आज स्वतन्त्र भारत की सबसे शक्तिशाली मानी जाने वाली प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी का जन्म दिवस है और यह अजीब संयोग है कि पंजाब में एक बार फिर वह आतंकवाद सिर उठाता दिखाई दे रहा है जिसे इन्दिरा जी ने ही अपने शासन के दौरान समाप्त करने का बीड़ा उठाया था और इसी के उतावले राजनैतिक प्रतिशोध की वजह से उनकी हत्या भी हुई। भारत के इतिहास का यह दुखद पहलू ही माना जायेगा कि 80 के दशक में सिखों के सर्वोच्च धर्म स्थान अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर को जरनैल सिंह भिंडरावाला के नेतृत्व में आतंकवादियों ने अपना शरण स्थल बनाया और जवाब में इसके खिलाफ इन्दिरा गांधी को सैनिक कार्रवाई करनी पड़ी मगर इससे भारत की राष्ट्रीयता के सिरमौर माने जाने वाले समूचे सिख समुदाय की भावनाएं आहत हो गईं।
कांग्रेस पार्टी को इसका आभास हुआ और उसने इन्दिरा जी के दिवंगत हो जाने के काफी समय बाद इसके लिए अफसोस भी जाहिर किया, परन्तु इससे इन्दिरा गांधी की वह शख्सियत बेदाग ही रहती है जिसके लिए वह आम भारतीयों के दिलों में प्रियदर्शिनी के रूप में बसती थीं। राष्ट्र के प्रति उनका समर्पण हर बाधा को तोड़ने के लिए इस प्रकार प्रज्ज्वलित रहता था कि वह इसके विरोध में खड़े हुए हर अवरोध को हटाने में समय गंवाना व्यर्थ समझती थीं और विरोधियों को उनके ही घेरे में घेर कर जमीनी हकीकत का सामना करने में विश्वास रखती थीं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि उन्हें भारत के लोकतन्त्र की ताकत पर पूरा भरोसा था और इसके नागरिकों की बुद्धिमत्ता पर पक्का यकीन था, अतः यह बेवजह नहीं था कि 1971 में पाकिस्तान को बीच से चीर कर दो टुकड़ों में बांटने वाली इन्दिरा गांधी ने 1973 में ही अकाली दल के उस आनन्दपुर साहब प्रस्ताव को एक सिरे से खारिज कर दिया था जिसमें पंजाब को इकतरफा अधिक अधिकार दिये जाने का प्रावधान था।
देश के संघीय ढांचे के तहत राज्यों के अधिकार पहले से ही सुपरिभाषित थे परन्तु इस सारे मामले को अलग से देखना न्यायसंगत नहीं होगा क्योंकि अपने बिखर जाने से बिफराये पाकिस्तान और उसकी हमदर्द दुनिया के पश्चिमी देशाें की ताकतें भारत की उभरती प्रचंड ताकत से कहीं न कहीं भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी चौधराहट के लिए चुनौती मानने लगी थीं। इन्दिरा गांधी ने केवल पाकिस्तान से अलग करके नया देश बंगलादेश बना कर ही यह चुनौती नहीं फेंकी थी बल्कि 1972 में सिक्किम को भारतीय संघ में मिलाकर भारत की भौगोलिक सीमाआें का पुनिर्नर्धारण भी कर डाला था और 1974 में पोखरण में पहला परमाणु परीक्षण करके दुनिया की विश्व शक्तियों के सामने एेलान कर दिया था कि हिन्द महासागर को ये शक्तियां अपनी सामरिक प्रतिस्पर्धा का अखाड़ा नहीं बना सकतीं। समूचे हिन्द महासागर क्षेत्र को अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति क्षेत्र घोषित करने की उनकी अपील का असर समूचे दक्षिण एशियाई देशों में हो रहा था और भारत इस क्षेत्र की एेसी कद्दावर इमारत के तौर पर खड़ा होने लगा था जिसकी आर्थिक व कूटनीतिक ताकत परमाणु शक्ति सम्पन्न पड़ोसी देश चीन के लिए एक प्रतियोगी के तौर पर बनने लगी थी।
इतना ही नहीं 1972 में पराजित और फटेहाल पाकिस्तान के साथ उन्होंने शिमला समझौता करके उन्होंने कश्मीर समस्या को इस तरह निपटाया था कि भविष्य में यह देश कभी भारत से रणभूमि में भिड़ने का दुस्साहस न कर सके। अतः 1974 के दिसम्बर महीने में श्रीमती गांधी ने कश्मीर में शेख अब्दुल्ला से समझौता करके यहां की क्षेत्रीय अपेक्षाओं को इस प्रकार सन्तुष्ट किया कि भविष्य में पाक अधिकृत कश्मीर के लोग स्वयं इसमें समाहित होने के लिए लालायित होने लगें। इन्दिरा जी को कुदरत ने वह दूरदृष्टि दी थी कि घरेलू राजनीति में वह उन तत्वों को सीमित दायरे में रख सकें जो लोकतन्त्र का लाभ उठाकर भारत में विघटन पैदा करना चाहते हैं और इसकी संवैधानिक मर्यादाओं का लाभ उठा कर लोगों में रोष पैदा करना चाहते हैं परन्तु इस सन्दर्भ में वह तब थोड़ी गफलत कर गईं जब उन्होंने पूरी कांग्रेस पार्टी का दारोमदार केवल अपने कन्धों पर इस प्रकार उठा लिया कि इस पार्टी में नेता बजाय नीचे से आने के ऊपर से आने लगे और आम जनता पूरी तरह उन्हीं के करिश्माई व्यक्तित्व पर निर्भर हो गई।
यही वजह थी कि वह जय प्रकाश नारायण के कथित सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन से उपजे रोष को जमीन पर ही नहीं मोड़ सकीं और इसकी जन ज्वाला से निकली लपटों के लपेटे में आ गईं जिसकी वजह से इमरजैंसी लगाने जैसा फैसला कर बैठीं परन्तु यह इन्दिरा गांधी भी जानती थीं और आम आदमी भी जानता था कि जेपी आन्दोलन में सम्पूर्ण क्रान्ति जैसा कुछ नहीं था। यह केवल इन्दिरा गांधी को सत्ता से बेदखल करने का एेसा आन्दोलन था जिसमें धुर विरोधी विचारों के दल एक-दूसरे के गले में हाथ डालकर चल रहे थे। इसकी सच्चाई यह थी कि 1977 के चुनावों में इन्दिरा जी को हराने के बाद केवल ढाई साल बाद ही जनवरी 1980 में उन्हें पुनः गद्दी पर बिठा दिया। पुनः प्रधानमन्त्री बनने पर उनके लिए चुनौतियां इस तरह अचानक बढ़ गई थीं कि उन्हें स्वीकार करना पड़ा था कि उनका नया कार्यकाल काफी मुश्किलों से भरा होने जा रहा है क्योंकि ढाई साल में ही भारत के वे रंग-ढंग बदलने की कोशिश की गई है जिनके लिए यह देश सदियों से जाना जाता है।
अतः पंजाब में आतंकवाद का उनके दूसरे कार्यकाल में बढ़ना कोई एेसी प्रक्रिया नहीं मानी जा सकती जिसका बदली समानान्तर राजनैतिक परिस्थितियों से कोई सम्बन्ध ही न हो। अपने ही टूटने के दर्द से कराह रहे पाकिस्तान ने इसे भारत में सक्रिय पृथकतावादियों को समर्थन देकर बढ़ाने की कोशिश की और पंजाब में आतंक के बूते पर भारतीय संघ की एकीकृत सत्ता को चुनौती देने की हिमाकत कर डाली परन्तु इसका खात्मा स्वयं पंजाब के ही शेरदिल, गबरू कही जाने वाली पीढ़ी ने लोकतन्त्र की ताकत से ही कर डाला। अतः इमरजेंसी लगाकर उसे हटाने का खुद ही फैसला करके इन्दिरा गांधी ने भारत के लोकतन्त्र को ही नवाजा और अपनी भयंकर भूल के कारण लोगों पर हुए अत्याचारों के लिए माफी भी मांगी मगर उन्होंने उन लोगों से कभी माफी नहीं मांगी जो भेष बदल-बदल कर और अलग-अलग बोलियां बोल कर भारत की जनता में भ्रम पैदा करना चाहते थे, यही वजह थी कि जब इन्दिरा जी ने इमरजेंसी लगाई तो वहां की अकाली सरकार को बर्खास्त नहीं किया मगर अकाली दल के नेताओं ने लोकतान्त्रिक अधिकारों के बर्खास्त किये जाने का विरोध किया और इसके खिलाफ पूरे 17 महीने विरोध प्रदर्शन करके स्वयं ही गिरफ्तारियां दीं परन्तु 1978 के बाद जिस तरह पाकिस्तान से सम्बन्ध सुधारने के नाम पर इस हद तक बातें की जाने लगीं कि दोनों देशाें के यात्रियों के बीच वीजा जारी करने को ही बन्द कर दिया जाए और इसके साथ ही पंजाब में अकाली दल की सरकार होने के बावजूद उग्रवादी तत्व प्रभावी होने लगे उससे पंजाब की परिस्थितियां खराब होने लगी थीं। अतः हमें चौतरफा चोकन्ना होकर ही अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करनी होगी और ध्यान रखना होगा कि पूरा भारत अब चुनावी दौर में प्रवेश करने वाला है।