पेरिस ओलंपिक में भारत

पेरिस ओलंपिक में भारत
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खेलों का वैश्वि​क महाकुंभ पेरिस ओलंपिक का समापन हो चुका है। भारतीय दल एक रजत पदक समेत कुल 6 पदक जीतकर लौट आया है। ओलंपिक में भारत ने इस बार दूसरा सबसे बड़ा दल या​नि 117 खिलाडि़यों का दल भेजा था लेकिन भारत पदक तालिका में 73वें पायदान पर रहा। खेल प्रेमी एक बार फिर यह सोचने को विवश हैं कि भारत सरकार ने 470 करोड़ रुपए के लगभग खर्च कर दिए लेकिन भारत का प्रदर्शन रियो ओलंपिक से भी खराब रहा। 2016 रियो ओलंपिक में भारत 67वें स्थान पर रहा था। भारत ने ओलंपिक में सबसे ज्यादा पदक फील्ड हॉकी में जीते हैं। इस खेल से देश को आठ स्वर्ण, एक रजत और चार कांस्य समेत 13 पदक मिले हैं। इसके बाद भारत को ओलंपिक में सबसे ज्यादा आठ पदक कुश्ती में मिले हैं। एथलेटिक्स यानी ट्रैक एंड फील्ड में चार पदक, शूटिंग में सात पदक, बैडमिंटन में तीन पदक, भारोत्तोलन में दो पदक, मुक्केबाजी में तीन पदक और टेनिस में एक पदक मिला है। 2024 पेरिस ओलंपिक में भारत ने हॉकी, एथलेटिक्स, शूटिंग और कुश्ती में तो पदक जीते, लेकिन बैडमिंटन, भारोत्तोलन, मुक्केबाजी और टेनिस में भारत को कोई पदक नहीं मिले। 117 सदस्यीय दल में महज 6 पदक पाना आदर्श नहीं है। पेरिस ओलंपिक मनु भाकर की उपलब्धियों से लेकर ​विनेश फोगाट के विवाद के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा।

भाला फैंक सुपर स्टार नीरज चोपड़ा का रजत पदक उम्मीदों से कमतर रहा। भारत की झोली में कुछ और पदक आ सकते थे लेकिन 6 खिलाड़ी चौ​थे स्थान पर रहे। बैडमिंटन खिलाड़ी लक्ष्यसेन कांस्य पदक के ​िलए मैच हार गए थे जबकि मीराबाई चानू सिर्फ एक किलोग्राम से कांस्य पदक लाने से चूक गई। सा​त्विक साईं राज और चिराग शेट्टी खाली हाथ घर लौटे। कोई भी मुक्केबाज पदक दौर में नहीं पहुंच सका। केवल अमन सहरावत ने ही कुश्ती के अभियान को बचाया। हॉकी में हमने कांस्य पदक जरूर जीता लेकिन हम कांस्य का रंग नहीं बदल पाए। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय खिलाडि़यों ने अपने खेल से दिल तो जीता ले​किन हम पदक जीतने में नाकाम रहे। अगर ओलंपिक इतिहास की बात करें तो मेजर ध्यानचंद की हॉकी ने भारतीय पदकों की झोली स्वर्ण से भरी, मिल्खा सिंह और पीटी ऊषा ने दिल जीता, लिएंडर पेस और कर्णम मल्लेश्वरी ने पदक जीतना सिखाया, अभिनव बिंद्रा और नीरज ने अन्य खेलों में भी स्वर्णिम चमक दिखाई लेकिन हम चीन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान, ग्रेट ब्रिटेन, जर्मनी जैसे विकसित देश तो छोड़ो, छोटे से देश उज्बेकिस्तान, युद्ध में जूझते यूक्रेन और गरीबी से परेशान अफ्रीकी देश केन्या तक से इस मामले में कमतर हैं। ऐसा नहीं है कि केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने कोई कसर छोड़ रखी है। केंद्र सरकार जहां तैयारियों पर करोड़ों खर्च कर रही है तो अधिकतर राज्यों ने पदक जीतने की स्थिति में करोड़ रुपये की इनामी राशि के अलावा जमीन और सरकारी नौकरी देने का प्रावधान कर रखा है। कॉमनवेल्थ गेम्स और एशियन गेम्स में पदक जीतने पर भी सम्मान और बड़ी राशि मिलती है।

पांच एथलीट तो ऐसे थे जिनकी तैयारियों पर 20 करोड़ खर्च किए गए थे। बैडमिंटन खिलाडि़यों ने तो 81 विदेश यात्राएं की। यह गर्व की बात है कि पदक विजेताओं में इस बार हरियाणा ने बाजी मार ली है। आखिर क्या कारण है कि ओलंपिक प्रतियोगिता में भारत सबसे कम सफल (प्रति व्यक्ति) देश है। क्या हमारी खेल नी​तियां सही नहीं या समाज और परिवार अपने बच्चों को खिलाड़ी बनाने के लिए तैयार नहीं है। क्या हम इतनी बड़ी जनसंख्या वाले देश में प्रतिभाएं ढूंढने में विफल रहे। सबसे बड़ा कारण यह भी है कि हमारे यहां माता-पिता को खेलों में भ​विष्य दिखाई नहीं देता। हाई स्कूलों में खेल कक्षाएं नाम मात्र की ही लगती हैं। लोगों को टीवी चैनलों पर क्रिकेट का तमाशा देखना ही पसंद है। क्रिकेट के ड्राइव पर सबका ​दिमाग लगा रहता है। फुटबाल, हॉकी और अन्य परंपरागत खेलों पर अभिभावकों का कोई ध्यान नहीं है। 77 सालों में हम कहीं न कहीं चुनावों की तैयारियों में ही व्यस्त रहते हैं। खेलों की तैयारियों की तरफ हम ज्यादा ध्यान नहीं देते। विदेश में बचपन से ही ​खिलाड़ियों को निखारा जाता है। हमारे यहां तो भाग्य बहुत बड़ी भूमिका निभाता है।

कई बार मीडिया राज्य स्तर के खिला​ड़ियों के फटेहाल दिखाता है ​जिससे अधिकांश युवा हतोत्सा​हित हो जाते हैं। हमारे खिलाडि़यों का दोष नहीं। दोष व्यवस्था का है। कई खिलाड़ी उम्मीदों के बोझ भी नहीं सह पाते। हम लोगों में किलर इस्टिक्ट बहुत कम है। खिलाड़ी यह सोचकर संतोष कर लेते हैं कि चलो कांस्य ही आ गया स्टार तो मैं बन ही गया। हमारे पास पदक कोई राजा, कोई नेता या जनप्रतिनिधि नहीं ला कर देता। बल्कि यह काम देश के युवाओं का होता है। काफी हद तक हमारी मानसिकता की भी समस्या है। हम चाहते हैं कि हमारा बच्चा डाक्टर, इंजीनियर बने और पैसे बनाने की मशीन बन जाए। यह समय जीतने वाले खिलाड़ियों का सम्मान करने का भी है और साथ ही विश्लेषण करने का भी है कि भविष्य में अपना प्रदर्शन कैसे सुधारे। खेल मंत्रालय का खेलो इंडिया अभियान तब तक कोई परिणाम नहीं दिखा सकता जब तक यह अभियान प्राइमरी शिक्षा से ही शुरू किया जाए और बच्चों में खिलाड़ी बनने की भावना पैदा की जाए।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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