किर्गिस्तान में सम्पन्न हुये शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान से दूरी बनाकर पूरी दूनिया को यह संदेश दे दिया कि आतंकवाद और बातचीत साथ-साथ नहीं चल सकते। सम्मेलन को सम्बोधित करते हुये उन्होंने आह्वान किया कि आतंकवाद फैला रहे देशों को समर्थन देने वालों को भी जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिये। प्रधानमंत्री का इशारा चीन की तरफ भी था। जहां तक भारत और चीन सम्बन्धों का सवाल है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की चीन के राष्ट्रपति श्री जिनपिंग से मुलाकात से निश्चित रूप से रिश्तों में सुधार आयेगा। प्रधानमंत्री की रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन से मुलाकात को दो मित्र देशों के नजरिए से ही देखना चाहिये। पहले भारत और पाकिस्तान शंघाई सहयोग संगठन में शामिल नहीं थे। इसमें रूस, चीन और मध्य एशिया के देश थे।
कजाकिस्तान की राजधानी अस्ताना में संगठन में भारत की सदस्यता पर मुहर लगाई गई थी। भारत, चीन और रूस जब एक संगठन में एक साथ हों तो यह संगठन पूरी दुनिया की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करता दिखाई देता है।
शंघाई सहयोग संगठन कोई सैन्य संगठन नहीं है, लेकिन आतंकवाद को लेकर उसका रुख पहले से कहीं अधिक स्पष्ट हो चुका है। हर सम्मेलन में आतंकवाद के सभी रूपों की निंदा की जाती है। संगठन का उद्देश्य सभी सदस्य देशों के बीच आपसी सहयोग और विकास को स्थापित करना, अच्छे पड़ोसियों की तरह एक-दूसरे के काम आना, पर्यावरण एवं सुरक्षा जैसे मुद्दों पर सहयोग करना है। जहां तक भारत का सवाल है उसने शंघाई सहयोग सम्मेलन के हर मंच पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
भारत का दृष्टिकोण स्पष्ट है कि आतंकवाद विकास को अवरुद्ध करता है और विकास के लिये आतंकवाद को समाप्त करना होगा। भारत पाकिस्तान के प्रायोजित आतंकवाद से पीड़ित है। संगठन में भारत के शामिल होने के बाद चीन के स्वभाव में कुछ परिवर्तन दिखाई जरूर दे रहा है। भारत संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थाई सदस्यता चाहता है लेकिन चीन हमेशा अपनी टांग अड़ा देता है। एनएसजी में भारत की सदस्यता को लेकर भी वह विरोधी रुख अपनाये हुये है लेकिन उसे चाह कर भी अजहर मसूद को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने को लेकर मजबूर होना पड़ा। हो सकता है कि भविष्य में उसके स्वभाव में और परिवर्तन देखने को मिले। पहले संगठन में चीन का वर्चस्व था लेकिन भारत की सक्रिय भूमिका से संगठन की रीति-नीति में परिवर्तन आया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वैश्विक छवि एवं देश के प्रति उनकी जवाबदेही और जिम्मेदारी का ही परिणाम है कि भारत अपनी भूमिका का विस्तार वैश्विक मंचों पर कर रहा है।
भारत के सामने अपनी कई चुनौतियां भी हैं। इस सम्मेलन को कनैक्टिविटी के लिहाज से काफी अहम माना गया। व्यापार बढ़ाने के लिये सदस्य देशों के बीच आवागमन सुगम हो जायेगा लेकिन जहां तक चीन की बैल्ट एंड रोड परियोजना का सवाल है, भारत उसका लगातार विरोध कर रहा है। भारत और चीन में व्यापार चल रहा है क्योंकि दोनों को ही एक-दूसरे की जरूरत है। चीन भारत का विशाल बाजार छोड़ना नहीं चाहेगा। चीन और अमेरिका में ट्रेड वार छिड़ी हुई है। अमेरिका ने चीन के उत्पादों पर भारी भरकम कर लगा दिये हैं। अमेरिका ने ऐसा ही व्यवहार भारत के साथ भी किया है। भारत के उत्पादों पर अमेरिकी कर छूट खत्म किये जाने के बाद भारत को नुकसान हो रहा है। चीन चाहता है कि शंघाई सहयोग संगठन के सभी देश एकजुट होकर अमेरिका का मुकाबला करें।
भारत चीन के साथ जाता है तो अमेरिका नाराज हो सकता है, अगर वह अमेरिका के साथ खड़ा होता है तो चीन की नाराजगी झेलनी पड़ सकती है। भारत के सामने बड़ी चुनौती अमेरिका और चीन में संतुलन बनाकर चलने की है। प्रधानमंत्री मोदी ने चीन के राष्ट्रपति श्री जिनपिंग को भारत आने का न्यौता दिया है। उम्मीद की जानी चाहिये कि चीन भारत के दृष्टिकोण को समझेगा। श्री जिनपिंग और व्लादिमीर पुतिन से हुई बातचीत में आर्थिक कारोबारी और सामरिक हितों पर भी बात हुई।
चीन के राष्ट्रपति को कहना पड़ा कि चीन से भारत को कोई खतरा नहीं। उन्होंने भारत से आयात किये जाने वाले सामान के लिये नियमों को सरल बनाने का वायदा भी किया। अमेरिका बार-बार चेता रहा है कि भारत रूस से एम 400 की डील न करे लेकिन रूस हमारा परखा हुआ अतिविश्वस्त मित्र है। हम रूस को नहीं छोड़ सकते। प्रधानमंत्री ने व्लादिमीर पुतिन को भी आश्वस्त किया है कि दोनों देशों के रिश्तों पर अमेरिकी दबाव का असर नहीं होगा। उलझी हुई दुनिया में भारत को ऐसी राह चुननी है जो उसके हितों के अनुकूल हो। यदि भविष्य में चीन, रूस और भारत एक साथ आते हैं तो यह बहुत शक्तिशाली त्रिकोण होगा लेकिन क्या ऐसा हो सकेगा? यह भविष्य के गर्भ में है।