हिन्द महासागर में भारत के पड़ोसी देश मालदीव में मालदीव डैमोक्रेटिक पार्टी के मोहम्मद सोलिह की राष्ट्रपति के रूप में नियुक्ति के बाद से यह उम्मीद की जा रही थी कि भारत-मालदीव सम्बन्ध पहले की ही तरह घनिष्ठ होंगे। ऐसा हिन्द प्रशांत क्षेत्र के सभी लोकतांत्रिक देशों के हित में जरूरी भी है। सोलिह के पूर्ववर्ती अब्दुल्ला यामीन के विस्तारवादी चीन की गोद में जा बैठने के कारण भारत-मालदीव के ऐतिहासिक सम्बन्धों की आस पूरी तरह क्षीण पड़ गई थी।
बात इतनी बिगड़ गई थी कि मालदीव की आधारभूत संरचनाओं के विकास में लगी भारतीय कम्पनियों को अपने साजो-सामान समेट लेने को कह दिया गया था लेकिन मोहम्मद सोलिह के सत्ता में आने से परिस्थितियों में बदलाव आया। अब दोनों देशों के द्विपक्षीय सम्बन्धों में एक बार फिर पुरानी ऊष्मा का संचार हुआ है। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मालदीव के राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह के बीच प्रतिनिधिमंडल स्तर की वार्ता के बाद हिन्द महासागर में शांति और सुरक्षा को बनाए रखने के लिए सहयोग बढ़ाने पर सहमति बनी। इसके साथ ही भारत मालदीव को 1.4 अरब डॉलर का ऋण देगा। दोनों देशों ने संस्कृति सहयोग, आईटी, इलैक्ट्रोनिक्स सहयोग, कृषि व्यापार के लिए बेहतर वातावरण बनाने समेत चार समझौतों पर हस्ताक्षर किए। दोनों देश गश्त और हवाई सर्वेक्षण के समन्वय के जरिये हिन्द महासागर में समुद्री सुरक्षा को बढ़ाने और सहयोग को मजबूत करने पर सहमत हो गए हैं।
मालदीव अब पुनः राष्ट्रमंडल में शामिल हो चुका है। दरअसल मालदीव हिन्द महासागर में जहां अवस्थित है, वह भारत के लिए सामरिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। वैश्विक राजनीति में हिन्द महासागर के विशाल क्षेत्र में भारत की निर्णायक स्थिति है और यह होनी भी चाहिए। ऐसा होना विश्व शांति के लिए जरूरी भी है। दूसरी तरफ चीन हिन्द महासागर के जरिये एक मैरीटाइम सिल्क रूट यानी सामुद्रिक व्यापार पथ का विकास करना चाहता है। उसे अपना व्यापार बढ़ाने के लिए समुद्री रास्ते की जरूरत है। इसी कारण यह आशंका निर्मूल नहीं है कि चीन भारत को इस आड़ में घेरने की कोशिश कर रहा है।
दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के गठन के बाद मालदीव के साथ भारत का सम्पर्क विकिसत होना शुरू हुआ। जब चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री बने तब मालदीव की राजधानी में सार्क का शिखर सम्मेलन हुआ था। मालदीव देखते ही देखते पर्यटकों का पसंदीदा स्थल बन गया। मालदीव पर लगभग तीन दशक तक राष्ट्रपति मैमून अब्दुल गयूम का एकछत्र राज रहा। लगभग साढ़े चार लाख की आबादी और सैकड़ों द्वीपों वाला देश 1965 तक एक ब्रिटिश उपनिवेश था। 1968 में मालदीव ने खुद को गणराज्य घोषित किया आैर 1978 में अब्दुल गयूम राष्ट्रपति बने। वह लगातार 6 बार राष्ट्रपति चुने गए। उनके रहते मालदीव का विकास तो हुआ लेकिन वह खुद एक निरंकुश शासक बन गए। अन्ततः 2008 में उन्हें गद्दी छोड़नी पड़ी। मोहम्मद नशीद सत्तारूढ़ हुए लेकिन वह भी अधिक समय राष्ट्रपति नहीं रह सके। उन्हें भी पद से हटा दिया गया और जेल भेजा गया। उन्होंने ब्रिटेन में राजनीतिक शरण ली।
तब गयूम के सौतेले भाई अब्दुल्ला यामीन राष्ट्रपति बन गए। पाठकों को याद दिला दूं कि 1988 में मालदीव में जब अब्दुल गयूम के खिलाफ बगावत हो रही थी तो तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने वहां भारतीय सेना भेजकर बगावत को विफल कर दिया था। भारत चाहता तो नशीद के खिलाफ बगावत को शांत करने के लिए हस्तक्षेप कर सकता था लेकिन स्थितियां काफी बदल चुकी थीं। दरअसल लिट्टे से युद्ध लड़ रही श्रीलंका सरकार के आग्रह पर शांति सेना भेजने का दुष्परिणाम भारत को ही झेलना पड़ा था, इसलिए भारत दोबारा कोई भूमिका निभाने को तैयार नहीं था। नशीद को देश से निर्वासित किए जाने के बाद अब्दुल्ला यामीन ने अपना खेल खेला।
उन्होंने विपक्षी नेताओं को जेल भेज दिया। उनके चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया। उनके फैसलों को देश की सुप्रीम कोर्ट ने खारिज किया तो न्यायमूर्तियों को जेल भेज दिया। मालदीव में गणतंत्र केवल नाम का रह गया था। अन्ततः चुनाव कराए गए तो नशीद की पार्टी चुनावों में जीत गई और सोलिह राष्ट्रपति बन गए। अब्दुल्ला यामीन रूस-चीन समर्थक रहे। वह पूरी तरह चीन की गोद में जाकर बैठ गए थे। उन्होंने चीन की कंपनियों को मालदीव में आमंत्रित किया। भारतीय कम्पनियों से अनबुंध रद्द कर दिए गए। भारतीय परियोजनाएं ठप्प हो गईं। यहां तक कि भारत द्वारा उपहार में दिए गए दो हैलिकॉप्टर भी वापस ले लिए जाने को कहा। मालदीव ने चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौता कर लिया।
मालदीव भारत से दूर हो चुका था। मालदीव में चीन की बड़ी आर्थिक मौजूदगी भारत के लिए चिन्ता की बात रही। यामीन ने कुछ ऐसा ही किया था जैसे श्रीलंका के राष्ट्रपति महिन्दा राजपक्षे ने अपने देश को चीन के हाथों गिरवी रख दिया था। यामीन के शासनकाल में कट्टरपंथ तेजी से बढ़ा। सीरिया की लड़ाई में भी मालदीव के युवा गए थे। पड़ोसी देश में कट्टरपंथ बढ़ना भारत को बर्दाश्त नहीं हो सकता। सत्ता परिवर्तन के बाद यह राहत की बात है कि मालदीव भारत के करीब आ रहा है। देखना होगा कि वह चीन के जाल से कैसे मुक्त होता है। नई सरकार के लिए यह एक बड़ी चुनौती है।