का एेसा उदाहरण है जिसमें सरकार के सड़कों पर आतंक मचाने वाले किसी समूह की मानसिकता की झलक मिलती है।

केरल उच्च न्यायालय द्वारा इस फिल्म को अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में दिखाये जाने की अनुमति जब सूचना व प्रसारण मन्त्रालय द्वारा इसे प्रदर्शित फिल्मों कीे फेहरिस्त से बाहर करने के खिलाफ दी तो मन्त्रालय ने पुनर्विचार याचिका इस आधार पर डाल दी कि फिल्म के नाम से साम्प्रदायिक भावनाएं भड़क सकती हैं और कानून-व्यवस्था खराब हो सकती है मगर इस याचिका को भी न्यायालय ने निरस्त कर दिया। अतः कानून के राज की गारंटी देना भी न्यायालयों का ही कार्य है। बेशक इसमें विधायिका व न्यायपालिका का टकराव हो सकता है मगर यही भारत को दुनिया का सबसे बड़ा और सार्थक लोकतन्त्र सिद्ध करता है मगर क्या किया जाये जब सरकार में ही बैठे कुछ लोग संविधान की स्पष्ट निर्देशिका को समझने में गफलत पैदा करने की कोशिश करने लगें और यहां तक कहने लगें कि क्या फर्क पड़ता है कि अगर प्रधानमन्त्री को यह अधिकार दे दिया जाये कि वह सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करें? और देखिये क्या बेसिर-पैर का तर्क इसके पीछे रखा गया कि जब प्रधानमन्त्री को देश के परमाणु बम का बटन दबाने का अधिकार दिया जा सकता है तो न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार क्यों नहीं दिया जा सकता? यह भारत के महान लोकतन्त्र को ‘पाकिस्तान’ जैसे अधमरे देश के समकक्ष रखने की धृष्टता के अलावा और कुछ नहीं है। यह दिमागी दिवालियेपन का जीता-जागता सबूत भी है क्योंकि यह बताता है कि जो व्यक्ति इस तरह की दलील दे रहा है उसके लिए संविधान कोई ‘मासिक पत्रिका’ है। स्वतन्त्र न्यायपालिका का अर्थ ही यही है कि उस पर किसी भी सरकार का अंकुश इस तरह नहीं रहेगा कि वह किसी राजनीतिक दल के प्रधानमन्त्री की कृपा की मोहताज हो। भारत में सरकारों का गठन राजनीतिक आधार पर ही होता है और न्यायपालिका पूरी तरह अराजनीतिक रहकर ही स्वतन्त्र भूमिका मंे रह सकती है जबकि परमाणु बम का बटन दबाने का अधिकार प्रधानमन्त्री के पास इसलिए रहेगा कि वही समग्र राष्ट्रीय हितों का संरक्षक होता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह किस राजनीतिक दल का है क्योंकि उसे अपने हर कार्य का जवाब जनता द्वारा राजनीतिक आधार पर ही चुनी गई संसद में देना पड़ेगा। अभी 26 नवम्बर गुजरा है जो संविधान दिवस के रूप में मनाया गया क्योंकि इसी दिन 1949 को बाबा साहेब अम्बेडकर ने यह अनूठा ‘दुनिया का सबसे बड़ा लिखा हुआ कानूनी दस्तावेज’ देश को दिया था।

दुर्भाग्य यह है कि न्यायपालिका के बारे में एेसा सिरफिरा प्रस्ताव किसी और ने नहीं बल्कि देश के कानून मन्त्री रविशंकर प्रसाद ने इसी दिन दिया था। बाबा साहेब का अपमान इससे बड़ा शायद ही कोई और कर सके क्योंकि यह उन्हीं की मेहनत का नतीजा था कि संविधान में न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के कार्यक्षेत्र तय करके सुनिश्चित किया गया था कि इनसे छेड़छाड़ का मतलब होगा लोकतन्त्र की इमारत को खोखला करना मगर संविधान को अपनी राह में रोड़ा मानने वालों की मुसीबत यह रही है कि वे अपनी मनमर्जी के मुताबिक पूरी व्यवस्था का उपयोग अपने राजनीतिक हितों के लिए नहीं कर पाते। अतः यह बेवजह नहीं था कि जब श्री अटल बिहारी वाजपेयी के सत्ता में रहते संविधान समीक्षा का अभियान चलाया गया था तो तत्कालीन राष्ट्रपति श्री के.आर. नारायणन ने लगभग डांट पिलाते हुए कहा था कि पहले यह सोचिये कि संविधान ने हमें असफल किया है या हमने संविधान को असफल करने में सारी ताकत लगा दी है, तब जाकर संविधान को बदलने वालों की अक्ल दुरुस्त हुई थी। यह बाबा साहेब का ही दम था कि उन्होंने भारत को बहुजातीय वर्गों व विविध संस्कृतियों का महासंगम जानकर संविधान की रचना की थी। अतः न्यायपालिका हमेशा अंधेरे में रोशनी दिखाने का काम करती रहेगी। बेशक कुछ व्यक्तिपरक मुश्किलें इसकी राह में आ रही हैं जिनकी तरफ स्वयं न्यायपालिका को ही सख्ती से पेश आना होगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

four + 9 =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।