कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन के दौरान हर कोई प्रभावित है। यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि इससे बेरोजगारी की बड़ी चुनौती सामने आ खड़ी हुई है। उद्योग धंधे ठप्प हैं, उत्पादन नहीं हो रहा। लघु एवं कुटीर उद्योगों को अपने अस्तित्व की रक्षा करना मुश्किल हो रहा है। कोरोना वायरस को पराजित करने के लिए हर कोई देशव्यापी बंदी का समर्थन कर रहा है। उद्योग जगत, व्यापारी और बड़े औद्योगिक घराने महामारी से लड़ने के लिए दिल खोल कर दान भी दे रहे हैं। देश में पूर्ण बंदी के कारण व्यावसायिक और वित्तीय गतिविधियों से चमकने वाले केन्द्रों में जिस तरह से सन्नाटा दिखाई दे रहा है उससे भविष्य की आर्थिक गतिविधियों का अनुमान लगाना अकल्पनीय हो गया है।
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि देश की अर्थव्यवस्था के लिए 2008 की वैश्विक मंदी से भी अधिक भयावह हालात हैं। इतना ही नहीं यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि 1930 में आई महामंदी से जिस तरह भारत प्रभावित हुआ था, लगभग वैसा ही प्रभाव कोरोना संकट का इस बार देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ सकता है। कपड़ा उद्योग, दवा उद्योग, आटो इंडस्ट्री, स्टील उद्योग, खिलौना कारोबार, इलैक्ट्रानिक, इलैक्ट्रिकल्स, कैमिकल्स उद्योग सभी प्रभावित हैं। होटल और फिल्म इंडस्ट्री ठप्प होने की वजह से निवेशकों में घबराहट का माहौल है। देश में सबसे अधिक रोजगार सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग सृजित करते हैं। देश में करीब साढ़े सात करोड़ ऐसे छोटे उद्योग हैं जिनमें 18 करोड़ लोगों को नौकरी मिली हुई है। पूर्ण मंदी के चलते असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के सामने पेट पालने की चुनौती आ खड़ी हुई है। उद्योग जगत की चिंताएं अधिक उभर आई हैं। यद्यपि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बार-बार यह कह रहे हैं कि उद्योग जगत कर्मचारियों की छंटनी नहीं करे, कर्मचारियों का वेतन नहीं काटे। संकट की घड़ी में ऐसा किया भी जाना चाहिए परन्तु उद्योग जगत में सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि वह खुद को कैसे बचाए। वेतन, बिजली बिल, टैक्स, बैंक ऋण पर ब्याज, जीएसटी, कर्मचारियों की भविष्य निधि, ईएसआईसी, सम्पत्ति कर इत्यादि सब कुछ ज्यों के त्यों हैं। इन खर्चों में कोई कटौती नहीं, कोई राहत नहीं। अब जबकि लॉकडाउन की अवधि 3 मई तक बढ़ा दी गई है, इसका अर्थ लगभग डेढ़ महीने तक आर्थिक गतिविधियां सामान्य नहीं होंगी। उसके बाद भी गतिविधियां पटरी पर लाने में काफी समय लगेगा। ऐसी स्थिति में उद्योगों को सरकारी सहारा दिया जाना जरूरी है। लॉकडाउन से निकलना भी आसान नहीं होगा।
-उद्योग जगत का केन्द्र सरकार से आग्रह है कि कमर्शियल बिजली के बिल अगले तीन माह के लिए आधे कर दिए जाएं।
-एक वर्ष के लिए कम्पनियों को जीएसटी का दस प्रतिशत अपने पास रखने की इजाजत दी जाए।
-बैंकों और एनबीएफसी की ईएमआई 6 माह तक टाली जाए और देर से अदायगी पर ब्याज पर कोई लेवी न लगाई जाए।
-कर्मचारियोंं की 6 माह की भविष्य नििध और ईएसआईसी की राशि सरकार खुद वहन करे।
-सभी कमर्शियल सम्पत्तियों पर 2020-2021 के लिए सम्पत्ति कर में आधी छूट दी जाए।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने गरीबों, किसानों, महिलाओं को राहत पहुंचाने के लिए एक लाख सत्तर हजार करोड़ के पैकेज का ऐलान किया था। देश की कंपनियां को विकल्प दिया गया है कि वे कार्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी (सीएसआर) का धन कोरोना प्रभावित लोगों के कल्याण पर खर्च कर सकती हैं। यह काम बड़ी कम्पनियां करने में सक्षम हैं, लेकिन लघु एवं मध्यम इंडस्ट्री ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं। 21 दिनों की बंदी के चलते करीब 3.15 लाख करोड़ का खुदरा व्यापार प्रभावित हुआ है। देश में लगभग 7 करोड़ व्यापारी हैं। जिनमें से करीब डेढ़ करोड़ व्यापारी आवश्यक वस्तुओं का व्यापार करते हैं। उनमें से केवल 40 लाख व्यापारी ही जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति शृंखला को जारी रखे हुए हैं। सरकार को लॉकडाउन के बाद की स्थिति को सम्भालने के लिए व्यापक तैयारी करनी होगी। फिलहाल तो सरकार लोगों की जान बचाने में लगी हुई है लेकिन जहान चलाना भी जरूरी है। कई राज्यों के मुख्यमंत्री भी महसूस करने लगे हैं कि लम्बे समय तक लॉकडाउन के चलते उद्योग धंधों को बंद नहीं किया जा सकता। लॉकडाउन के साइड इफैक्ट तो होंगे ही लेकिन इन दुष्प्रभावों से बचने के लिए बहुत कुछ करना होगा। उद्योग जगत को केन्द्र सरकार से सहारा तो चाहिए ही।