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रूस-चीन-पाक त्रिकोण में भारत

अफगानिस्तान को लेकर ‘रूस-चीन-पाकिस्तान’ का जो त्रिकोणात्मक सहयोगी गुट बन रहा है उससे कूटनीतिक स्तर पर भारत के समक्ष भविष्य में ‘असहज’ माहौल बन सकता है

अफगानिस्तान को लेकर ‘रूस-चीन-पाकिस्तान’ का जो त्रिकोणात्मक सहयोगी गुट बन रहा है उससे कूटनीतिक स्तर पर भारत के समक्ष भविष्य में ‘असहज’ माहौल बन सकता है जिसका तोड़ ढूंढ़ने के प्रयास अभी से शुरू हो जाने चाहिएं और इस ‘क्षेत्र’ में भारत की भूमिका का निर्धारण अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर रूस व चीन के साथ संबंधों को देखते हुए प्रभावकारी ढंग से होना चाहिए। एशियाई व द. एशियाई क्षेत्र से लेकर भारतीय उपमहाद्वीप की वृहद सुरक्षा का इससे पहले जब भी सवाल उठा है तो ‘भारत-रूस-चीन’ के सुरक्षा कवच का जिक्र हुआ है। परन्तु अफगानिस्तान की ताजा स्थिति ने इस समीकरण को इस तरह बदला है कि भारत की जगह पाकिस्तान आ गया है। यही चिन्ता की सबसे बड़ी बात है जिससे भारतीय उपमहाद्वीप में भारत की निर्विवाद शिखर स्थिति प्रभावित हो रही है। इसकी असली वजह अफगानिस्तान के तालिबान हैं जिनके हाथों में अमेरिका वहां का प्रशासन सौंप कर वापस जा रहा है। कुछ कूटनीति विशेषज्ञों का मानना है कि विगत वर्ष अमेरिका और तालिबान के बीच कतर के दोहा में समझौता हो जाने के बाद भारत को तालिबान नेताओं के साथ बातचीत का रास्ता खोल देना चाहिए था जिससे अमेरिका  वापस जाने के बाद तालिबान पर भारत का प्रभाव रहे।
इस सन्दर्भ में हमें ध्यान रखना चाहिए कि रूस ने भी अफगानिस्तान में 1980 से लेकर 1989 तक अपनी सेना की मदद से मन माफिक शासन स्थापित करने की कोशिश की थी मगर वह असफल रहा था और उसे अफगानिस्तान छोड़ना पड़ा था। इसी समय रूस में ‘गोर्वाचोव’ के नेतृत्व में सोवियत संघ के विघटन की प्रक्रिया शुरू हुई थी। उस समय सोवियत संघ का विरोध ‘मुजाहिदीन’ कर रहे थे जिन्हें अमेरिका का पूरा समर्थन प्राप्त था । इन्हीं मुजाहिदीनों का बाद में नाम बदल कर ‘तालिबान’ पड़ा और इन्हीं में से ‘ओसामा बिन लादेन’ भी निकला  और उसका आतंकवादी संगठन ‘अल कायदा’ भी निकला जिसने सीधे अमेरिका को ही निशाने पर तब लिया जब अफगानिस्तान में सोवियत संघ के जाने के बाद तालिबान की तास्सुबी जेहादी व आतंकी कार्रवाइयों ने पूरी दुनिया का ध्यान खींचना शुरू किया और 1996 में इन्होंने अपनी ही सरकार गठित कर ली। यह सरकार 2001 तक नाजायज तौर पर उस हालत में चलती रही जबकि इसे सिवाये पाकिस्तान के किसी दूसरे देश ने मान्यता देना उचित नहीं समझा।
 2001 में अलकायदा ने न्यूयार्क में वर्ल्ड टावर पर हमला किया और उसके बाद अमेरिका ने पाकिस्तान को अपना सहयोगी बनाते हुए नाटो देशों की फौजों के साथ काबुल में प्रवेश किया। अमेरिका ने आतंकवाद खत्म करने के नाम पर पाकिस्तान को नाटो संगठन में पर्यवेक्षक का दर्जा देकर तय किया कि वह अफगानिस्तान में आतंक का शासन समाप्त करने के लिए पाकिस्तान को अपने साथ रखना जरूरी मानता है। मगर इसके बाद जो हुआ वह भी कम विस्मयकारी नहीं हैं। पाकिस्तान मंे सोवियत हमले के बाद जो अफगानी शरणार्थी क्वेटा से लेकर पेशावर तक लाखों की संख्या में आये थे उनमें ही ‘तहरीके तालिबान पाकिस्तान’ संगठन का उदय हुआ और इस्लामाबाद के हुक्मरानों की हर चन्द कोशिश रही कि वे तालिबान का उदार चेहरा पेश करते हुए उन्हें अफगानिस्तान के स्वदेशी राज के रजाकार साबित करें। इसी के चलते 2012 में कतर की राजधानी दोहा में तालिबान संगठन का कार्यालय स्थापित हुआ और तभी तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अच्छे और बुरे तालिबान का फलसफा पेश किया। 
जाहिर तौर पर रूस व चीन की निगाह इस घटना क्रम पर थी जिसकी वजह से रूस ने विगत वर्षों में तालिबान नेताओं को मास्को में बुला कर बात भी की थी। इसकी एक वजह यह भी कही जा सकती है  2002 से 2021 तक अमेरिकी साये में जितनी भी सरकारें अफगानिस्तान में बनी उनकी अपील पूरे देश में नहीं थी। रूस इस मामले में भुक्तभोगी था अतः उसने अमेरिकी वापसी की पृष्ठभूमि में सबसे पहले अवसर पाने का प्रयास किया जिससे चीन ने प्रेरणा लेते हुए तालिबानों को स्थान देना शुरू किया और जुलाई महीने में चीनी विदेशमन्त्री ने तालिबानी नेता मुल्ला बरादर के साथ आये प्रतिनिधिमंडल से बातचीत की। लेकिन पाकिस्तान की भूमिका के साथ इन देशों ने कोई छेड़छाड़ करने की कोशिश नहीं कि अलबत्ता रूस की तरफ से भारत के लिए एेसे संकेत जरूर भेजे गये कि वह तालिबानों पर प्रभाव डालने की कोशिश करे। असल में रूस-चीन-पाकिस्तान त्रिकोण इसी मोड़ पर आकर बनता है जिसकी काट भारत को ढूंढनी है। 
वास्तविकता तो यह है कि विगत 15 अगस्त के दिन जब तालिबान अफगानिस्तान में काबिज हुए तो उससे चार दिन पहले ही 11 अगस्त को रूस,चीन, पाकिस्तान व अमेरिका के प्रतिनिधि दोहा में मिले मगर भारत इसमें शामिल नहीं हो सका था। इसकी वजह तालिबान पर भारत का कोई प्रभाव न होना बताया गया। मगर दो दिन पहले ही तालिबान के शीर्षस्थ नेताओं में से एक शेर मोहम्मद अब्बास ने जिस तरह एक बयान जारी कर यह कहा कि भारत उपमहाद्वीप में बहुत महत्वपूर्ण है और उसके साथ अफगानिस्तान के सम्बन्ध बहुत मायने रखते हैं, उम्मीद निकलती है कि रूस-चीन-पाकिस्तान के त्रिकोण की सन्तुलनकारी शक्ति भारत हो सकता है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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