फलस्तीनी प्रशासन के प्रमुख महमूद अब्बास भारत यात्रा पर हैं। उनकी यात्रा का समय काफी अहम है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जुलाई के पहले हफ्ते इस्राइल की यात्रा पर जाने वाले हैं और मोदी सरकार इस्राइल पर इन दिनों ज्यादा ध्यान केन्द्रित कर रही है। महमूद अब्बास अपने कार्यकाल में पांचवीं बार भारत आए हैं, लेकिन मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद यह उनका पहला दौरा है। नरेन्द्र मोदी पहली बार इस्राइल के दौरे पर जाने वाले हैं। इससे पहले भारतीय विदेश मंत्री या फिर वरिष्ठ भारतीय मंत्री और अधिकारी इस्राइल के दौरे पर जाते हैं तो वे फलस्तीन भी जरूर जाते रहे हैं। संबंधों का संतुलन बनाने के लिए ऐसा किया जाता रहा है। फलस्तीनी नेता भारत आने से पहले रूस के राष्ट्रपति ब्लादीमिर पुतिन से मिले और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से भी अमेरिका में मुलाकात कर चुके हैं। क्योंकि महमूद अब्बास का कार्यकाल खत्म होने को है इसलिए उनका ज्यादा ध्यान इस्राइल-फलस्तीन विवाद सुलझाने और शांति प्रक्रिया पर है। उन्होंने भारत से अहम भूमिका निभाने के संबंध में भी बातचीत की है।
भारत और फलस्तीन काफी लम्बे समय तक काफी नजदीक रहे हैं। भारत की विदेश नीति 90 के दशक तक इस्राइल के प्रति भेदभाव की रही और हमने फलस्तीन के मुक्ति संग्राम का जमकर समर्थन किया था मगर यह समर्थन गलत नहीं था। क्योंकि स्वर्गीय यासर अराफात के नेतृत्व में फलस्तीन के लोग भी अपने जायज हकों के लिए लड़ रहे थे औैर वह स्वतंत्र देश का दर्जा चाहते थे। भारत ने इस संघर्ष में कूटनीतिक स्तर पर उनका साथ दिया। फलस्तीन के अस्तित्व में आने के बाद इस्राइल ने अरब देशों के साथ अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कई प्रयास किए जिसमें कैम्प डेविड समझौता सबसे महत्वपूर्ण कहा जा सकता है। बदलती दुनिया के साथ-साथ इस्राइल की स्थिति में परिवर्तन आया और इसके साथ-साथ इस माहौल में भारत के राष्ट्र हितों में भी परिवर्तन आया। अत: 90 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव के शासनकाल में भारत ने इस्राइल के साथ कूटनीतिक संबंधों की शुरूआत की थी। आज इस्राइल को दुनिया का सामरिक उद्योग क्षेत्र का दिग्गज माना जाता है और आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध लडऩे का विशेषज्ञ भी माना जाता है। कृषि और विज्ञान के क्षेत्र में इस छोटे से देश ने जबर्दस्त प्रगति की है जबकि वह चारों तरफ से अरब देशों जैसे सीरिया, जोर्डन, मिस्र, लेबनान और फलस्तीन से घिरा हुआ है।
समय के साथ-साथ भारत के रुख में बदलाव आया। भारत ने संयुक्त राष्ट्र में इस्राइल के समर्थन में वोटिंग की थी। 1992 में कारगिल युद्ध के दौरान भारत और इस्राइल अधिक करीब आए क्योंकि कारगिल युद्ध के दौरान भारत को जरूरी सैन्य साजो-सामान और हथियार इस्राइल से मिले थे। इस्राइल ने कारगिल युद्ध के समय बिना शर्त हमारी मदद की, तब से भारत इस्राइल को एक भरोसेमंद सहयोगी मानने लगा। अब भारत और इस्राइल के बीच कई क्षेत्रों जैसे कृषि, शिक्षा, प्रौद्योगिकी और स्टार्ट अप में द्विपक्षीय संबंध बन चुके हैं। शायद बहुत कम लोगों को पता होगा कि जब श्रीमती इंदिरा गांधी ने गुप्तचर विभाग की ‘रॉ’ संस्था गठित की तो इसके पहले निदेशक आर. काव को गुप्त निर्देश दिए गए कि वह इस्राइल की गुप्तचर संस्था मोसाद के साथ सम्पर्क करके भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करें। इस्राइल और भारत के रिश्ते आपसी सहयोग के आधार पर बने हैं और किसी तीसरे देश या फलस्तीन के प्रति निरपेक्ष रहते हुए द्विपक्षीय आधार पर हैं।
अब्बास की यात्रा से पहले भारत ने फलस्तीन के मुद्दे पर अपने राजनीतिक समर्थन को दोहराया था और कहा था कि वह वहां विकास परियोजनाओं को सहायता देना जारी रखेगा। पिछले वर्ष जब विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज फलस्तीन और इस्राइल दौरे पर गई थीं तो उन्होंने फलस्तीन मुद्दे पर भारत की प्रतिबद्धता दोहराई थी और कहा था कि भारत की फलस्तीन नीति में कोई बदलाव नहीं आया है। भारत दोनों देशों में अपार सम्भावनाएं देख रहा है। फलस्तीन प्रमुख की यात्रा से पहले उनके एक करीबी सहायक ने कहा था कि भारत को इस्राइल के साथ संबंध बनाने का अधिकार है लेकिन यह फलस्तीनी हितों को समर्थन देने की भारत की प्रतिबद्धता की कीमत पर नहीं होना चाहिए। महमूद अब्बासी के दौरे ने दोनों देशों के संबंधों को मजबूत किया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए फलस्तीन और इस्राइल से भारत के संबंधों में संतुलन कायम करना बहुत जरूरी है। देखना है कि प्रधानमंत्री किस तरह से संतुलन बैठाएंगे।