लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

लोकसभा चुनाव पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

ऑस्कर में भारत

NULL

हापुड़ की लड़कियों पर फिल्माई गई फिल्म ‘पीरियडः द एण्ड आफ सेंटेंस’ को प्रतिष्ठित ऑस्कर अवार्ड में बैस्ट डॉक्यूमेंट्री अवार्ड मिला है। ​फिल्म में पीरियड को लेकर भारतीय समाज में बनी अलग-अलग धारणाओं और महिलाओं को लेकर शर्म को बखूबी दिखाया गया है। पीरियड जैसे विषय पर बात करना तो दूर लोग कई बार इसका नाम लेने से भी झिझकते हैं। यह अच्छी बात है कि हाल ही के वर्षों में ऐसे विषयों पर फिल्में बनी हैं, जो अब तक अछूते रहे हैं। फिल्म स्टार अक्षय कुमार ने भी इस विषय पर ‘पैडमैन’ फिल्म बनाई थी।

पीरियडः द एण्ड ऑफ सेंटेंस 25 मिनट की डाक्यूमेंट्री को बनाने में कैलिफोर्निया के ऑकवुड स्कूल की 12 छात्राओं और स्कूल की इंग्लिश टीचर मेलिसा बर्टन का महत्वपूर्ण योगदान रहा। फिल्म की एग्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर गुनीत मोंगा हैं। फिल्म का निर्देशन रायका जहताबची ने किया है। इस फिल्म को बनाने का किस्सा काफी दिलचस्प है। ऑकवुड स्कूल की छात्राओं को भारत के गांव में पीरियड को लेकर शर्म और हाईजीन का ज्ञान नहीं होने का पता चला। स्कूली बच्चों ने एनजीओ से सम्पर्क किया। फंड इकट्ठा करके गांव की लड़कियों के लिये एक सेनेटरी बनाने वाली मशीन डोनेट की। फिर गांव में जागरूकता लाने के लिये डाक्यूमेंट्री की शूटिंग की योजना बनाई।

फिल्म में कुछ सवाल भी उठाये गये हैं जैसे महिलाओं को दुर्गा या देवी मां कहते हैं तो फिर मन्दिर में औरतों के जाने की मनाही क्यों है। फिल्म के कई दृश्य काफी खास हैं। डाक्यूमेंट्री को देखने की एक वजह यह भी है कि इसे ऑस्कर अवार्ड मिला है वहीं दूसरी वजह फिल्म के जरिए दिया गया विशेष संदेश है, जो बताता है कि पीरियड बीमारी नहीं है। इसका नाम लेने से पहले दो बार रुकने की जरूरत नहीं। महिलाओं में रोजगार और शिक्षा के मायनों को समझने के लिये इसे देखना जरूरी है। डाक्यूमेंट्री फिल्में वही बेहतरीन होती हैं जो अपना मैसेज समाज तक सशक्त ढंग से पहुंचा सकें। इस फिल्म ने अपना मैसेज बेहतरीन ढंग से दिया है।

अक्सर भारत से नामित फिल्में ऑस्कर अवार्ड में पहुंच कर शुरूआती दौर में ही बाहर हो जाती हैं। यह किसी के लिये हैरानी की बात नहीं। 1957 से लेकर अब तक हम लगातार भारतीय फिल्मों को बैस्ट फारेन लैंग्वेज फिल्म नाम की श्रेणी के लिये भेजते रहे हैं। केवल तीन बार हमारी फिल्में आस्कर पुरस्कार के आखिरी पांच नामित दावेदारों में जगह बना पाई हैं। उनमें 1957 में मदर इंडिया, 1988 में सलाम बाम्बे और 2001 में लगान। इस श्रेणी में जीत हमें आज तक नहीं मिली है। केवल गांधी (1982) और स्लमडॉग मिलिनेयर (2008) जैसी कुछ विदेशी फिल्मों के लिये भानु अथैय्या, गुलजार, एआर रहमान और रसूल पुकुट्टी जैसी भारतीय शख्सियतों को व्यक्तिगत आस्कर से नवाजा गया। महान फिल्मकार सत्यजीत रे को 1992 में लाइफटाईम अचीवमेंट आस्कर दिया गया ​था।

यह सवाल बार-बार उठता रहा है कि आखिर हमारी बेहतरीन फिल्में आस्कर अवार्ड जीतने में नाकाम क्यों रहती हैं? फिल्मों को नामित करने वाली फैडरेशन ऑफ इंडिया की भीतर की राजनीति को भी इसके लिये जिम्मेदार माना जाता है। आरोप लगाया जाता रहा है कि फैडरेशन फिल्मों का चयन ही गलत करती है या फिर चयन में इतनी देर कर दी जाती है कि कोई तैयारी ही नहीं हो पाती। कई बार हमने अच्छी फिल्मों को छोड़ कर दूसरी फिल्में नामित कर अपना मजाक उड़वाया है। किसी विदेशी फिल्म की सीधी नकल करके बनाई गई ​फिल्म ‘बर्फी’ को भेजने का कोई औचित्य ही नहीं ​था। फिल्म एकलव्यः द रॉयल गार्ड को भेज कर मजाक उड़वाया गया।

आमिर खान और आशुतोष गोवारिकर ने लगान की ऑस्कर पब्लिसिटी के लिये 9 करोड़ से अधिक धन खर्च किया था। धन से पैदा हुए आत्मविश्वास के चलते ही लगान को कई ज्यूरी सदस्यों तक पहुंचाया गया और यह पीरियड फिल्म अंतिम पांच में जगह बनाने में सफल रही थी। यह भी सही है कि ऑस्कर के लिये प्रतिस्पर्धा बहुत कड़ी है और चयन की प्रक्रिया भी काफी कठिन है लेकिन ऑस्कर न जीत पाने की मुख्य वजह यह भी है कि हम विश्व सिनेमा के स्तर की फिल्में बनाते ही नहीं।

शिल्प से लेकर कहानियां तक हम दूसरों से लेते हैं। हमारी कहानियां मौलिक नहीं होतीं। केवल हम उन्हें भारतीयता में ढाल कर पेश कर देते हैं। सिनेमा नये-नये विचारों काे एक्सप्लोर करता है। हमारा सिनेमा आज भी कहीं न कही कूपमंडूकता में उलझा हुआ है। इन सब परिस्थितियों में गुनीत मोंगा की फिल्म काे ऑस्कर मिलना एक उपलब्धि है। यह पुरस्कार भारतीयों को अच्छी फिल्में बनाने के लिये प्रेरित ही करेगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

ten − 3 =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।