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भारत का मुकुट ‘कश्मीर’

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स्वतंत्रता दिवस पर दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस आह्वान को सकल राष्ट्रीय संदर्भों में रखकर कश्मीर समस्या का वस्तुगत मूल्यांकन किया जाना चाहिए कि इसका हल न गोली से निकलेगा और न गाली से बल्कि केवल कश्मीरी जनता को गले लगाने से निकलेगा। प्रत्येक भारतवासी को तो इसका संज्ञान लेना ही चाहिए मगर उनकी पार्टी भाजपा के उन उन्मादी प्रवक्ताओं को सबसे पहले अपने गिरेबां में झांक कर देखना चाहिए जो बात-बात पर अपने विचारों से सहमत न होने वाले कश्मीरियों से पाकिस्तान चले जाने को कहते हैं। लालकिले से जब इस देश का प्रधानमंत्री बोलता है तो वह भारत के महान लोकतंत्र की उस आत्मा को साकार करता है जो इस देश के सवा सौ करोड़ देशवासियों के भीतर रहती है। यह ऐतिहासिक सत्य है कि आम कश्मीरी कभी भी पाकिस्तान के हिमायती नहीं रहे हैं और हर संकट के समय उन्होंने खुलकर भारत का साथ 1947 से ही दिया है। इसके साथ यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि कश्मीर को विशेष दर्जा देने का अहद जब इस देश ने किया था तो समूचे हिन्दोस्तान में एक भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं था जिसने इसका विरोध किया हो। चाहे धारा-370 हो या अनुच्छेद-35ए हो, ये दोनों ही इस राज्य की उस अस्मिता से जुड़े हुए हैं जिसका विलय 26 अक्तूबर, 1947 को रियासत के महाराजा हरिसिंह ने भारतीय संघ में किया था।

जम्मू-कश्मीर में बाहरी लोगों द्वारा जमीन-जायदाद की खरीद-फरोख्त पर प्रतिबंध 1927 से ही महाराजा के प्रशासन ने लगाया हुआ था। यह भी इसके साथ बताता चलूं कि इस राज्य में गौहत्या पर प्रतिबंध इससे भी पचास साल पहले से ही लागू था। अत: जो लोग कश्मीर समस्या को हिन्दू-मुस्लिम के चश्मे से देखते हैं वे पाकिस्तान के नजरिये का ही परोक्ष समर्थन करते हैं, क्योंकि पाकिस्तान 1947 से यही कहता आ रहा है कि कश्मीर समस्या धार्मिक है, जबकि इस राज्य के चप्पे-चप्पे पर हिन्दोस्तानियत अपने शबाब का नूर बिखेरती रही है। बेशक कुछ लोगों ने 1988 के बाद से धरती की इस जन्नत को जहन्नुम बनाने की तरकीबें भिड़ाई हैं मगर आम कश्मीरी ने अभी तक उस कश्मीरियत को नहीं छोड़ा है जिसकी रोशनी में यह रियासत सदियों से गुलजार रही है। इसका नजारा हमें हाल ही में देखने को मिला जब अमरनाथ यात्रियों पर कुछ पाकिस्तानी दहशतगर्दों ने हमला किया। इसके खिलाफ पूरे कश्मीर के आम लोग उठकर खड़े हो गए। यह कोई छोटी-मोटी घटना नहीं थी। इसका संज्ञान हमारे गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने दिल से लेते हुए कहा था कि ‘कश्मीरियत’ अभी जिन्दा है। जिन लोगों को मेरे विचारों से आपत्ति है वे कृपया स्व. लोकनायक जयप्रकाश नारायण का वह खत पढ़ लें जो उन्होंने इमरजेंसी के दौरान चंडीगढ़ जेल में कैद रहते हुए स्व. शेख अब्दुल्ला को लिखा था। इस खत में जेपी ने लिखा था कि दिसम्बर, 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री और शेख साहब के बीच जो समझौता हुआ था उसके तहत श्रीनगर में शेख साहब की सरकार काबिज कर दी गई थी मगर जेपी चाहते थे कि शेख साहब कश्मीरी लोगों के लिए और अधिक अधिकार लेते। इसकी खास वजह थी कि शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान निर्माण के सख्त विरोधी थे।

उनका जिन्ना की मुस्लिम लीग से कोई लेना-देना नहीं था और उन्होंने कश्मीरी जनता के लोकतांत्रिक हकों के लिए रियासत की शाही सरकार के विरुद्ध जनांदोलन चलाया था जिसमें सभी हिन्दू-मुसलमान बराबर शरीक थे। यही वजह थी कि जब महाराजा ने अपनी रियासत का विलय भारतीय संघ में किया तो उस पर तत्कालीन वायसराय माऊंटबेटन व महाराजा हरिसिंह के ही दस्तखत थे मगर बाद में पं. नेहरू ने उस पर शेख अब्दुल्ला के भी हस्ताक्षर कराये थे जिससे कश्मीर के आम आदमी की सहमति भी इसमें शामिल हो जाए। इस पर खुद जनसंघ के उन नेताओं को भी आश्चर्य हुआ था जो धारा-370 को जारी रखने के विरुद्ध रहे थे। लालकृष्ण अडवानी ने लोकसभा में देश के गृहमंत्री रहते 2001 में बयान दिया था कि ‘उन्हें तब बहुत आश्चर्य हुआ जब उन्होंने देखा कि पं. नेहरू ने विलय पत्र पर शेख साहब के भी दस्तखत लिये थे। इस हकीकत से वह अंजान थे। दरअसल यह बात बहुत कम लोगों की समझ में आती है कि जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने का अधिकार न तो भारत की संसद के पास है और न ही सर्वोच्च न्यायालय के पास। संविधान सभा ने जब इस विशेष व्यवस्था को कानून के जरिये लागू किया था तो स्वयं संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने कहा था कि उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि एक देश के बीच दूसरा देश किस प्रकार रह सकता है, परन्तु महाराजा की यही शर्त थी जिसे जनसंघ के संस्थापक डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने भी 26 अक्तूबर, 1947 को बतौर केंद्रीय उद्योगमंत्री के रूप में स्वीकार किया था।

अत: प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस आह्वान को अंध राष्ट्रवाद के राजनीतिक चश्मे से नहीं बल्कि हकीकत की रोशनी में देखना चाहिए कि क्यों इस राज्य के लोगों को अलग से संविधान देने की व्यवस्था हमारी संविधान सभा ने ही की। हां अगर जम्मू-कश्मीर विधानसभा चाहे तो इस धारा की शर्तों को ढीला कर सकती है। अत: कश्मीरी लोगों को गले लगाने से ही समस्या सुलझेगी। क्या कभी इस बात पर गौर करने की कोशिश की गई है कि क्यों कश्मीर की नई पीढ़ी के कुछ युवा भटक कर उन भारतीय फौजियों पर ही पत्थर बरसाने लगते हैं जो उनकी हिफाजत के लिए ही वहां तैनात हैं। इसकी वजह यही है कि कुछ पाक परस्त अलगाववादी तत्वों ने उनके दिलों में अपने मुल्क के खिलाफ ही नफरत का बीज बोना शुरू कर दिया है और वे इसे मजहब के रंग में रंग कर पाकिस्तान की साजिश को अंजाम दे रहे हैं। आतंकवादियों को अपनी सरहद से कश्मीर में भेजकर पाकिस्तान मजहबी तास्सुब को हवा देकर उन कश्मीरियों को बरगलाना चाहता है जिन्होंने भारत का बंटवारा होने के बावजूद एक भी हिन्दू को मरने नहीं दिया या उसे बेघरबार नहीं होने दिया मगर क्या कयामत हुई कि 90 के दशक में घाटी में यह काम हो गया। इसके लिए सूबे की सियासी तंजीमों को भी बख्शा नहीं जा सकता, क्योंकि उनके रहते ही यह काम हुआ बेशक उस समय सूबे में राज्यपाल का शासन था। कश्मीर भारत का मुकुट है, इसकी रक्षा हमें करनी ही होगी और यहां के लोगों को गले लगाकर ही करनी होगी, जो भटके हुए लोग हैं उन्हें सही रास्ते पर लाना ही होगा। हमारा लोकतंत्र इतना मजबूत है कि इसके दायरे में हर समस्या के सुलझने का रास्ता खुला हुआ है। पाकिस्तान क्या खाकर इसे सुलगाये रखेगा और उसकी हैसियत हमारे महान लोकतंत्र के सामने है क्या!
है क्या जो कस कर बांधिये मेरी बला डरे
क्या जानता नहीं हूं तुम्हारी कमर को मैं।

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