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भारत का मन्त्र ‘गणतन्त्र’

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आज गणतंत्र दिवस है। हमने 68 वर्ष उस संविधान की छत्रछाया में अपने लोकतन्त्र को सर्वाधिकार सुरक्षित रखते हुए बिताए हैं जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान कहा जाता है। हमने जिस तेज गति से इस संविधान में प्रदत्त नागरिक अधिकारों के चलते विकास व प्रगति की है वह पूरी दुनिया के लिए किसी अजूबे से कम नहीं है मगर इस दौरान कई प्रकार की विसंगतियों से भी हम जूझे हैं। हमने आजादी के बाद अपना सफर पूरे आत्मविश्वास के साथ शुरू किया और राष्ट्र निर्माण के हर मोर्चे पर हमने बदलती दुनिया के समकक्ष अपनी ताकत में लगातार इजाफा भी किया मगर हमारी सबसे बड़ी ताकत व्यापक विविधता वाले भारतीय समाज को आपस में बांधे रखने की रही जिसमें हमारे संविधान ने हमेशा दिशा-निर्देशिका का कार्य किया। इन 67 सालों में भारी राजनीतिक उथल–पुथल के दौर से भी हम गुजरे और राजनीति में जातिगत व सम्प्रदायगत कबायली दौर के भी हम गवाह बने मगर जो बात हमें सही राह पर चलने के ​िलए चेताती रही वह महात्मा गांधी का वह मानववाद और इंसानियत का पाठ था जिसे आधार बनाकर हमारा संविधान बाबा साहेब अम्बेडकर ने लिखा था।

हमने सरकार की वह प्रणाली अपनाई जिसमें जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि ही शासन के सर्वोच्च मुखिया हों। इस व्यवस्था के अंतर्गत हमने अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा की सिपहसालार फौज तक को भी रखा और सभी सुरक्षा बलों का सुप्रीम कमांडर अपने राष्ट्रपति को बनाया। आज 26 जनवरी को जब राजपथ पर हमारी सेनाओं के तीनों अंगों की जांबाज टुकडि़यां राष्ट्रपति को सलामी दे रही होंगी तो वे सच्चे अर्थों में भारत की जनता को ही सलामी दे रही होंगी और उनके लोकतान्त्रिक अधिकारों को पूर्णतः सुरक्षित रखने की कसम खा रही होंगी जो कि संविधान में उन्हें दिए हुए हैं। राष्ट्रपति बेशक परोक्ष चुनाव से पांच वर्ष के लिए चुने जाते हैं, मगर जनता के ही प्रतिनि​ि​ध होते हैं और संविधान के संरक्षक के तौर पर अपने कार्य का निष्पादन करते हैं। अतः हमारी सेनाएं राष्ट्रपति को सलामी देकर संविधान की रक्षा करने की कसम भी लेती हैं। इतनी खूबसूरत कशीदाकारी के साथ संविधान से देश का शासन चलाने की व्यवस्था जो हमारे पुरखों ने की है, वह बेमिसाल और नायाब इस मामले में है कि वह भारत के किसी भी पात्र नागरिक को राष्ट्रपति के औहदे तक भी पहुंचने से नहीं रोकती है। इस मायने में हम ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली से भिन्न हैं क्योंकि वहां शासन का संवैधानिक मुखिया शाही परिवार का सदस्य ही होता है।

हमारी इसी विशेषता पर दुनिया के वे लोकतन्त्र भी कभी–कभी ईर्ष्या का अनुभव करते हैं जो खुद को सबसे पुराना लोकतन्त्र तक कहते हैं। इसकी वजह यह है कि आजाद भारत की दूसरी सबसे बड़ी ताकत यह लोकतन्त्र ही है जिसमें बुनी हुई शासन प्रणाली के तहत बड़े से बड़े पद पर बैठा कोई भी व्यक्ति कानून की गिरफ्त से बाहर नहीं है। जिन पदों को सामान्य कानून के घेरे से बाहर रखा गया है उन्हें उस संसद की परिधि में रखा गया है जहां बैठे लोगों के पास संविधान में संशोधन या नया कानून बनाने का अधिकार है मगर इस शानदार प्रणाली पर सख्त निगरानी के लिए हमारे संविधान में प्रैस या मीडिया की स्वतन्त्रता को अभिव्यक्ति की आजादी के तहत इस प्रकार तय किया गया कि संसद से लेकर सड़क तक वह सरकार से लेकर समाज तक की जांच-पड़ताल करता रहे लेकिन इस व्यवस्था में न्यायपालिका की स्वतन्त्र व निष्पक्ष भूमिका नियत करके हमारे संविधान निर्माताओं ने इस बात की भी गारंटी दी कि राजनितिक दलीय व्यवस्था की मार्फत शासन करने वाले लोग अपने बहुमत के बूते पर कभी भी बेलगाम न होने पाएं। अतः उनके काम की तसदीक संविधान पर करने का अधिकार न्यायपालिका को दिया गया। यह अधिकार सभी अधिकारों से सबसे ज्यादा पवित्र इसलिए है क्योंकि केवल न्यायपालिका ही राजनीतिज्ञों को सत्ता के नशे में किए गए मनमाने फैसलों से रोकने की क्षमता रखती है और कानून का वह पाठ पढ़ा सकती है जिसकी दुहाई देकर वे शासन में आते हैं लेकिन हाल के समय में कुछ एेसी विसंगतियां सामने आ रही हैं जिनके बारे में पहले कभी सोचा भी नहीं गया होगा।

सर्वोच्च न्यायालय के चार न्यायमूर्तियों का सार्वजनिक रूप से मुख्य न्यायाधीश के कार्यकलाप को सन्देह के घेरे में रखना वास्तव में हमारे चौखम्भा राज की बुनियाद को हिलाता नजर आ रहा है। अतः इसका निराकरण निष्पक्ष तरीके से स्वयं न्यायपालिका को ही करना होगा। इसके बावजूद इस देश की आम जनता का भरोसा आज भी न्यायपालिका पर ही सर्वोपरि है क्योंकि इसने अभी तक के हर दौर में पूरी निडरता और निष्पक्षता व पवित्रता के साथ हर मोर्चे पर संविधान की विजय सुनिश्चित की है। मुम्बई उच्च न्यायालय इसका ताजा उदाहरण है जहां सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ कांड की अदालती कार्रवाई को मीडिया में दिखाने या छापने पर लगाई रोक को इस बड़ी अदालत की विद्वान न्यायाधीश रेवती मोहिते डेरे ने यह फैसला देकर हटा दिया कि मीडिया की भूमिका हमारी व्यवस्था के सबसे बड़े चौकीदार की है।

अदालत की कार्यवाही के बारे में आम लोगों को जानने का पूरा हक है और यह कार्य मीडिया ही कर सकता है। जिस सीबीआई अदालत में गुजरात के सोहराबुद्दीन मुठभेड़ का मुकद्दमा चल रहा है उसी के जज ने अदालती कार्यवाही के प्रकाशन व प्रसारण पर डेढ़ महीने पहले रोक लगा दी थी। इस फैसले के खिलाफ नौ पत्रकारों ने ही उच्च न्यायालय में अपील दायर की थी। इस मुकद्दमे में कुछ बड़े राजनीतिज्ञों के नाम भी हैं। वैसे इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि पिछले 68 वर्षों में हमें दो मोर्चों पर सबसे ज्यादा निराशा देखने को मिल रही है। पहले विधायिका के स्तर पर और दूसरे मीडिया के स्तर पर। मीडिया कभी भी खुशामदीदों (चीयर लीडर) का जमघट नहीं हो सकता। राजनीतिज्ञों की जवाब-तलबी करना उसका पहला धर्म होता है मगर जिस तरह राजनीति व्यापार बन चुकी है ठीक उसी तरह मीडिया भी कारोबार बन गया है। यह स्वाभाविक समीकरण है क्योंकि राजनीति और मीडिया दोनों सगी मौसेरी बहनें जैसी ही होती हैं मगर भारतवासी उम्मीद कभी नहीं छोड़ते हैं और हमारे लोकतन्त्र में इतनी कूव्वत है कि वह कभी नाउम्मीद नहीं करता।

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