अमेरिका की उपराष्ट्रपति श्रीमती कमला हैरिस ने प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी से टेलीफोन पर बात करके भारत को वैक्सीन भेजने की जिस तरह पेशकश की है उससे दोनों देशों के बीच की मैत्री का अंदाजा लगाया जा सकता है। अभी हाल ही में विदेश मंत्री श्री एस. जयशंकर वाशिंगटन की यात्रा पर थे और उन्होंने वहां के अपने समकक्ष नेताओं व अन्य उच्च पदाधिकारियों से बात करके भारत में वैक्सीन भेजने की दर्ख्वास्त की थी। कमला हैरिस की सदाशयता बताती है कि अमेरिका भारत की चिन्ताओं से वाकिफ है और वह उसकी इस कोरोना संकट के समय मदद करना चाहती है। इससे पूर्व अमेरिका के राष्ट्रपति श्री जो बाइडेन ने घोषणा की थी कि अमेरिका जरूरतमन्द व गरीब मुल्कों को अपनी अतिरिक्त वैक्सीनें देने के बारे में विचार कर रहा है। फिलहाल उसके पास कुल आठ करोड़ वैक्सीनें हैं जिन्हें विश्व के उन देशों में तकसीम करना चाहता है जिन्हें इनकी वाकई में जरूरत है। इनमें से 75 प्रतिशत वैक्सीनें अमेरिका के कोवेक्स मदद कार्य क्रम के तहत बांटी जायेंगी। 60 लाख वैक्सीनें लेटिन अमेरिकी व कैरिबियाई देशों को दी जायेगी। 70 लाख वैक्सीनें दक्षिण व दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों को दी जायेंगी तथा 50 लाख अफ्रीकी देशों को दी जायेगी और शेष 60 लाख वैक्सीनें एेसे देशों को भेजी जायेगी जहां कोरोना संक्रमण तेजी से फैला है। इनमें अमेरिका के पड़ोसी देश कनाडा के अलावा मैक्सिको, भारत व कोरिया शामिल हैं। अतः अमेरिका ने भारत को 25 लाख वैक्सीनों की पहली खेप भेजने का फैसला िकया जिसकी जानकारी श्रीमती हैरिस ने प्रधानमन्त्री को दी। इनमें फाइजर, जानसन एंड जानसन व मोडर्ना वैक्सीनें शामिल होंगी। अभी प्रश्न यह नहीं है कि अमेरिका कितनी तादाद में वैक्सीनें भेज रहा है बल्कि असली सवाल यह है कि वह भारत की मदद के लिए आगे आया है। हालांकि पिछले दो दशकों से ही भारत-अमेरिका के सम्बन्धों में सकारात्मक बदलाव आना शुरू हुआ है परन्तु साठ के दशक में भी अमेरिका ने भारत को अनाज देकर मदद की थी।
यह प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी के निजी प्रयास भी हैं कि अमेरिका के साथ भारत के सम्बन्ध मधुरता की नई ऊंचाई तक पहुंचे हैं। परन्तु हमें वस्तुपरक होकर भी सोचना होगा। भारत ने कोरोना महामारी के चलते विश्व व्यापार संगठन में अरदास की हुई है कि वह इस बीमारी की वैक्सीनें बनाने के लिए अपने पेटेंट कानूनों में संशोधन करे। इस अरदास में उसके साथ ब्राजील भी पूरी ताकत के साथ है और अन्य देश भी हैं। महामारी की विकरालता को देखते हुए विश्व व्यापार संगठन का भी यह कर्तव्य हो जाता है कि वह इस मुद्दे पर मानवतावादी रुख अपनाते हुए निर्णय ले। भारत का रुतबा आज पूरे विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय फार्मेसी का बन चुका है। यहां के दवा उद्योग ने अपनी कामयाबी के झंडे इस तरह गाड़े हैं कि सबसे पहले कोरोना वैक्सीन तैयार करने का सेहरा भी इसके सिर बंधा। बेशक पुणे के सीरम संस्थान ने ब्रिटेन की आक्सफोर्ड कम्पनी से लाइसेंस लेकर ही कोविशील्ड वैक्सीनों का उत्पादन किया परन्तु किया तो दुनिया में सबसे पहले। इसी प्रकार विशुद्ध घरेलू कम्पनी भारत बायोटेक ने अपनी तकनीक विकसित करके कोवैक्सीन टीके का उत्पादन सबसे जल्दी किया। अतः विश्व व्यापार संगठन को भारत के चिकित्सा वैज्ञानिकों और दवा कम्पनियों की क्षमता पर भरोसा होना चाहिए और इसके साथ यह भी सोचना चाहिए कि भारत पूरी दुनिया के गरीब मुल्कों को सस्ते से सस्ते दाम पर दवाएँ उपलब्ध कराने वाला नम्बर एक देश है।
हालांकि अमेरिका ने अपने लोगों को कोविशील्ड वैक्सीन नहीं लगाई है मगर इसे बनाने वाली मूल कम्पनी के उत्पादन संयन्त्र इस देश में हैं। अमेरिका ने पहले कोरोना वैक्सीनों की आपूर्ति वरीयता के आधार पर अपने लोगों के लिए करने हेतु जो कानून बनाये थे, उन्हें भी वह अब ढीला कर रहा है जिससे कोरोना वैक्सीनें दुनिया के दूसरे जरूरतमन्द लोगों को जल्दी से जल्दी से मिल सकें और इनके उत्पादन में रत कम्पनियां सप्लाई करने के बारे में स्वयं ही फैसला कर सकें। जाहिर है इन सबके पीछे भारत के प्रयास भी हैं। भारत को रूस भी अपनी स्पूतनिक वैक्सीन सप्लाई कर रहा है। इस प्रकार रूस व अमेरिका दोनों ही उसकी मदद को तैयार हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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