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भारत-रूस सम्बन्ध और अमेरिका

यह सही है कि अमेरिका के साथ भारत के रिश्तों के नए अध्याय खुल रहे हैं। यह अच्छी बात है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के दुनिया के सबसे ताकतवर लोकतंत्र के साथ गर्मजोशी भरे रिश्ते होने चाहिएं मगर यह रिश्ते हमारे विश्वसनीय दोस्त रूस की कीमत पर नहीं होने चाहिएं।

यह सही है कि अमेरिका के साथ भारत के रिश्तों के नए अध्याय खुल रहे हैं। यह अच्छी बात है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के दुनिया के सबसे ताकतवर लोकतंत्र के साथ गर्मजोशी भरे रिश्ते होने चाहिएं मगर यह रिश्ते हमारे विश्वसनीय दोस्त रूस की कीमत पर नहीं होने चाहिएं। बदलती दुनिया में हमारी अर्थव्यवस्था की जरूरत, बड़े खपत वाले बाजार और विदेशी निवेश का प्रवाह जो स्वाभाविक रूप से हमें अमेरिकी पाले में खड़ा करता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि दुनिया के राजनीतिक समीकरण बदले हैं। 
शीतयुद्ध के बाद दुनिया ऐसी नहीं रही जैसी शीतयुद्ध के दौरान हुआ करती थी। रिश्तों और जरूरतों के आयाम बहुत व्यापक हुए हैं। इस सबके बावजूद भारत और रूस के रिश्ते बने रहे। कुछ समय ऐसा भी आया जब भारत-रूस के रिश्ते ठण्डे हो गए लेकिन यह भी तथ्य है कि आजादी के बाद से ही भारत-रूस के रिश्ते भावनात्मक रहे हैं। देशवासी रूस को अब भी भारत का विश्वसनीय दोस्त मानते हैं। अगर अमेरिका के सम्बन्ध में उनसे सवाल पूछे जाएं तो उनको आज भी अमेरिका दगाबाज, दोहरी नीतियां अपनाने वाला लगता है। हर भारतीय अमेरिका को दुश्मन भले ही नहीं माने, उससे सशंकित जरूर लगता है।
 रूस को लेकर भारतीय जनमानस की धारणा ऐसे ही नहीं बनी बल्कि इसके पीछे बहुत से कारण हैं। अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने दिल्ली आकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, विदेश मंत्री एस. जयशंकर और रक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से बातचीत की। यद्यपि उन्होंने भारत के साथ सम्बन्धों को मजबूत बनाने की बात कही लेकिन व्यापार और निवेश को लेकर भारत और अमेरिका के बीच विवाद दूर करने को लेकर कोई बात नहीं कही। अमेरिका पिछले कुछ समय से भारत पर रूस से एस-400 सर्फेस टू एयर मिसाइल सिस्टम नहीं खरीदने का दबाव बना रहा था। अमेरिका ने रूस और ईरान पर प्रतिबंध लगा रखे हैं। इन दोनों देशों से भारत की नजदीकियां अमेरिका की आंख में खटक रही हैं लेकिन विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने माइक पोम्पियो को दो टूक कह दिया कि भारत रूस से एस-400 खरीदेगा और भारत वही करेगा जो उसके राष्ट्रीय हितों के अनुकूल होगा। अपने हितों की रक्षा करना भारत का अधिकार है। 
अमेरिकी दबाव में भारत ने ईरान से तेल खरीदना बन्द कर वैकल्पिक व्यवस्था की है। अमेरिका से दोस्ती का अर्थ रूस से सम्बन्ध तोड़ना नहीं हो सकता। भारत और अमेरिका में इस समय कई मुद्दों पर विवाद जारी है। इनमें अमेरिकी कम्पनियों की भारतीय बाजार में पहुंच, डाटा सिक्योरिटी और अमेरिका को निर्यात किया जाने वाला स्टील और अल्युमीनियम के मुद्दे शामिल हैं। गत फरवरी में भारत सरकार ने ई-कामर्स के नए नियमों को लागू किया। सरकार का यह दाव अमेरिका को रास नहीं आया क्योंकि इसकी वजह से अमेरिका की दो सबसे बड़ी कम्पनियों वालमार्ट और अमेजन डॉट कॉम का व्यापार प्रभावित हुआ। 
वालमार्ट ने पिछले साल देश की ई-कामर्स कम्प​नी ​फिलिपकार्ट में 16 अरब डॉलर का निवेश किया था। अमेरिका ने भारत को व्यापार में दी जाने वाली प्राथमिकताएं खत्म कर दीं तो जवाब में भारत ने 28 अमेरिकी उत्पादों पर टैरिफ बढ़ा दिया। यह सब देखा जाए तो अमेरिका का हर कदम केवल अपने लाभ के लिए है। अमरीकियों के बारे में मशहूर है कि वे अपने हितों के लिए ही काम करते हैं। कई मुद्दों पर भारत-अमेरिका मिलकर काम कर रहे हैं, जैसे दोनों देश आतंकवाद को रोकने के लिए संयुक्त प्रयास कर रहे हैं। दोनों देशों के सामने चीन की चुनौती भी है, जिसे रोकना प्राथमिकता है। अमेरिका की दोस्ती में तोलमोल का भाव है। 
अतीत को देखें तो रूस ने संकट की घड़ी में भारत का हमेशा साथ दिया। 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान जब अमेरिका ने अरब सागर की तरफ अपने नवें बेड़े को रवाना कर दिया था तो यह रूस ही था जिसने अमेरिका के जंगी बेड़े को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए अपना जंगी बेड़ा मलक्का की खाड़ी में भेज दिया था। जब भारत ने कहा कि वह स्टील एलॉय बनाएगा तो अमेरिका ने कोई मदद नहीं की, तब रूस ही था जिसने एक-एक करके भारत में स्टील कारखाने खड़े कर मदद की। जो स्टील कारखाने आज भारत की औद्योगिक संरचना की बुनियाद बने हुए हैं वह रूस की ही देन हैं। रूस आज भी हमारी रक्षा जरूरतें पूरी करता है। अंतरिक्ष परियोजनाओं में भी रूस ने काफी मदद की है। जब परमाणु ईंधन की कमी के चलते हमारे रिएक्टर बन्द होने के कगार पर थे तब अमेरिका और उसके मित्र देशों ने परमाणु ईंधन देने से इन्कार कर दिया था तो यह रूस ही था कि ​जिसने हमें 80 टन यूरेनियम भेज दिया था।
 भारत ने अमेरिका को दो टूक जवाब देकर अच्छा काम किया है।पिछले दो वर्षों में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जिस तरह से संरक्षणवादी नीतियों की खुलकर वकालत की है और अमेरिकी उद्योगों को बचाने के नाम पर चीन, भारत और यूरोपीय संघ के सदस्य देशों के साथ जो कारोबारी रुख अपनाया है, उसका विरोध होना भी शुरू हो चुका है। सम्भव है कि जापान के ओसाका शहर में जी-20 सम्मेलन के दौरान भारत, चीन और रूस में इस सम्बन्ध में बातचीत हो और भविष्य का नया खाका तैयार हो। अमेरिका और चीन के बीच ट्रेडवार तो चल ही रही है। अगर अमेरिका अपने हित सर्वोपरि रखता है तो भारत अपने हितों से समझौता कैसे कर सकता है?

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