भारत जैसे कल्याणकारी राज्य में मुफ्तखोरी का दुष्चक्र काफी व्यापक हो चुका है। देश में सब्सिडी की व्यवस्था है, लेकिन समुचित प्रबन्धन और प्रशासकीय लापरवाही के कारण उसका पूरा लाभ इसके वास्तविक हकदारों को नहीं मिलता। चीजों को सस्ते में मुफ्त बांटने की नीति की वजह से राजकोष पर बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है और विकास की योजनाओं के लिए धन की कमी तो हो ही रही है।
भारत में चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दल मुफ्तखोरी को हथियार बनाते हैं। निर्वाचन आयोग के निर्देशों के बावजूद मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए मुफ्त पानी, सस्ती बिजली, सस्ते चावल से लेकर रंगीन टीवी, लैपटॉप तक देने के वादे किए जाते हैं। लोक-लुभावन घोषणाओं और मुफ्तखोरी के बढ़ते बोझ से उपजे परिदृश्य पर बहस की जरूरत है।
भारत में मुफ्तखोरी सिर्फ एक विकृत संस्कृति या समस्या भर नहीं है, बल्कि यह अफीम या किसी खतरनाक नशे की तरह है। दक्षिण भारतीय राज्यों के चुनावों में बहुत कुछ बंटता ही रहता है। लोगों में मुफ्त खाने-खिलाने की एक आदत सी बन गई है। जिसे देेखो वही जनता को कुछ न कुछ बांटे जा रहा है। जब खैरात बांट-बांटकर वोट हासिल करते हैं तो फिर राज्य कर्ज के बोझ तले दबेंगे ही।
इस सारी स्थिति पर मद्रास हाईकोर्ट ने करारी टिप्पणी की है कि सभी राशनकार्ड धारकों को मुफ्त पीडीएस चावल दिए जाने से लोग आलसी हो रहे हैं। पीडीएस चावल आैर दूसरी चीजें केवल गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वालों को दी जानी चाहिए । यह जरूरी है कि गरीबों और जरूरतमंदों को चावल और दूसरी जरूरी चीजें मुहैया कराई जाएं लेकिन सरकारों ने राजनीति की वजह से इस तरह की सुविधाएं सभी वर्गों को देनी शुरू कर दी हैं। हर वर्ग को मुफ्त चावल दिए जाने का नतीजा यह निकला कि लोग अब सरकार से हर चीज मुफ्त मेें चाहते हैं। अब वे आलसी हो रहे हैं और छोटे-छोटे कामों के लिए भी बाहर से मजदूर बुलाने पड़ते हैं।
तमिलनाडु में एक वर्ष में मुफ्त चावल बांटने पर 2110 करोड़ रुपए खर्च हुए। पीठ ने यह सवाल भी किया कि क्या कोई ऐसा सर्वे किया गया है कि जिसके जरिये बीपीएल परिवारों की पहचान की जा सके। अगर यह योजना गरीब परिवारों के अलावा दूसरों को फायदा पहुंचाती है तो यह जनता के पैसे से अन्याय है।
मद्रास हाईकोर्ट ने जो भी कहा वह वास्ताविकता है। देश में पहले रसोई गैस पर हर किसी को सब्सिडी दी जाती थी। धनी और उच्च वर्ग भी इसका फायदा उठाते थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपील की थी कि जो लोग आर्थिक रूप से सम्पन्न हैं उन्हें स्वेच्छा से गैस सब्सिडी छोड़ देनी चािहए। आर्थिक रूप से सम्पन्न लोगों द्वारा सब्सिडी छोड़ देने से करोड़ों रुपए की बचत हुई आैर इन रुपयों से ही गरीबों को मुफ्त में गैस कनैक्शन देने की उज्ज्वला योजना साकार रूप ले सकी। तमिलनाडु की लोक-लुभावन राजनीति का इतिहास 1977 में एम.जी. रामचन्द्रन के मुख्यमंत्री बनने के साथ शुरू हुआ था, जब उन्होंने स्कूली बच्चों के लिए मिड-डे-मील स्कीम की घोषणा की थी। उद्देश्य यह था कि अभिभावक अपने बच्चों का स्कूलों में दाखिला सुनिश्चित कराएं। यह एक कल्याणकारी योजना थी, लेकिन इससे मुफ्त वितरण की संस्कृति आरम्भ हुई।
वर्ष 2006 में करुणानिधि ने रंगीन टीवी का वादा कर चुनावी जीत हासिल कर ली थी। अम्मा जयललिता ने महामुफ्तवाद चलाया। हर कल्याणकारी योजना को ‘अम्मा’ के नाम से जोड़ा गया। 1.91 करोड़ कार्डधारकों को मुफ्त चावल, मिनरल वाटर, नमक और सीमेंट पर सब्सिडी दी गई। छात्रों और ग्रामीण क्षेत्रों के गरीबों के लिए मुफ्त बिजली के पंखे, इंडक्शन चूल्हे, धोती, साड़ी, लैपटॉप, साइकिल तथा दुधारू गाय, बकरियां और भेड़ें बांटी गईं। घरेलू ग्राहकों को 100 यूनिट और बुनकरों के लिए 750 यूनिट मुफ्त बिजली दी गई। फिर ऐसी ही योजनाओं का अनुसरण अन्य राज्यों ने किया। आंध्र, पंजाब, उत्तर प्रदेश और दिल्ली की सरकारों ने भी मुफ्तखोरी की संस्कृति को प्रोत्साहित किया।
अगर लोगों को रोजमर्रा की वस्तुएं मुफ्त में मिलने लगेंगी तो फिर काम कौन करेगा? आम आदमी मेहनत-मजदूरी अपना और पिरवार का पेट पालने के लिए करता है। अगर उसे मुफ्त या सस्ते में सब कुछ उपलब्ध होगा तो वह निठल्ला ही बन जाएगा। दूसरी ओर बड़ी-बड़ी कम्पनियां और बड़े-बड़े पूंजीपति सबसे ज्यादा मुफ्तखोर हैं। सभी बड़ी कम्पनियों और पूंजीपतियों को सस्ते में जमीन चाहिए, टैक्स में छूट चाहिए, हर चीज में सब्सिडी चाहिए, बैंकों से ऋण चाहिए। सरकार दिल खोलकर कार्पोरेट सैक्टर पर धन लुटाती है। आज भी देश की आबादी का बड़ा हिस्सा कुपोषण का शिकार है। देश में पूंजी निवेश से कहीं ज्यादा पैसा मुफ्तखोरी पर लुटाया जा रहा है।
कोई सरकार एक सीमा के बाद किसी को कुछ नहीं दे सकती। राज्य सरकारों को चाहिए कि गरीबों को मुफ्त में सामान मिले लेकिन आर्थिक रूप से सम्पन्न परिवारों को ऐसा कुछ नहीं दिया जाए ताकि देश के लोग मुफ्तखोर न बन जाएं। जितना धन ऐसी योजनाओं में लुटाया जा रहा है उसमें अस्पताल, स्कूल बनाए जा सकते हैं।
सरकारों की सोच यह होनी चाहिए कि देश के लोग पढ़-लिखकर खुद सक्षम बनें मगर विडम्बना यह है कि राजनीति ही मुफ्तखोरी को खत्म करने की इच्छुक नहीं। देश मुफ्तखोरी के दुष्चक्र में फंसा हुआ है। इस दुष्चक्र से निकलने के लिए नई नीतियों को बनाया जाना जरूरी है। कठिन मार्ग अपनाना होगा ताकि सरकारों के राजकोष पर अधिक दबाव न पड़े।